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Shiv Sena विधायकों की हिफाजत Congress करे - कितना अजीब है ना!

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 22 नवम्बर, 2019 04:28 PM
  • 22 नवम्बर, 2019 04:28 PM
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शिवसेना (Shiv Sena) विधायकों को कांग्रेस शासन वाले राज्य में शिफ्ट करने का आइडिया ही शिवसेना के लिए खतरनाक है. वैसे भी उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) लगता है राहुल गांधी की राह पर बढ़ने लगे हैं- और आगे खतरनाक मोड़ है.

शिवसेना विधायकों को राजस्थान भेजा जाता है या नहीं, फर्क नहीं पड़ता. फर्क उस सोच से पड़ता है जिसके तहत शिवसेना नेतृत्व ने शिवसैनिकों को कांग्रेस सरकार की हिफाजत में भेजने को लेकर विचार किया. राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार बनने में एक अहम कड़ी हैं. कांग्रेस ने अपने विधायकों को भी जयपुर के रिजॉर्ट में भेजा था ताकि वे किसी खरीद-फरोख्त के शिकार होने से बच सकें. कांग्रेस विधायकों के जयपुर जाने और शिवसेना विधायकों को भेजे जाने के विचार में बुनियादी फर्क है.

क्या शिवसैनिक इतने कमजोर हो गये हैं कि उनकी हिफाजत के लिए उद्धव ठाकरे को कांग्रेस वाले राज्य की मदद लेनी पड़ रही है?

राहुल गांधी की राह पर उद्धव ठाकरे

शिवसेना विधायकों को मुंबई में होटल में ठहराया जाना तो ठीक था. रंग शारदा होटल से मलाड के होटल में शिफ्ट किये में भी कोई बुराई नहीं थी - लेकिन शिवसैनिकों की हिफाजत कोई और करे ये सुनने में ही हैरान करने वाला है!

शिवसेना विधायकों को महाराष्ट्र से बाहर भेजने का विचार इसीलिए आया होगा क्योंकि अभी तक जहां वे हैं वहां तक किसी का पहुंचना आसान होगा. ऐसे में कांग्रेस की सरकार होने से राजस्थान ज्यादा सुरक्षित लगा होगा. वैसे भी महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ सरकार बनाने के लिए कांग्रेस नेतृत्व को यकीन दिलाने में अशोक गहलोत की बड़ी भूमिका मानी जा रही है. ये अशोक गहलोत और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ही रहे जिनकी दलीलें सोनिया गांधी को फैसले लेने में दमदार नजर आयीं. फिर बात आगे बढ़ी.

सुना है कि शिवसेना विधायकों को गोवा में रखने पर भी विचार हुआ था. हालांकि गोवा में भी तो बीजेपी की ही सरकार है. ये आइडिया रिजेक्ट हो जाने की वजह भी यही रही होगी. कहते हैं गोवा के अलावा एक और कांग्रेस शासन वाले राज्य मध्य प्रदेश पर भी काफी विचार हुआ था - लेकिन राजस्थान को लेकर ही आम राय बन पायी. एक बार राजस्थान में एंट्री के बाद ये भी तय होता कि जयपुर ही ठीक रहेगा या...

शिवसेना विधायकों को राजस्थान भेजा जाता है या नहीं, फर्क नहीं पड़ता. फर्क उस सोच से पड़ता है जिसके तहत शिवसेना नेतृत्व ने शिवसैनिकों को कांग्रेस सरकार की हिफाजत में भेजने को लेकर विचार किया. राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार बनने में एक अहम कड़ी हैं. कांग्रेस ने अपने विधायकों को भी जयपुर के रिजॉर्ट में भेजा था ताकि वे किसी खरीद-फरोख्त के शिकार होने से बच सकें. कांग्रेस विधायकों के जयपुर जाने और शिवसेना विधायकों को भेजे जाने के विचार में बुनियादी फर्क है.

क्या शिवसैनिक इतने कमजोर हो गये हैं कि उनकी हिफाजत के लिए उद्धव ठाकरे को कांग्रेस वाले राज्य की मदद लेनी पड़ रही है?

राहुल गांधी की राह पर उद्धव ठाकरे

शिवसेना विधायकों को मुंबई में होटल में ठहराया जाना तो ठीक था. रंग शारदा होटल से मलाड के होटल में शिफ्ट किये में भी कोई बुराई नहीं थी - लेकिन शिवसैनिकों की हिफाजत कोई और करे ये सुनने में ही हैरान करने वाला है!

