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समाज 'वि' वादी दंगल के बाद किसकी होगी साइकिल...

    • आशुतोष मिश्रा
    • Updated: 03 जनवरी, 2017 02:58 PM
  • 03 जनवरी, 2017 02:58 PM
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ढाई दशक तक मुलायम ने साइकिल की सवारी की, शहंशाह बने, लेकिन उन्हें जरा भी अंदाजा नहीं होगा कि 'भाई मोह' उन्हें बेटे से ऐसे दूर ले जाएगा. वो पिता भी क्या जो बेटे से हार जाए. शायद इसी जुमले को मुलायम अब सही साबित करने में लगे हैं.

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में महज कुछ दिन शेष हैं. और ऐसे में चुनाव के ठीक पहले समाजवादी यादव परिवार और पाटी में मची महाभारत ने चुनावों को राजनीतिक तौर पर दिलचस्प बना दिया है. बसपा का हाथी अपनी विजय़ के लिए चल पड़ा है तो वहीं बीजेपी भी यूपी में अपना लंबा बनवास खत्म करके कमल खिलाने की तैयारी में है, लेकिन नजर समाजवादी साइकिल पर है जो चुनाव के ऐन वक्त पर ही पंक्चर हो गई है.

ढाई दशक तक मुलायम ने साइकिल की सवारी की. इसी समाजवादी साइकिल से संकरे कंकड़ और पथरीले राजनीतिक गलियारों से होते हुए राजनीति में एक मुकाम हासिल किया. जिसे चाहा मुलायम ने उसे साइकिल पर बिठाया, जिसे चाहा उसे उतार दिया. कौन जानता था कि जिस मुलायम का सिक्का यूपी में चलता था औऱ जिस बादशाह की सल्तनत को कोई हिला नहीं सकता था उस शहंशाह को उसी के घर के टीपू ने सत्ता से दूर मार्गदर्शक मंडल में भेजकर खुद सुल्तान बन बैठा. लोग कहते हैं कि ये घर की ही लड़ाई थी जो समाजवाद के नाम पर सडकों पर उतर आई. आलम ये है कि बाप औऱ बेटा दुश्मन बन बैठे हैं. सालों तक समाजवाद का नारा लगाने वाले मुलायम को अंदाजा भी नहीं हुआ कब अखिलेश ने उसी समाजवादी साइकिल की हैंडिल अपने हाथों में थाम ली. एक कुशल प्रशासक और निडर नेता की छवि बनाने में अखिलेश को ज्यादा समय नहीं लगा. दामन पर पिछले 5 साल राज करने के बाद भी कोई दाग नहीं लगा. जाहिर है ये एक बडी वजह थी जिससे समाजवादी कुनबा और यूपी का बडा तबका अखिलेश की और उम्मीदभरी नजरों से देखने लगा.

 समाजवादी दंगल अब एक खतरनाक मोड़ ले चुका है

चुनाव नजदीक आते ही मुलायम पर भाई का प्यार हावी होने लगा. शिवपाल यादव और अमर सिंह से मुलायम की नजदीकी...

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में महज कुछ दिन शेष हैं. और ऐसे में चुनाव के ठीक पहले समाजवादी यादव परिवार और पाटी में मची महाभारत ने चुनावों को राजनीतिक तौर पर दिलचस्प बना दिया है. बसपा का हाथी अपनी विजय़ के लिए चल पड़ा है तो वहीं बीजेपी भी यूपी में अपना लंबा बनवास खत्म करके कमल खिलाने की तैयारी में है, लेकिन नजर समाजवादी साइकिल पर है जो चुनाव के ऐन वक्त पर ही पंक्चर हो गई है.

