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2017 की चुनावी मंडी के लिए तैयार हैं दंगों के सौदागर!

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 28 जून, 2016 03:37 PM
  • 28 जून, 2016 03:37 PM
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चुनावी बिसात बिछ जाने के बाद फर्क करना मुश्किल हो रहा है कि आखिर कैराना और मथुरा में अंतर क्या है? क्या दोनों में सिर्फ एक पतली लाइन ही है?

2017 में छह महीने बाकी हैं - चुनाव की तारीख अगर दिसंबर में ही आ जाए तो वक्त उससे भी कम बचा है. चुनावी तैयारियां परवान पर हैं, भले ही ऊपर से तस्वीर पूरी तरह साफ नजर नहीं आ रही हो.

कभी इस धुंधली परत के भीतर झांकने की कोशिश कीजिए - जो नजर आएगा उससे आप अंदर तक सिहर उठेंगे.

2017 की मंडी में दंगों के सौदागर दुकानें सजा कर बैठ चुके हैं - बस, मोटा माल पकड़ाने की जरूरत है, डंके की चोट पर दंगा कराने में उन्हें कोई गुरेज नहीं!

हम्माम में कोई किसी से कम नहीं

जरूरी नहीं कि सड़क पर जो खूनी खेल दिखते हैं वे तात्कालिक रिएक्शन हों. जरूरी नहीं कि दादरी या मुजफ्फरनगर जैसे दाग-धब्बे किसी मामूली घटना की प्रतिक्रिया में पैदा हुए हालात का नतीजा हों. जरूरी नहीं कि दंगे धार्मिक उन्मादों की उपज हों - वे प्रायोजित भी हो सकते हैं. बस, प्रायोजक का नाम गुमनाम और पता लापता हो. शर्त सिर्फ इतनी है - दंगे के सौदागरों को मुहंमागा मेहनताना मिल जाए.

इसे भी पढ़ें: संगीत की यात्रा में बीजेपी का विवादी सुर...

काफी पहले एक स्टिंग ऑपरेशन में एक नेता को कहते सुना गया था - 'पैसा खुदा नहीं, लेकिन खुदा से कम भी नहीं...'

पैसा दो, दंगा लो...

आज तक के ताजा स्टिंग ऑपरेशन में एक बार फिर ये बात साफ हुई कि पैसा मिले तो, न तो पार्टीलाइन आड़े आती है - और न ही कोई सिद्धांत, आइडियोलॉजी तो गई तेल...

2017 में छह महीने बाकी हैं - चुनाव की तारीख अगर दिसंबर में ही आ जाए तो वक्त उससे भी कम बचा है. चुनावी तैयारियां परवान पर हैं, भले ही ऊपर से तस्वीर पूरी तरह साफ नजर नहीं आ रही हो.

कभी इस धुंधली परत के भीतर झांकने की कोशिश कीजिए - जो नजर आएगा उससे आप अंदर तक सिहर उठेंगे.

2017 की मंडी में दंगों के सौदागर दुकानें सजा कर बैठ चुके हैं - बस, मोटा माल पकड़ाने की जरूरत है, डंके की चोट पर दंगा कराने में उन्हें कोई गुरेज नहीं!

हम्माम में कोई किसी से कम नहीं

जरूरी नहीं कि सड़क पर जो खूनी खेल दिखते हैं वे तात्कालिक रिएक्शन हों. जरूरी नहीं कि दादरी या मुजफ्फरनगर जैसे दाग-धब्बे किसी मामूली घटना की प्रतिक्रिया में पैदा हुए हालात का नतीजा हों. जरूरी नहीं कि दंगे धार्मिक उन्मादों की उपज हों - वे प्रायोजित भी हो सकते हैं. बस, प्रायोजक का नाम गुमनाम और पता लापता हो. शर्त सिर्फ इतनी है - दंगे के सौदागरों को मुहंमागा मेहनताना मिल जाए.

इसे भी पढ़ें: संगीत की यात्रा में बीजेपी का विवादी सुर...

काफी पहले एक स्टिंग ऑपरेशन में एक नेता को कहते सुना गया था - 'पैसा खुदा नहीं, लेकिन खुदा से कम भी नहीं...'

पैसा दो, दंगा लो...

आज तक के ताजा स्टिंग ऑपरेशन में एक बार फिर ये बात साफ हुई कि पैसा मिले तो, न तो पार्टीलाइन आड़े आती है - और न ही कोई सिद्धांत, आइडियोलॉजी तो गई तेल लेने.

जब जी चाहे जहां चाहो - पैसे दो और दंगे करा लो.

