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बीजेपी की कसौटी पर शरद पवार और नीतीश कुमार में से कौन ज्यादा खरा है?

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 08 अप्रिल, 2022 04:44 PM
  • 08 अप्रिल, 2022 04:44 PM
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बीजेपी की नजर से देखने की कोशिश करें तो शरद पवार (Sharad Pawar) और नीतीश कुमार (Nitish Kumar) एक ही मोड़ पर खड़े नजर आते हैं. एक करीब आते हुए, दूसरे दूर जाते हुए - फर्ज कीजिये बीजेपी (BJP) को दोनों में से किसी एक को चुनना पड़े तो किसे तरजीह मिलेगी?

शरद पवार (Sharad Pawar) और नीतीश कुमार के प्रभाव वाले राजनीतिक क्षेत्रों में करीब दो हजार किलोमीटर का फासला है. फिर भी दोनों की राजनीति में हाल फिलहाल एक कॉमन एजेंडा साफ तौर पर नजर आता है - और वो है बीजेपी के साथ दोनों के रिश्ते. थोड़े बनते, थोड़े बिगड़ते.

ध्यान से देखें तो नीतीश कुमार (Nitish Kumar) और बीजेपी के रिश्ते में दूरियां बढ़ी हुई लगती हैं, जबकि शरद पवार के मामले में फासला काफी कम लगने लगा है. खास बात ये है कि रिश्ते को प्रभावित करने वाला फैक्टर है बिहार और महाराष्ट्र की सरकारें.

बिहार में बीजेपी (BJP) अभी एनडीए की सरकार में साझीदार है. बल्कि, ये कहें कि जेडीयू के मुख्यमंत्री पर भी बीजेपी ज्यादा प्रभाव रखने लगी है. महाराष्ट्र का हाल ये है कि बीजेपी 2019 से ही सत्ता से बाहर है. 2015 के बाद कुछ दिनों तक बिहार में भी वैसा ही हाल रहा. अब बीजेपी महाराष्ट्र में भी बिहार की तरह सत्ता पर काबिज होना चाहती है.

महाराष्ट्र को लेकर बीजेपी की जिद रही है कि मुख्यमंत्री उसी का होगा. और ऐसी ही मंशा बिहार में हो लगती है, मुख्यमंत्री तो बीजेपी का ही होगा - यही वो मुद्दा है जिसमें शरद पवार और नीतीश कुमार की भूमिका बीजेपी के लिए एक जैसी लगती है.

महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की जिद बीजेपी जैसी नहीं रही है. वो तो बीजेपी के साथ बराबरी पर ढाई-ढाई साल के रोटेशन पर बीजेपी और शिवसेना के मुख्यमंत्री चाहते थे, बीजेपी को ये मंजूर नहीं हुआ और बात बिगड़ गयी. मान कर चलना होगा, आगे ऐसी कोई नौबत आने पर भी उद्धव ठाकरे कम से कम इस पर तो कायम रहेंगे ही. अब तो बीजेपी को छोड़ कर और सरकार चलाने के बाद आत्मविश्वास में इजाफा ही हुआ होगा.

बिहार में हाल फिलहाल एक चर्चा शुरू हुई कि बीजेपी नीतीश कुमार को उपराष्ट्रपति बना कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर...

शरद पवार (Sharad Pawar) और नीतीश कुमार के प्रभाव वाले राजनीतिक क्षेत्रों में करीब दो हजार किलोमीटर का फासला है. फिर भी दोनों की राजनीति में हाल फिलहाल एक कॉमन एजेंडा साफ तौर पर नजर आता है - और वो है बीजेपी के साथ दोनों के रिश्ते. थोड़े बनते, थोड़े बिगड़ते.

ध्यान से देखें तो नीतीश कुमार (Nitish Kumar) और बीजेपी के रिश्ते में दूरियां बढ़ी हुई लगती हैं, जबकि शरद पवार के मामले में फासला काफी कम लगने लगा है. खास बात ये है कि रिश्ते को प्रभावित करने वाला फैक्टर है बिहार और महाराष्ट्र की सरकारें.

