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कीवर्ड तो 'आरक्षण' ही है पर वैद्य ने 'धर्म' की बात की है, 'जाति' की नहीं

    • आईचौक
    • Updated: 21 जनवरी, 2017 02:31 PM
  • 21 जनवरी, 2017 02:31 PM
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उनकी सफाई से साफ हो चुका है कि वैद्य के लिए आरक्षण महज एक कीवर्ड था - और उसे वो धर्म से जोड़ कर देख रहे थे, जाति से नहीं. बिहार चुनाव के दौरान मोहन भागवत के बयान में जाति का जिक्र था, धर्म का सीधे तौर पर नहीं.

आरक्षण पर बयान को लेकर विवाद हुआ तो मनमोहन वैद्य ने झट से सफाई भी दे दी. उनकी सफाई से साफ हो चुका है कि वैद्य के लिए आरक्षण महज एक कीवर्ड था - और उसे वो धर्म से जोड़ कर देख रहे थे, जाति से नहीं. बिहार चुनाव के दौरान मोहन भागवत के बयान में जाति का जिक्र था, धर्म का सीधे तौर पर नहीं.

कहा, फिर कहा...

जयपुर लिटफेस्ट में जब मनमोहन वैद्य से आरक्षण को लेकर सवाल हुआ तो उन्होंने कहा, “आरक्षण के नाम पर सैकड़ों साल तक लोगों को अलग करके रखा गया, जिसे खत्म करने की जिम्मेदारी हमारी है. इन्हें साथ लाने के लिए आरक्षण को खत्म करना होगा. आरक्षण देने से अलगाववाद को बढ़ावा मिलता है. आरक्षण के बजाय अवसर को बढ़ावा देना चाहिए.”

इसे भी पढ़ें : आइए, आरक्षण पर चर्चा तक न करें और मनमोहन वैद्य को सूली पर टांग दें!

वैद्य का ये बयान मीडिया में आते ही विपक्षी नेताओं की टिप्पणी आने लगी जिसमें लालू प्रसाद और अरविंद केजरीवाल की टिप्पणी तीखी रही. एक दिन बाद मायावती ने सख्त लहजे में कहा कि अगर संघ ने आरक्षण को खत्म करने की कोशिश की तो दलित समुदाय के लोग बीजेपी को दिन में तारे दिखा देंगे और वो राजनीति करना भूल जाएगी.

फिर वैद्य ने वक्त की नजाकत को समझा और नये सिरे से समझाया, "मैंने धर्म के आधार पर आरक्षण का विरोध किया था. मैंने कहा था जब तक समाज में भेदभाव है, तब तक आरक्षण रहेगा. धर्म के आधार पर आरक्षण से अलगाववाद बढ़ता है. संघ आरक्षण दलितों और पिछड़ों को मिलने वाले आरक्षण के पक्ष में है.”

आरक्षण पर बयान को लेकर विवाद हुआ तो मनमोहन वैद्य ने झट से सफाई भी दे दी. उनकी सफाई से साफ हो चुका है कि वैद्य के लिए आरक्षण महज एक कीवर्ड था - और उसे वो धर्म से जोड़ कर देख रहे थे, जाति से नहीं. बिहार चुनाव के दौरान मोहन भागवत के बयान में जाति का जिक्र था, धर्म का सीधे तौर पर नहीं.

कहा, फिर कहा...

जयपुर लिटफेस्ट में जब मनमोहन वैद्य से आरक्षण को लेकर सवाल हुआ तो उन्होंने कहा, “आरक्षण के नाम पर सैकड़ों साल तक लोगों को अलग करके रखा गया, जिसे खत्म करने की जिम्मेदारी हमारी है. इन्हें साथ लाने के लिए आरक्षण को खत्म करना होगा. आरक्षण देने से अलगाववाद को बढ़ावा मिलता है. आरक्षण के बजाय अवसर को बढ़ावा देना चाहिए.”

इसे भी पढ़ें : आइए, आरक्षण पर चर्चा तक न करें और मनमोहन वैद्य को सूली पर टांग दें!

वैद्य का ये बयान मीडिया में आते ही विपक्षी नेताओं की टिप्पणी आने लगी जिसमें लालू प्रसाद और अरविंद केजरीवाल की टिप्पणी तीखी रही. एक दिन बाद मायावती ने सख्त लहजे में कहा कि अगर संघ ने आरक्षण को खत्म करने की कोशिश की तो दलित समुदाय के लोग बीजेपी को दिन में तारे दिखा देंगे और वो राजनीति करना भूल जाएगी.

