• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
सियासत

क्यों जरूरी है सऊदी अरब और ईरान के मतभेद का बाहर आना

    • राहुल मिश्र
    • Updated: 07 जनवरी, 2016 04:28 PM
  • 07 जनवरी, 2016 04:28 PM
offline
कहीं यह दुनिया सभ्यताओं के टकराव से हटकर किसी एक सभ्यता विशेष में पनप रहे खतरे की तरफ तो नहीं जा रही है जिसके असर से दुनिया की कोई भी सभ्यता अछूती नहीं रह जाएगी?

बीते कुछ महीनों में दुनियाभर के कई बड़े-छोटे नेताओं ने कुछ ऐसे बयान दिए है जिससे साफ संकेत मिल रहा है कि दुनिया के सामने एक बहुत बड़ी चुनैती खड़ी होने को तैयार है. अब चाहे अपने बयान में अमेरिका में राष्ट्रपति पद के प्रबल दावेदार डोनाल्ड ट्रंप ये कहें कि अमेरिका को मुसलमानों के प्रति अपने रुख में बड़ा फेरबदल करने की जरूरत है या फिर यूनाइटेड नेशन के अधिवेशन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दुनिया से अपील करें कि आतंकवाद से निपटने के लिए पूरी दुनिया को सूफी ट्रेडिशन को अपनाने की जरूरत है.

कहीं इन नेताओं का इशारा सभ्यताओं के टकराव से हटकर किसी एक सभ्यता विशेष में पनप रहे खतरे की तरफ तो नहीं जिसके असर से दुनिया की कोई भी सभ्यता अछूती नहीं रह जाएगी? इन बयानो से इतना तो साफ है कि इस्लाम में कहीं कुछ गलत हो रहा है जो कुछ सभ्यताओं को एक बड़े खतरे का इशारा कर रही हैं.

सऊदी अरब का आतंक के खिलाफ गठबंधन

15 दिसंबर 2015 को सऊदी अरब ने बढ़ते इस्लामिक आतंकवाद को लगाम लगाने के लिए 34 मुस्लिम देशों के एक गठबंधन की नींव रखी. इस गठबंधन में मिस्र और तुर्की समेत कतर, यूएई, अफ्रीकी और एशियाई मुस्लिम देश शामिल किए गए हैं. ईरान, इराक, सीरिया, लीबिया और अफगानिस्तान जैसे मुस्लिम देशों को इससे बाहर रखा गया है.

इस्लािमिक स्टेिट (ISIS)

इस्लामिक स्टेट (ISIS) मौजूदा वक्त में सभी अरब देशों के लिए एक बड़ा खतरा बनकर उभर रहा है. ISIS आंतकवाद का वह चेहरा है जिसे हम पहले अलकायदा के नाम से जानते थे. अतंर महज इतना है कि अलकायदा ने सबसे पहले अमेरिका समेत पश्चिमी देशों को अपना निशाना बनाया. अलकायदा को रोकने के लिए अमेरिका को अपना गठबंधन बनाकर वॉर अगेन्स्ट टेरर की घोषणा करनी पड़ी जिसके तहत पश्चिमी देशों की संयुक्त सेनाओं ने आतंकवाद के सफाए का बीड़ा उठाया. अमेरिका प्रायोजित वॉर अगेन्स्ट टेरर को सऊदी अरब समेत कई अरब देशों से समर्थन तो मिला लेकिन इससे पहले आतंकवाद का सफाया होता, खुद आतंकी संगठनों का स्वरूप बदल...

बीते कुछ महीनों में दुनियाभर के कई बड़े-छोटे नेताओं ने कुछ ऐसे बयान दिए है जिससे साफ संकेत मिल रहा है कि दुनिया के सामने एक बहुत बड़ी चुनैती खड़ी होने को तैयार है. अब चाहे अपने बयान में अमेरिका में राष्ट्रपति पद के प्रबल दावेदार डोनाल्ड ट्रंप ये कहें कि अमेरिका को मुसलमानों के प्रति अपने रुख में बड़ा फेरबदल करने की जरूरत है या फिर यूनाइटेड नेशन के अधिवेशन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दुनिया से अपील करें कि आतंकवाद से निपटने के लिए पूरी दुनिया को सूफी ट्रेडिशन को अपनाने की जरूरत है.