बिहार में बीजेपी (BJP) अभी एनडीए की सरकार में साझीदार है. बल्कि, ये कहें कि जेडीयू के मुख्यमंत्री पर भी बीजेपी ज्यादा प्रभाव रखने लगी है. महाराष्ट्र का हाल ये है कि बीजेपी 2019 से ही सत्ता से बाहर है. 2015 के बाद कुछ दिनों तक बिहार में भी वैसा ही हाल रहा. अब बीजेपी महाराष्ट्र में भी बिहार की तरह सत्ता पर काबिज होना चाहती है.

महाराष्ट्र को लेकर बीजेपी की जिद रही है कि मुख्यमंत्री उसी का होगा. और ऐसी ही मंशा बिहार में हो लगती है, मुख्यमंत्री तो बीजेपी का ही होगा - यही वो मुद्दा है जिसमें शरद पवार और नीतीश कुमार की भूमिका बीजेपी के लिए एक जैसी लगती है.

महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की जिद बीजेपी जैसी नहीं रही है. वो तो बीजेपी के साथ बराबरी पर ढाई-ढाई साल के रोटेशन पर बीजेपी और शिवसेना के मुख्यमंत्री चाहते थे, बीजेपी को ये मंजूर नहीं हुआ और बात बिगड़ गयी. मान कर चलना होगा, आगे ऐसी कोई नौबत आने पर भी उद्धव ठाकरे कम से कम इस पर तो कायम रहेंगे ही. अब तो बीजेपी को छोड़ कर और सरकार चलाने के बाद आत्मविश्वास में इजाफा ही हुआ होगा.

बिहार में हाल फिलहाल एक चर्चा शुरू हुई कि बीजेपी नीतीश कुमार को उपराष्ट्रपति बना कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज होने के बारे में सोच रही है. ये चर्चा भी नीतीश कुमार के ही एक बात बोल देने से शुरू हुई. चर्चा आगे बढ़ी तो बिहार बीजेपी के नेताओं ने अलग अलग बयान देकर इसे और भी गंभीर बना दिया.

फर्ज कीजिये, बीजेपी नीतीश कुमार की जगह उपराष्ट्रपति पद अगर शरद पवार को देने पर विचार करे तो? जाहिर है, झुकाव उधर ही होगा जिधर फायदा ज्यादा समझ में आएगा!

मुलाकात हुई, क्या बात हुई?

शिष्टाचार के नाम पर होने वाली नेताओं की ज्यादातर मुलाकातें गुमराह करने वाली ही होती हैं. अच्छी बात ये रही कि एनसीपी नेता शरद पवार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अपनी मुलाकात को शिष्टाचार से नहीं जोड़ देने का फैसला लिया. कम से कम एक मानने लायक वजह तो बतायी ही है. ये तो मानना ही पड़ेगा.

वैसे भी दोनों के बीच वास्तव में क्या बातचीत हुई, शरद पवार बताने को बाध्य तो हैं नहीं. संजय राउत केस पर चर्चा की बात कर शरद पवार ने इमानदारी तो बरती ही है. यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से शिवपाल यादव मिले और शिष्टाचार से जोड़ दिया. राज ठाकरे और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी की हाल की मुलाकात भी तो ऐसी ही रही होगी.

नीतीश कुमार और शरद पवार - बीजेपी के लिए ज्यादा फायदेमंद कौन?

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ऐसे मामलों में ज्यादा इमानदार लगती हैं. एक बार ममता बनर्जी ने मीडिया के सामने ही कहा था कि राजनीति में जो लोग हैं, मिलेंगे तो राजनीति की बात करेंगे ही. स्वाभाविक है. ये तो अच्छी बात है कि सोनिया गांधी से न मिलने को लेकर पूछे जाने पर ममता बनर्जी भी ज्यादा इधर उधर नहीं करतीं. साफ साफ बोल देती हैं, संविधान में ऐसा लिखा कहां है.

प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात पर शरद पवार की इमानदारी की तारीफ करनी होगी, लेकिन जो बात वो बता रहे हैं, आंख मूंद कर पूरा सच नहीं माना जा सकता. ऐसी बातें हमेशा आधा सच ही लगती हैं. ये बात अलग है कि ये आधा सच भी राजनीतिक तौर पर पूरी तरह दुरूस्त समझा जाता है.

अगर शरद पवार संजय राउत के मामले की जगह कुछ और बता दिये होते तो भी चलता. जब वो बताये कि किसानों के मामले पर मिले थे, तो सबने मान लिया. जब बताया गया कि वो सहकारिता से जुड़े मुद्दों को लेकर मिले थे, तो भी मान लिया गया - लेकिन संजय राउत का नाम लेते ही संदेह के भाव उपज आये. आखिर संजय राउत क्यों और अनिल देशमुख या नवाब मलिक क्यों नहीं?