ढाई दशक तक मुलायम ने साइकिल की सवारी की. इसी समाजवादी साइकिल से संकरे कंकड़ और पथरीले राजनीतिक गलियारों से होते हुए राजनीति में एक मुकाम हासिल किया. जिसे चाहा मुलायम ने उसे साइकिल पर बिठाया, जिसे चाहा उसे उतार दिया. कौन जानता था कि जिस मुलायम का सिक्का यूपी में चलता था औऱ जिस बादशाह की सल्तनत को कोई हिला नहीं सकता था उस शहंशाह को उसी के घर के टीपू ने सत्ता से दूर मार्गदर्शक मंडल में भेजकर खुद सुल्तान बन बैठा. लोग कहते हैं कि ये घर की ही लड़ाई थी जो समाजवाद के नाम पर सडकों पर उतर आई. आलम ये है कि बाप औऱ बेटा दुश्मन बन बैठे हैं. सालों तक समाजवाद का नारा लगाने वाले मुलायम को अंदाजा भी नहीं हुआ कब अखिलेश ने उसी समाजवादी साइकिल की हैंडिल अपने हाथों में थाम ली. एक कुशल प्रशासक और निडर नेता की छवि बनाने में अखिलेश को ज्यादा समय नहीं लगा. दामन पर पिछले 5 साल राज करने के बाद भी कोई दाग नहीं लगा. जाहिर है ये एक बडी वजह थी जिससे समाजवादी कुनबा और यूपी का बडा तबका अखिलेश की और उम्मीदभरी नजरों से देखने लगा.

 समाजवादी दंगल अब एक खतरनाक मोड़ ले चुका है

चुनाव नजदीक आते ही मुलायम पर भाई का प्यार हावी होने लगा. शिवपाल यादव और अमर सिंह से मुलायम की नजदीकी अखिलेश को खटकती थी. लेकिन दरार तब पडी जब यूपी के माफिया और दागी नेता अतीक अहमद को मुलायम ने समाजवादी साइकिल पर बिठा लिया. अखिलेश को पता था कि चुनावी मौसम बदल चुका है. दाग लेकर जनता के बीच जाना मुश्किल था. और वहीं से अखिलेश ने साइकिल की हैंडल अपने हाथों में थामने की ठान ली थी. और आज वो दिन है जब खुले आम अखिलेश से पार्टी का अधिवेशन बुलाकर खुद को सपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित कर दिया और अपने पिता समाजवादी पार्टी के मार्गदर्शक मंडल में बिठा दिया. लेकिन शिवपाल यादव और अमर सिंह के प्रति मुलायम का प्रेम देखिए, मुलायम अपने ही बेटे के खिलाफ चुनाव आयोग के दरवाजे पर खड़े हो गए हैं. ना तो शिवपाल और ना ही अमर सिंह यूपी की राजनीति में सपा के लिए विनिंग फैक्टर बन सकते हैं. इतना ही नहीं मुलायम को भी पता है कि यूपी में साइकिल अब तभी चलेगी जब साइकिल का हैंडिल भी अखिलेश संभालें और पैडल भी अखिलेश ही मारें और मुलायम ना भी मानें तो क्या, पार्टी के भीतर और पार्टी के बाहर जनसमर्थन जुटाकर अखिलेश ने शक्ति परीक्षण तो कर ही दिया है.

ये भी पढ़ें- सियासी ड्रामे से विफलताओं पर परदेदारी

वो पिता भी क्या जो बेटे से हार जाए. मुलायम फिलहाल इसी जुमले को सार्थक कर रहे हैं लेकिन मसला अब कानूनी है और चुनाव आयोग इसे संविधान की कसौटी पर परखेगा. पूरी प्रकिया में वक्त भी लग सकता है और ना तो अखिलेश के पास ज्यादा वक्त है और ना ही मुलायम के. जानकार मानते हैं कि सुनवाई के दौरान समाजवादी साइकिल को चुनाव आयोग अपनी पार्किग में रख लेगा और दो टुकडों में बटें समाजवादियों को अलग-अलग फासला तय करना पड़ेगा. देखना ये है कि कौन किसको शह देगा और कौन किसको मात.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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