दंगों के सौदागर

आज तक के अंडरकवर रिपोर्टर ने 10 दिन के भीतर कई स्टिंग ऑपरेशन किये - जिसमें रिपोर्टर ने खुद को बतौर फिल्म मेकर प्रोजेक्ट किया और अपनी काल्पनिक डॉक्युमेंट्री की पब्लिसिटी खातिर स्क्रीनिंग के वक्त हमले के लिए सौदे का प्रस्ताव रखा. ताज्जुब की बात ये रही कि बगैर किसी हिचक के दंगे के इन सौदागरों ने न सिर्फ पेशकश मंजूर कर ली, बल्कि बाकायदे बार्गेन भी किया. इन सबकी ओर से आखिरी बात एक ही रही - काम हो जाएगा, जैसे भी चाहो.

सबसे पहले अंडर कवर रिपोर्टर ने एक बीजेपी विधायक को ऑफर दिया. अंडरकवर रिपोर्टर ने मुजफ्फरनगर से बीजेपी एमएलए कपिल अग्रवाल से उनके के घर नॉर्थ सिविल लाइन पर दो बार मुलाकात की.

विधायक को बताया गया कि जिस डॉक्युमेंट्री की स्क्रीनिंग होनी है उसमें हिेंदू धर्म के बारे में कुछ विवादित बातें हैं. विधायक से कहा गया कि स्क्रीनिंग में उन्हें हंगामा और तोड़फोड़ करवाने हैं.

बातचीत में विधायक कपिल अग्रवाल रिपोर्टर से पैसों के लेनदेन की बात की. अग्रवाल थोड़ी ही देर में रिपोर्टर के सामने प्रायोजित दंगा करने के लिए तैयार हो गए - और लगे हाथ अपने हिसाब से वाजिब मेहनताना भी मांग लिया.

इसे भी पढ़ें: कैराना ही नहीं, दादरी भी कानून-व्यवस्था का ही मामला था जहांपनाह!

अग्रवाल ने इसी साल 13 फरवरी को हुए उपचुनाव में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को सात हजार से ज्यादा वोटों से हराकर जीत हासिल की थी. समाजवादी पार्टी के विधायक के निधन से खाली हुई इस सीट के लिए बीजेपी ने पूरी ताकत झोंक दी थी - और जम कर हिंदुत्व पर फोकस मुहिम भी चलाई थी.

अग्रवाल की ही तरह अंडर कवर रिपोर्टर ने हिंदू स्वाभिमान सेना के परमिंदर आर्या से भी बात की - और हरिद्वार में समाजवादी पार्टी के नेता हाफिज मोहम्मद इरफान से भी मुलाकात की.

ऑपरेशन के दौरान नेताओं द्वारा अपना हिस्सा पूछे जाने पर रिपोर्टर ने पहले मिनिमम एक लाख रुपये की पेशकश की - सभी ने दंगों का इवेंट मैनेजमेंट खर्चीला तो बताया लेकिन जल्द ही 50-60 लड़कों को बवाल करने के लिए भेजने को तैयार हो गये.

तीनों में अगर किसी ने बढ़िया बार्गेन किया तो वो थे - हाफिज मोहम्मद इरफान, जिन्होंने पूरे इवेंट के लिए पांच लाख रुपये की फीस मांगी. इस कॉम्बो पैकेज में हंगामा, तोड़-फोड़ और कुछ लोगों के कपड़े फाड़ना और हल्की चोट पहुंचाने तक की बातें हुईं. इवेंट से पहले और बाद में मीडिया में बयान और इंटरव्यू देकर पूरी मार्केटिंग की गारंटी भी मिली. बड़ी बात रही पेमेंट के बाद आश्वासन - फिक्र नहीं करने का, काम हो जाएगा.

प्रायोजित कितने?

अब चुनाव से पहले अगर किसी फ्रिज में कुछ मिलता हो, सैंपल की रिपोर्ट आने पर बयानबाजी होती हो, कोई अवॉर्ड वापस कर रहा हो, कोई मीडिया के सामने जहर उगल रहा हो तो कैसे फर्क किया जाए कि कौन प्रायोजित है और कौन नहीं? किस दंगे की बैक डोर डील हुई है किसकी नहीं?

कैसे पता चलेगा कि कैराना की पहली लिस्ट का मकसद क्या रहा और दूसरी का क्या? कौन सी समस्या लॉ एंड ऑर्डर की रही और कौन कम्युनल टेंशन?

चुनावी बिसात बिछ जाने के बाद फर्क करना मुश्किल हो रहा है कि आखिर कैराना और मथुरा में अंतर क्या है? क्या दोनों में सिर्फ एक पतली लाइन ही है?

क्या मुजफ्फरनगर, कैराना और मथुरा महज कुछ नाम हैं, जो कभी गुजरता के जख्म कुरेद देते हैं कभी भागलपुर के तो कभी असम के? लेकिन सबसे बड़ा सवाल इनमें से कितने प्रायोजित रहे?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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