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धारा 370 का हटना - आधी हकीकत, आधा फसाना

    • आशीष कौल
    • Updated: 09 अगस्त, 2019 08:44 PM
  • 09 अगस्त, 2019 08:29 PM
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प्रशासन पर आप इस बात से आंख नहीं मूंद सकते कि उनकी उपस्थिति भी जनसांख्यिकी को बदलती है. वो दिन दूर नहीं जब जम्मू के मूल निवासी और मुस्लिम समुदाय एक साथ धारा 370 को हटाने का विरोध करेंगे.

कोई शक नहीं कि मोदी सरकार ने 'एक राष्ट्र, एक संविधान' के मिशन को कामयाब कर दिया है. संविधान में जोड़ी गयी कई ऐसी धाराएं थी जिनका उद्देश्य आज़ादी के बाद नए और बुलंद भारत को खड़ा करना था. उन धाराओं में शुरुआत से ही विवादित रही 370 भी है. ये बीते कल की हकीकत है. आज, इन दिनों धारा 370 का समाप्त होना, एक उत्सव के रूप में मनाया जाया रहा है.

धारा 370, जम्मू और कश्मीर के लिए एक अजीबोगरीब विडंबना है जिसने यहां के मुस्लिम समाज को एक अक्रांता का रूप दिया और दूसरी ओर जम्मू, पुंछ, राजौरी, किश्वतवाड़, लद्दाख जैसे क्षेत्र के विकास का रास्ता बंद कर दिया. हालांकि अब ये नहीं हो पाएगा. पूरे जम्म-कश्मीर, लद्दाख प्रांतों को केंद्र की सुविधाओं और योजनाओं का फायदा पहुंचेगा. रोजगार बढ़ेगा, सड़कें बनेंगी और उन सड़कों पर विकास की गाड़ी फर्राटे भरती हुई दौड़ेंगी. नए दफ्तर खुलेंगे, निवेश बढ़ेगा. दावा है कि अलग हुए तीनों प्रांतों का नव निर्माण होगा. क्या वाकई में होगा? क्या कश्मीर की मूल समस्या का निदान होगा? क्या झेलम फिर वितस्ता कहलाएगी? क्या कश्मीरी पंडित फिर से अपने गली-मोहल्लों में शांति से रह पाएंगे? क्या हर वो विस्थापित जो इस्लामिक आतंक के साये में 700 साल रहा क्या वो तिरंगा अपने हाथ में लिए शान से कश्मीर में घूम पाएगा?

नज़र दौड़ाइए, अखबार खंगालिए भारत में कई ऐसे राज्य हैं जिनमें बड़ी-बड़ी समस्याएं हैं फिर 'कश्मीर' ही इतने सालों से सर दर्द क्यों बना हुआ है? मेरा मानना है कि वो चाहे छत्तीसगढ़ हो, आंध्रा प्रदेश हो पूर्वी और उत्तर पूर्वी राज्य हों, वहां नक्सलवाद और जल जंगल ज़मीन की लड़ाई है. वहां हिंसा का कारण संसाधन, धन और सामजिक ताना बाना है. जबकि इन सबसे अलग कश्मीर में धार्मिक आतंकवाद है जिसका निदान आज तक की कोई सरकार नहीं निकाल सकी है. मुझे लगता है धारा 370 एक व्याकुलता मात्र है और दी जा रही दलीलें एक बहलावा. वर्ना एक राज्य के तौर पर जम्मू कश्मीर के विकास और उसकी अधोसंरचना को लेकर जो चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं, उन्हें आंकड़े कड़ी चुनौती दे रहे...

कोई शक नहीं कि मोदी सरकार ने 'एक राष्ट्र, एक संविधान' के मिशन को कामयाब कर दिया है. संविधान में जोड़ी गयी कई ऐसी धाराएं थी जिनका उद्देश्य आज़ादी के बाद नए और बुलंद भारत को खड़ा करना था. उन धाराओं में शुरुआत से ही विवादित रही 370 भी है. ये बीते कल की हकीकत है. आज, इन दिनों धारा 370 का समाप्त होना, एक उत्सव के रूप में मनाया जाया रहा है.