वैसे संजय राउत ने अपनी तरफ से कॉम्पिमेंट दे दिया है, 'मैं तो शरद पवार का आदमी हूं.' आपको याद होगा, जब बीजेपी गठबंधन महाराष्ट्र में टूट की कगार पर संघर्ष कर रहा था तो शरद पवार से संजय राउत शिष्टाचार के नाम पर ही मिला करते थे. तब भी वो शरद पवार के साथ अपने बरसों पुराने रिश्तों की दुहाई देते फिरते थे - और अब महाराष्ट्र में गठबंधन की सरकार बनने का पूरा श्रेय भी दे डालते हैं. आखिर शिष्टाचार वाली मेल मुलाकातों के कुछ साइड इफेक्ट भी तो होते ही होंगे. इसे ऐसे भी समझने की कोशिश की जा सकती है.

मान लेते हैं कि शरद पवार ने प्रधानमंत्री मोदी से सिर्फ संजय राउत के केस के सिलसिले में ही बात की होगी. और जैसा कि शरद पवार ने बताया है कि प्रधानमंत्री मोदी ने मामले को देखने का भरोसा भी दिलाया है. कुछ कुछ वैसे ही जैसे उद्धव ठाकरे का मामला रहा.

ये भी मान लेते हैं कि शरद पवार ने अनिल देशमुख या नवाब मलिक केस को लेकर बात नहीं की होगी. ये भी मान लेते हैं कि शरद पवार ने अपने भतीजे अजीत पवार से जुड़े मामले को लेकर भी कोई बात की होगी - और ये तो पक्का मान सकते हैं कि शरद पवार ने अपने खिलाफ ED वाले केस का तो जिक्र भी नहीं आने दिया होगा. वो केस तो अपने राजनीतिक कौशल से पहले ही आधा निपटा चुके हैं.

फिर भी कुछ सवाल ऐसे छूट रहे हैं जिनके जवाब आने चाहिये, ताकि भविष्य के राजनीतिक समीकरणों को समझ पाने में थोड़ी आसानी हो.

1. क्या शरद पवार, कुछ खास राजनीतिक वजहों से बीजेपी नेतृत्व के करीब जा रहे हैं? जैसे नीतीश कुमार को कुछ वक्त गुजारने के बाद लगने लगा कि वो लालू यादव के साथ ज्यादा नहीं चल पाएंगे. या लालू यादव के साथ मौजूदा राजनीतिक समीकरणों में ज्यादा लंबी दूरी तय नहीं की जा सकती?

2. क्या शरद पवार की राजनीति में बीजेपी नेतृत्व को ऐसी कोई संभावना नजर आ रही है, जिसका नजदीकी भविष्य में फायदा उठाया जा सकता है? जैसे देवेंद्र फडणवीस ने कुछ घंटों के लिए अजीत पवार को तोड़ कर अपने पक्ष में कर लिया था, क्या बीजेपी नेतृत्व शरद पवार को भी किसी तरह उपकृत करने के बहाने अपने साथ जोड़ सकता है. जैसे देवेंद्र फडणवीस ने अजीत पवार को डिप्टी सीएम की कुर्सी दे डाली थी, पवार को भी तो बदले में उपराष्ट्रपति पद मिल ही सकता है. है कि नहीं?

3. क्या शरद पवार बीजेपी को नीतीश कुमार के मुकाबले ज्यादा चीजें मुहैया करा सकते हैं? देखा जाये तो महाराष्ट्र और बिहार के मौजूदा राजनीतिक समीकरण थोड़े अलग है, ऐसे में शरद पवार का ऑफर नीतीश कुमार के मुकाबले ज्यादा तो हो ही सकता है. ये तो किसी भी डील में निर्णायक फैक्टर होता है कि झुकाव तो फायदे की तरफ ही होता है - ये तो राजनीति का ही मामला है. राजनीति में तो हमेशा ही फायदे के हिसाब से सौदे पक्के होते हैं, भले ही वो फायदा तत्काल न होकर बहुत बाद में मिलने की संभावना हो.