फिर वैद्य ने वक्त की नजाकत को समझा और नये सिरे से समझाया, "मैंने धर्म के आधार पर आरक्षण का विरोध किया था. मैंने कहा था जब तक समाज में भेदभाव है, तब तक आरक्षण रहेगा. धर्म के आधार पर आरक्षण से अलगाववाद बढ़ता है. संघ आरक्षण दलितों और पिछड़ों को मिलने वाले आरक्षण के पक्ष में है.”

बात को समझो...

वैद्य ने जातीय आरक्षण की बात को बड़ी ही साफगोई से धर्म की ओर मोड़ दिया. धर्म शायद ज्यादा सूट करता हो. 2014 में भी वैद्य के एक बयान पर खासा बवाल हुआ था जिसमें उन्होंने 'माइनॉरिटी' शब्द को निराशाजनक माना और कहा - 'भारत में कोई अल्पसंख्यक नहीं है, सभी हिंदू हैं.'

दो बयानों का असर

बिहार चुनाव के वक्त संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की बात कही थी - और माना गया कि बीजेपी की हार की वो भी एक बड़ी वजह रही. हालांकि, चुनाव कवर करने वाले कुछ वरिष्ठ पत्रकारों ने इससे असहमति जताई थी. टीवी चैनलों पर बहसों में हिस्सा लेते हुए कई पत्रकारों की राय थी कि दूर दराज के इलाकों में मतदाताओं को इन बातों से बिलकुल फर्क नहीं पड़ा होगा - क्योंकि उन्हें भागवत के बयान के बारे में कुछ खास मालूम था, ऐसा नहीं लगा.

वैद्य का बयान चुनावों के वक्त ही आया है. फिलहाल समझा जाता है कि सूबे के 40 फीसदी ओबीसी वोटों में से गैर यादव ओबीसी बीजेपी के पक्षधर हैं. बीजेपी लंबे वक्त से दलित वोटों को साधने में लगी हुई है क्योंकि यूपी में 21 और पंजाब में करीब 29 फीसदी दलित वोट हैं. इस हिसाब से देखें तो वैद्य का बयान बीजेपी के लिए काफी नुकसानदेह साबित हो सकता है, लेकिन वैद्य ने खुद ट्विस्ट कर उसे जाति से धर्म की ओर घुमा दिया है.

चुनावों में बीजेपी और संघ पर ध्रुवीकरण की कोशिश के आरोप अरसे से लगते रहे हैं. तो क्या वैद्य के इस यू टर्न एंड ट्विस्ट को भी ऐसे ही देखा जाना चाहिये.

धर्म का क्या ताल्लुक?

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में आरएसएस की धमाकेदार एंट्री का अंदाजा तो तभी हो गया था जब पहली बार संघ नेताओं को शुमार किये जाने की खबर सामने आई. माना जाता है कि जयपुर लिटफेस्ट में वामपंथी साहित्यकारों का दबदबा रहा, लेकिन इस बार वो लगभग खत्म हो गया. अपना विरोध जताने के लिए सलमान रुश्दी की किताब 'द सैटेनिक वर्सेज' को पढ़ने वाले हरी कुंजरू जैसे लेखक भी लिटफेस्ट की लिस्ट से नदारद दिखे हैं. देखा गया कि सूची में उन्हें भी जगह नहीं मिली जिन्होंने असहिष्णुता के नाम पर अवॉर्ड वापसी की थी. हालांकि, तब आयोजकों ने प्रायोजको के दबाव में ऐसा किये जाने की बात का साफ तौर पर खंडन किया था.

इसे भी पढ़ें : आरक्षण पर मनमोहन वैद्य के राजनैतिक मायने

लिटफेस्ट में जहां तक वैद्य के बयान की बात है तो वो एक सवाल के जवाब में आया. तालियों की गड़गड़ाहट के बीच बहस आरक्षण से धीरे धीरे धर्म पर शिफ्ट हो गयी. बात सेक्युलरिज्म की होने लगी. क्या ये सब अचानक हुआ? या सब सोची समझी रणनीति का हिस्सा रहा? सोचने और समझने की बात यही रही.

अपनी बात को मजबूत करने के लिए वैद्य ने डॉ. अंबेडकर का भी हवाला दिया और मुस्लिमों की बात पर समझाया कि मुस्लिमों की हालत सबसे ज्यादा खराब यूपी, बिहार और बंगाल में है क्योंकि वहां उन्हें वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल किया गया. वैद्य के अनुसार मुस्लिमों की स्थिति सबसे अच्छी गुजरात में है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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