शिवसेना विधायकों को महाराष्ट्र से बाहर भेजने का विचार इसीलिए आया होगा क्योंकि अभी तक जहां वे हैं वहां तक किसी का पहुंचना आसान होगा. ऐसे में कांग्रेस की सरकार होने से राजस्थान ज्यादा सुरक्षित लगा होगा. वैसे भी महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ सरकार बनाने के लिए कांग्रेस नेतृत्व को यकीन दिलाने में अशोक गहलोत की बड़ी भूमिका मानी जा रही है. ये अशोक गहलोत और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ही रहे जिनकी दलीलें सोनिया गांधी को फैसले लेने में दमदार नजर आयीं. फिर बात आगे बढ़ी.

सुना है कि शिवसेना विधायकों को गोवा में रखने पर भी विचार हुआ था. हालांकि गोवा में भी तो बीजेपी की ही सरकार है. ये आइडिया रिजेक्ट हो जाने की वजह भी यही रही होगी. कहते हैं गोवा के अलावा एक और कांग्रेस शासन वाले राज्य मध्य प्रदेश पर भी काफी विचार हुआ था - लेकिन राजस्थान को लेकर ही आम राय बन पायी. एक बार राजस्थान में एंट्री के बाद ये भी तय होता कि जयपुर ही ठीक रहेगा या उदयपुर.

कहते हैं विधायकों को पहुंचाने का जिम्मा आदित्य ठाकरे और एकनाथ शिंदे को सौंपा गया - और ये भी तय हुआ कि मंजिल तक पहुंचा देने के बाद दोनों ही वापस मुंबई लौट आएंगे.

उद्धव ठाकरे को राहुल गांधी की राजनीति क्यों पसंद आने लगी?

शिवसेना के भीतर इस तरह की सोच ही हैरान करने वाली है. जिन शिवसैनिकों के बाबरी मस्जिद गिराने में संभावित भूमिका पर बाबा साहेब ठाकरे गर्व की अनुभूति और खुलेआम अभिव्यक्त कर चुके हों - उन शिवसैनिकों को किसी विरोधी विचारधारा की पार्टी की सरकार की पहरेदारी में सुरक्षित समझा जाये. ये तो शिवसेना के लिए आत्ममंथन का सबसे बड़ा विषय है. आखिर शिवसेना की राजनीति जा किस दिशा में रही है?

ये तो ऐसा लग रहा है जैसे उद्धव ठाकरे भी राहुल गांधी की तरह सोचने लगे हों. इसलिए नहीं कि वो कांग्रेस सरकार वाले राज्य में विधायकों को भेजने का फैसला करते हैं - बल्कि इसलिए कि वो हिंदुत्व की लाइन से पीछे हट कर लगातार सोच रहे हैं. उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र में धर्मनिरपेक्ष सरकार के लिए राजी हो गये हैं. उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र में सरकार बनने पर मुस्लिमों को शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण देने पर भी राजी हो गये हैं. उद्धव ठाकरे वीर सावरकर को भारत रत्न देने की मांग से भी पीछे हट गये हैं.

जिस तरह राहुल गांधी सॉफ्ट हिंदुत्व का रास्ता अख्तियार कर चलते रहे और तरह तरह के नुस्खे आजमाते रहे, उद्धव ठाकरे भी धर्मनिरपेक्षता के रास्ते चल पड़े हैं - आगे खतरनाक सियासी मोड़ का बोर्ड भी लगा हो सकता है, लेकिन शिवसेना नेता को फिलहाल इस बात की कतई फिक्र नहीं लगती.

जब राहुल गांधी के सॉफ्ट-हिंदुत्व वाले तमाम प्रयोगों से कुछ हाथ नहीं लगा, फिर उद्धव ठाकरे धर्मनिरपेक्षता के नये सियासी ठेकेदार बन जाएंगे - बात शायद ही किसी के गले उतर पाये.

महाराष्ट्र में सरकार भले ही अभी बन रही हो, राजनीति की दिशा तो भविष्य के लिए तय हो रही है. एनसीपी नेता शरद पवार की चाल में शिवसेना और कांग्रेस दोनों बुरी तरह उलझ चुके हैं. शिवसेना और कांग्रेस को होने वाले नुकसान का सीधा फायदा एनसीपी और बीजेपी को ही होना है. चुनावों से पहले अस्तित्व के लिए तरसती एनसीपी को बनाये रखने के लिए शरद पवार की जमीन तभी बची रह सकती है जब महाराष्ट्र से कांग्रेस और शिवसेना दोनों का सफाया हो जाये. ऐसे में वो बीजेपी के राजनीतिक प्रभाव के बाद बचे इलाके की सियासत आराम से कर सकते हैं.