कहीं इन नेताओं का इशारा सभ्यताओं के टकराव से हटकर किसी एक सभ्यता विशेष में पनप रहे खतरे की तरफ तो नहीं जिसके असर से दुनिया की कोई भी सभ्यता अछूती नहीं रह जाएगी? इन बयानो से इतना तो साफ है कि इस्लाम में कहीं कुछ गलत हो रहा है जो कुछ सभ्यताओं को एक बड़े खतरे का इशारा कर रही हैं.

सऊदी अरब का आतंक के खिलाफ गठबंधन

15 दिसंबर 2015 को सऊदी अरब ने बढ़ते इस्लामिक आतंकवाद को लगाम लगाने के लिए 34 मुस्लिम देशों के एक गठबंधन की नींव रखी. इस गठबंधन में मिस्र और तुर्की समेत कतर, यूएई, अफ्रीकी और एशियाई मुस्लिम देश शामिल किए गए हैं. ईरान, इराक, सीरिया, लीबिया और अफगानिस्तान जैसे मुस्लिम देशों को इससे बाहर रखा गया है.

इस्लािमिक स्टेिट (ISIS)

इस्लामिक स्टेट (ISIS) मौजूदा वक्त में सभी अरब देशों के लिए एक बड़ा खतरा बनकर उभर रहा है. ISIS आंतकवाद का वह चेहरा है जिसे हम पहले अलकायदा के नाम से जानते थे. अतंर महज इतना है कि अलकायदा ने सबसे पहले अमेरिका समेत पश्चिमी देशों को अपना निशाना बनाया. अलकायदा को रोकने के लिए अमेरिका को अपना गठबंधन बनाकर वॉर अगेन्स्ट टेरर की घोषणा करनी पड़ी जिसके तहत पश्चिमी देशों की संयुक्त सेनाओं ने आतंकवाद के सफाए का बीड़ा उठाया. अमेरिका प्रायोजित वॉर अगेन्स्ट टेरर को सऊदी अरब समेत कई अरब देशों से समर्थन तो मिला लेकिन इससे पहले आतंकवाद का सफाया होता, खुद आतंकी संगठनों का स्वरूप बदल गया और आज इस्लामिक स्टेट दुनिया में आतंकवाद का झंडा उठाकर खड़ा है.

एक अहम बात यह है कि ईरान और उसके प्रभाव के मुस्लिम देशों ने अमेरिका के वॉर अगेन्स्ट टेरर का समर्थन नहीं किया था. अब वॉर अगेन्स्ट टेरर ने जहां अलकायदा का स्वरूप बदल दिया वहीं इस्लामिक स्टेट की सबसे अहम बात यह है कि यह एक सुन्‍नी मुसलमानों का संगठन बन गया है जो कि शिया मुसलमानों को भी इस्लाम विरोधी मानता है. लिहाजा इस्लामिक स्टेट के पहले निशाने पर उसके प्रभाव क्षेत्र में आ रहे शिया मुसलमान हैं जिनका कत्लेआम किया जा रहा है. गौरतलब है कि ईरान ने अमेरिका के वॉर अगेन्स्ट टेरर का साथ इसीलिए नहीं दिया था क्योंकि उसका मानना था कि यह पश्चिमी साम्राज्यवादी साजिश है जिसके चलते सुन्नी मुसलमानों को शिया मुसलमानों से लड़ाने के लिए रची गई है.

सऊदी खेमे से कतरा रहा है पाकिस्तान

आतंकवाद के खिलाफ सऊदी अरब गठबंधन की घोषणा के वक्त सऊदी अरब को यह विश्वास था कि पाकिस्तान इस गठबंधन में उसके साथ रहेगा लिहाजा 34 देशों की घोषित सूची में पाकिस्तान का नाम शामिल किया गया था. मीडिया में छप रही सभी खबरों में साफ लिखा जा रहा था कि एशिया से पाकिस्तान इस गठबंधन का अहम हिस्सा होगा. सऊदी अरब के इस गठबंधन को जब अमेरिका का गुडलक भी मिलने लगे तो यह सोचना कि पाकिस्तान इस गठबंधन से बाहर रहेगा थोड़ा मुश्किल हो जाता है. लेकिन पाकिस्तान की संसद में इस विषय पर हो रही बहस कुछ और ही तर्क दे रही है. पाकिस्तान के कुछ नेताओं का मानना है कि वह ईरान की कीमत पर इस गठबंधन में शामिल नहीं हो सकता है. वहीं सऊदी अरब के हाउस ऑफ सॉद से पाकिस्तान के अच्छे संबंधो के बावजूद पाकिस्तान की सरकार और पाकिस्तानी सेना इस गठबंधन में शामिल होने से कतरा रही है.

पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय से एक वरिष्ठ अधिकारी ने बीबीसी को बताया है कि उसके नाम की घोषणा करने से पहले सऊदी अरब ने पाकिस्तान को आधिकारिक रूप में कोई जानकारी नहीं दी है और उसे खुद मीडिया के जरिए इस सूची के बारे में पता चला है. पाकिस्तान में कूटनीतिक मामलों के कई जानकारों का मानना है कि इस गठबंधन में शामिल होने में पाकिस्तान के लिए दो अहम खतरे हैं, पहला, कि उसका ईरान से रिश्ता खराब हो जाएगा जो कि उसके लिए काफी अहम है वहीं दूसरा कि पाकिस्तान में बड़ी संख्या में शिया अल्पसंख्यक है और इस फैसले से पूरे देश में शिया-सुन्नी विवाद बढ़ने का खतरा है.

भारत और पाकिस्तान में शिया-सुन्नी समीकरण

भारत में 2011 सेन्सस के मुताबिक 14 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम जनसंख्या है लेकिन इसमें शिया-सुन्नी के पृथक आंकड़ों का अभाव है. वहीं पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में अनुमान है कि सुन्नी-शिया अनुपात 80-20 फीसदी क्रमश: है. वहीं भारत में अलग-अलग स्रोतों से मिलते आंकड़ो के मुताबिक यह अनुपात संभवत 75-25 फीसदी का है. लिहाजा, पाकिस्तान की तरह है भारत में भी बड़ी संख्या में सुन्‍नी समुदाय मौजूद है. हालांकि मौजूदा समय में अतंरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ रहे आईएस का कोई खास प्रभाव भारत में देखने को नहीं मिलता है लेकिन इस अंतरराष्ट्रीय तनाव के असर से पाकिस्तान में सुन्नी-शिया विवाद बढ़ता है को यह भारत के लिए भी एक बड़ी चुनौती बनकर सामने खड़ी हो सकती है.

सऊदी अरब और ईरान के मतभेद में भले बड़ी हिंसा की बू आ रही हो लेकिन इस सच्चाई को भी नहीं नकारा जा सकता है कि 21वीं सदी में पहुंच चुके मुसलमानों के लिए यह मतभेद आंख खोलने वाला साबित होगा. अब भले खाड़ी देशों में इस बात को लेकर तनाव बढ़ रहा है कि आने वाले दिनों में सऊदी अरब और ईरान के बीच तनाव दुनियाभर में सुन्नी-शिया मुसलमानों को दो खेमों में बांटने का काम कर सकता है. ऐसा हुआ तो इसका परिणाम कुछ देशों में काफी हिंसक भी हो सकते हैं. लेकिन इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि बदलते समय के साथ आज मुस्लिस समाज इस अलगाववाद की राजनीति को बखूबी समझ रहा है. इस दौर में मुस्लिम समाज के एक बड़े और प्रभावी तबके को अपेक्षा है अपने धर्म के उस स्वरूप से जो कट्टरपंथ के इस बिगुल का विरोध कर सके और एक अधिक समायोजित परिभाषा दे सके.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    अब चीन से मिलने वाली मदद से भी महरूम न हो जाए पाकिस्तान?
  • offline
    भारत की आर्थिक छलांग के लिए उत्तर प्रदेश महत्वपूर्ण क्यों है?
  • offline
    अखिलेश यादव के PDA में क्षत्रियों का क्या काम है?
  • offline
    मिशन 2023 में भाजपा का गढ़ ग्वालियर - चम्बल ही भाजपा के लिए बना मुसीबत!
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