धारा 370, जम्मू और कश्मीर के लिए एक अजीबोगरीब विडंबना है जिसने यहां के मुस्लिम समाज को एक अक्रांता का रूप दिया और दूसरी ओर जम्मू, पुंछ, राजौरी, किश्वतवाड़, लद्दाख जैसे क्षेत्र के विकास का रास्ता बंद कर दिया. हालांकि अब ये नहीं हो पाएगा. पूरे जम्म-कश्मीर, लद्दाख प्रांतों को केंद्र की सुविधाओं और योजनाओं का फायदा पहुंचेगा. रोजगार बढ़ेगा, सड़कें बनेंगी और उन सड़कों पर विकास की गाड़ी फर्राटे भरती हुई दौड़ेंगी. नए दफ्तर खुलेंगे, निवेश बढ़ेगा. दावा है कि अलग हुए तीनों प्रांतों का नव निर्माण होगा. क्या वाकई में होगा? क्या कश्मीर की मूल समस्या का निदान होगा? क्या झेलम फिर वितस्ता कहलाएगी? क्या कश्मीरी पंडित फिर से अपने गली-मोहल्लों में शांति से रह पाएंगे? क्या हर वो विस्थापित जो इस्लामिक आतंक के साये में 700 साल रहा क्या वो तिरंगा अपने हाथ में लिए शान से कश्मीर में घूम पाएगा?

नज़र दौड़ाइए, अखबार खंगालिए भारत में कई ऐसे राज्य हैं जिनमें बड़ी-बड़ी समस्याएं हैं फिर 'कश्मीर' ही इतने सालों से सर दर्द क्यों बना हुआ है? मेरा मानना है कि वो चाहे छत्तीसगढ़ हो, आंध्रा प्रदेश हो पूर्वी और उत्तर पूर्वी राज्य हों, वहां नक्सलवाद और जल जंगल ज़मीन की लड़ाई है. वहां हिंसा का कारण संसाधन, धन और सामजिक ताना बाना है. जबकि इन सबसे अलग कश्मीर में धार्मिक आतंकवाद है जिसका निदान आज तक की कोई सरकार नहीं निकाल सकी है. मुझे लगता है धारा 370 एक व्याकुलता मात्र है और दी जा रही दलीलें एक बहलावा. वर्ना एक राज्य के तौर पर जम्मू कश्मीर के विकास और उसकी अधोसंरचना को लेकर जो चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं, उन्हें आंकड़े कड़ी चुनौती दे रहे हैं.

 क्या कश्मीर की मूल समस्या का निदान होगा?

2012 से 2016 के आंकड़ों के अनुसार जम्मू कश्मीर में अनुमानित आयु 73.5 है, जबकि सबसे ज़्यादा केरल में 75.1 और न्यूनतम उत्तर प्रदेश में 64.8 है. पूरे देश में जम्मू कश्मीर तीसरे नंबर पर है. 2018 में हर 3060 मरीज़ों पर जम्मू में एक डॉक्टर था, जो की देश के 14-15 राज्यों से कहीं बेहतर स्थिति है. क्या गर्वनर और राज्य के प्रशासक जगमोहन को जम्मू क्षेत्र के विकास के लिए धारा 370 आड़े आई थी? आज वही हिंदू प्रधान जम्मू जिसमें भाजपा का राज है, एक कूड़े का ढेर और भ्रष्टाचार का केंद्र बन कर रह गया है. टूटी-फूटी सड़कें, नदारद बिजली, खस्ता हाल स्कूल और कॉलेज, नदारद स्वास्थ्य सुविधाएं, बदहाल, ट्रैफिक व्यवस्था और नपुंसक नगर पालिका- ये सब क्या धारा 370 की देन है या फिर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी? और तो और अगर सबसे ज़्यादा सिक्योरिटी में रखे गए जम्मू एयरपोर्ट के पास, प्रशासन और सेना की नाक के नीचे हज़ारों की संख्या में रोहिंग्या आकर रहने लगते हैं और कोई कुछ नहीं कर पाता है तो इसका ज़िम्मेदार कौन है?