नीतीश को नजरअंदाज भी किया जा सकता है, पवार को नहीं

नीतीश कुमार और शरद पवार में एक फर्क तो यही है कि जेडीयू नेता अभी तक राज्य सभा नहीं जा सके हैं, जबकि शरद पवार फिलहाल राज्य सभा के ही सांसद हैं. नीतीश कुमार अभी बिहार के मुख्यमंत्री हैं, शरद पवार भी महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री नीतीश कुमार और शरद पवार दोनों ही अलग अलग समय पर रह चुके हैं.

महत्वपूर्ण बात ये है कि शरद पवार और नीतीश कुमार की राजनीति में शेष क्या है? असल में शरद पवार और नीतीश कुमार के शेष से ही बीजेपी या किसी के लिए भी हासिल तय होगा. ध्यान से देखने पर मालूम होता है कि शरद पवार के पास बीजेपी को देने के लिए नीतीश कुमार की तुलना ज्यादा चीजें हैं.

सिर्फ मुख्यमंत्री चाहिये या पूरी सरकार: देखा जाये तो बीजेपी को बिहार में सिर्फ मुख्यमंत्री की कुर्सी की तलब हो रही है, लेकिन महाराष्ट्र में तो सत्ता में वापसी की कसक बनी हुई है. मुमकिन है परिस्थितियां ऐसी हो जायें कि बीजेपी को फिर से पुराना प्यार ही वापस मिल जाये और शिवसेना गठबंधन तोड़ कर एक बार फिर बीजेपी से पहले की तरह हाथ मिलाने का फैसला करे - लेकिन ये तस्वीर अभी साफ नहीं लगती.

बिहार में बीजेपी धीरे धीरे ऐसी स्थिति में पहुंच चुकी है कि नीतीश कुमार को हटाकर मुख्यमंत्री पद से हटाकर अपना आदमी कुर्सी पर बिठा सके, हालांकि, ये सब इतना आसान भी नहीं है. महाराष्ट्र में बीजेपी को ज्यादा फायदा हो सकता है. अगर शरद पवार पाला बदलने को तैयार हो जायें तो बीजेपी अपने हिसाब से सरकार ही बना सकती है.

लेकिन ये तभी तक है जब तक नीतीश कुमार को बीजेपी के साथ सुरक्षित और बेहतर भविष्य नजर आता है. जैसे ही नीतीश कुमार को समझ में आया कि मुख्यमंत्री पद तो जाएगा ही, बीजेपी आगे भी कुछ नहीं देने वाली है - नीतीश कुमार को पाला बदलते देर नहीं लगेगी.

स्वाभाविक भी है, अगर अपने पास मुख्यमंत्री पद नहीं रहेगा तो बीजेपी की जगह वो आरजेडी के साथ समझौता कर लेना ठीक समझेंगे - अगर तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री बन जाते हैं, वो भी तो बकौल नीतीश कुमार 'भाई जैसे दोस्त' के बेटे ही हैं.

नीतीश को मैसेज देने में पवार-टूल का इस्तेमाल संभव है: बीजेपी नेतृत्व भी नीतीश कुमार की तमाम हरकतों से पहले से ही वाकिफ है - और बिहार बीजेपी के नेताओं के जरिये खंडन भी किया जाने लगा है कि बीजेपी का नीतीश कुमार को उपराष्ट्रपति बनाने का कोई इरादा नहीं है.

असल बात तो सिर्फ नीतीश कुमार और मोदी-शाह ही जानते होंगे जो दोनों पक्षों की रणनीतियों का हिस्सा होगा. हो सकता है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का मन भांप कर नीतीश कुमार ने राज्य सभा सांसद होने में दिलचस्पी शेयर की हो - ये भी हो सकता है कि ये सिर्फ नीतीश कुमार की ही अपनी कोई चाल हो जिस पर जारी बहस में वो बीजेपी नेतृत्व के लिए कोई मैसज महसूस कर रहे हों.

अगर ये सब सिर्फ नीतीश कुमार की राजनीतिक चाल का ही हिस्सा है तो ये समझने में मुश्किल नहीं होनी चाहिये कि जेडीयू नेता की जगह शरद पवार को उपराष्ट्रपति बनाने का फैसला बीजेपी नेतृत्व नीतीश कुमार को एक मजबूत मैसेज देने के लिए भी कर सकता है. राजनीति भी तो ऐसी ही होती है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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