BJP का हौआ और बचाव के उपाय

एक रिपोर्ट के अनुसार शिवसेना के कुछ विधायकों में अचानक एक बार होटल में ही हाथापाई होने लगी. खबर मिलते ही आदित्य ठाकरे भाग कर पहुंचे. थोड़ी देर बाद उद्धव ठाकरे भी जा धमके. डांट फटकार का दौर भी चला. लड़ाई की वजह भी शिवसेना का विरोधियों से हाथ मिलाने पर मतभेद ही रहा.

एक और खबर रही कि होटल में ही एक विधायक ने उद्धव ठाकरे को साफ साफ चेताया कि शरद पवार कभी उन्हें सत्ता पर नियंत्रण नहीं करने देंगे - कुछ विधायकों का ये भी सवाल रहा कि वे लोगों को कैसे बताएंगे कि जिन पार्टियों के खिलाफ चुनाव लड़ा उसी से हाथ मिला लिया?

एक दिलचस्प खबर ये भी है कि औरंगाबाद का एक वोटर उद्धव ठाकरे की शिकायत लेकर पुलिस के पास पहुंच गया. रत्नाकर चौरे की शिकायत है कि शिवसेना ने उनके साथ धोखा किया है.

चौरे का कहना है कि एक रैली में उद्धव ठाकरे पूर्व सांसद चंद्रकांत खैरे और विधायक प्रदीप जायसवाल के साथ मौजूद थे और सभी ने शिवसेना को वोट देने की सलाह दी. नेताओं का भाषण सुन कर चौरे ने शिवसेना को वोट देने का फैसला किया और वोटिंग के दिन अमल भी. चौरे का कहना है कि अब वो ठगा सा महसूस कर रहे हैं.

हालांकि, बीजेपी का साथ छोड़ने के पीछे उद्धव ठाकरे की अपनी दलील है. शिवसेना विधायकों की बैठक में उद्धव ने कहा, ‘आपको समझना होगा कि हमने अपने पुराने दोस्त के साथ 25 साल पुराना साथ क्यों छोड़ा, वो हमसे झूठ बोल रहे थे.’

मीटिंग में जब विधायकों ने उद्धव ठाकरे से खुद सीएम की कुर्सी संभालने की बात की तो बोले - 'सही समय पर फैसला होगा.' वैसे तब तक मुख्यमंत्री के लिए एक और नाम मैदान में सैर करने लगा है - संजय राउत. यहां ध्यान देने वाली एक बात और है. पहले आदित्य ठाकरे को डिप्टी सीएम या मुख्यमंत्री बनाने की बात चल रही थी, लेकिन विधायक दल का नेता एकनाथ शिंदे को बना दिया गया.

संजय राउत का नाम उछलने पर वो कहने लगे हैं कि शिवसैनिक रहे हैं और बने रहना चाहते हैं. महाराष्ट्र के लोगों की तरह वो भी चाहते हैं कि उद्धव ठाकरे ही मुख्यमंत्री बनें. खास बात ये है कि एनसीपी और कांग्रेस नेतृत्व भी उद्धव ठाकरे के ही मुख्यमंत्री बनने के पक्ष में है.

दरअसल, सभी के मन में बीजेपी को लेकर एक हौआ है. वैसे भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो खुलेआम कहते हैं कि बीजेपी के सत्ता में होने से अगर किसी को डर लगता है तो अच्छा है. कांग्रेस और एनसीपी दोनों के मन से कर्नाटक और जम्मू-कश्मीर को लेकर खौफ बना हुआ है.

एक मीटिंग में, बताते हैं, शरद पवार ने उद्धव ठाकरे को समझाने की कोशिश की कि मुख्यमंत्री की कुर्सी वो जरूर संभालें - और इसकी वजह भी बतायी. मीटिंग में मौजूद संजय राउत और आदित्य ठाकरे ने भी शरद पवार की सलाह से पूरी सहमति जतायी. असल में कांग्रेस और शिवसेना को इस बात का डर सता रहा है कि महाराष्ट्र में भी कहीं जम्मू-कश्मीर की तरह विधानसभा भंग न कर दी जाये. ये बात धारा 370 लागू होने से बहुत पहले की है - जब बीजेपी और पीडीपी का गठबंधन टूटने के बाद महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला सरकार बनाने के लिए साथ आने की कोशिश कर रहे थे तभी राज्यपाल ने विधानसभा भंग कर दी थी. आगे की कहानी तो सबको पता ही है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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