ये एक अजीब भ्रम और बदहवासी का ख्याल है कि धारा 370 का हटना कश्मीरी ब्राम्हणों को उनकी छूटी जमीन और छत दिला देगा और घाटी से आतंकवाद को खत्म करेगा. पूरे जम्मू-कश्मीर और लद्दाख प्रांत की धार्मिक जनसांख्यिकीय बदल चुकी है. आज जम्मू क्षेत्र, पुंछ, राजौरी, लद्दाख करीब-करीब सारा क्षेत्र 50 प्रतिशत मुस्लिम आबादी में तब्दील हो चुका है. आप जिस तरफ देखेंगे, आपको उस तरफ 50 प्रतिशत के करीब मुस्लिम समुदाय मिलेगा. तवी नदी के पार की जमीन पर बसे गुजर और बकरवाल समुदाय की उपस्थिति अधिकृत तौर पर न सरकार स्वीकार करती है. प्रशासन पर आप इस बात से आंख नहीं मूंद सकते कि उनकी उपस्थिति भी जनसांख्यिकी को बदलती है. वो दिन दूर नहीं जब जम्मू के मूल निवासी और मुस्लिम समुदाय एक साथ धारा 370 को हटाने का विरोध करेंगे. और वो कश्मीरी हिन्दू जो त्वरित आवेश में अभी 370 के हटने का उत्सव मना रहा है, उसकी अस्मिता इसी मिटटी में मिलती दिखेगी.

कश्मीर में धार्मिक आतंकवाद है जिसका निदान आज तक की कोई सरकार नहीं निकाल सकी है

जो लोग कश्मीर में ज़मीन खरीदने का सपना देख रहे हैं या शगूफा छोड़ रहे हैं, वो ये जान लें कि वहां एक इंच ज़मीन लेना भी मुश्किल है. और अगर ज़मीन मिल भी गयी तो शान्ति से रह पाना लगभग असंभव. एक समाज के तौर पर आज के कश्मीर में धर्म का जहर घुला हुआ है, वो एकजुट हैं और आपको एक तिनके भर की जगह भी इतनी आसानी से नहीं देने वाले. अगर शांति 370 के दाम पर मिली तो क्यों एकजुट होकर सरकार सारे हिंदुओं को सीधे कश्मीर में अपना एक कश्मीर दे देती? मुझे नहीं लगता कि जमीन की खरीद-फरोख्त और आरक्षण को हटाया जाएगा, क्योंकि उससे कश्मीर का भला होगा कि नहीं लेकिन एक बात तो तय है कि जम्मू क्षेत्र का सामजिक रूप से नुकसान जरूर होगा. ऐसे में मुझे नहीं लगता कि सरकार किसी गैर जम्मू-कश्मीरी को यहां पर जमीन खरीदने देगी और अगर देगी भी तो एक सीमा के अंतर्गत ही देगी. इसके अलावा शायद राज्य के लोगों को कुछ अन्य राज्यों की तरह वरीयता भी मिल सकती है.

कश्मीर में आतंक का इलाज सिर्फ एक कश्मीरी कर सकता है, कोई सरकार नहीं. कश्मीरी मुसलमानों को भी अब ये बात समझ लेनी चाहिए कि उसका वजूद कश्मीरी पंडित के बगैर अधूरा है. धारा 370 या बिना 370 के कश्मीरी हिंदू की वापसी कश्मीरी मुसलमानों के दिल से ही निकलती है. कश्मीरियत को ज़िंदा रखना है तो घाटी में रह रहे मुसलमानों को समझना होगा कि 1989 में जिस धार्मिक आतंकवाद ने कश्मीरी पंडितों को उनकी अपनी ज़मीन से बेदखल किया, अगर उस समय आम मुसलमान कश्मीरी ने पंडितों के साथ खड़े होकर विरोध किया होता तो आज कश्मीर में आतंकवाद की लपटें जिंदा न होती.

गलती समझकर, गलती सुधारकर, माफी मांगकर अब वादी में अगर वो खुले दिल से अपने कश्मीरी पंडित भाई बहनों की वापसी का स्वागत कर पाएं तब असली शान्ति बहाल होगी. मेरी किताब 'रिफ्यूजी कैंप' के नायक अभिमन्यु की ही तरह मेरा भी ये अटूट विश्वास है कि किसी भी समाज में शान्ति उस समाज के लोग ही ला सकते हैं. सरकार और पुलिस इसमें कोई बड़ी भूमिका नहीं निभा सकते. धारा 370 के हटने से जुडी आशाएं और उत्सव में वास्तविकता कम, अतिश्योक्ति ज़्यादा है. आने वाले साल ही बताएंगे कि जम्मू, कश्मीर और लद्दाख को इसका कितना और क्या फायदा मिला. फिलहाल, इस एक धारा के हटने से न आतंकवाद हटेगा, न कश्मीरी पंडित वापस जाकर सुकून से रह सकने की गारंटी पायेगा. ये कश्मीरियों को खुद तय करना है कि उन्हें आतंकवाद चाहिए या कश्मीरी पंडितों के साथ सह अस्तित्व भरी कश्मीरियत और शान्ति.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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