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बीजेपी बनाम महागठबंधन: यूपी-बिहार ने खारिज कर दी जाति की सियासत

    • आर.के.सिन्हा
    • Updated: 22 मई, 2019 01:38 PM
  • 22 मई, 2019 01:38 PM
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जिस हिसाब से एग्जिट पोल (Exit poll results) आए हैं यदि उन्हें यूपी और बिहार के सन्दर्भ में रखकर देखें तो मिलता है कि अब देश जाति आधारित राजनीति से त्रस्त हो गया है और कहीं न कहें इससे निजात चाहता है.

लोकसभा चुनाव के आगामी 23 मई को आने वाले नतीजों से पहले उत्तर प्रदेश (यूपी) और बिहार को लेकर जिस तरह की एक नहीं आधा दर्जन एक्टिज पोल (Exit poll results) ने जो तस्वीर रखी है, उसे गौर से देखने और गंभीरता पूर्वक समझने की आवश्यकता है. हालांकि यह अभी अनुमान है, पर गहरे संकेत अवश्य हैं. लगभग सभी खबरिया चैनलों ने जिस तरह के नतीजे देश को बताए हैं, उससे स्पष्ट है कि देश जाति पर आधारित राजनीति से त्रस्त हो चुका है.

देश का मतदाता अब अपनी जाति के उम्मीदवार को ही वोट देने के लिए उत्साहित नहीं होता. उसे आप जाति के जाल में अब और ज्यादा दिनों तक नहीं जकड़ कर नहीं रख सकते. उसे चौतरफा विकास की दरकरार है, उसे नौकरियों के अवसर चाहिए, स्वावलंबन चाहिए, नौकरी पाने की बजे नौकरी देने वाले उधमी बनने की स्वहिश है. उसे नए स्कूल-कॉलेज, अस्पताल चाहिए. उसे आप जाति विशेष का होने का झुनझुना थमा नहीं सकते.

इस संदर्भ में पहले जरा बात कर लें, देश के सबसे बड़े राज्य यूपी की. यहां से लोकसभा की 80 सीटें हैं. जाहिर है, केन्द्र में आगामी सरकार, जिस किसी भी पार्टी या गठबंधन की बनेगी, उसमें यूपी अपनी खास भूमिका निभाएगा. माई एक्सिस इंडिया टुडे के एक्जिट पोल में दावा किया जा रहा है कि यूपी में भाजपा को 62 से 68 सीटे तक मिल सकती हैं. आपको याद ही होगा कि विगत 2014 के लोकसभा के चुनावों में भाजपा को यूपी से 73 सीटों पर अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई थी.

तब भाजपा की  विचारधारा में मीनमेख निकालने वाले कह रहे थे कि भाजपा को इतनी बेहतरीन सफलता इसलिए मिली, क्योंकि राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टियों के वोट बुरी तरह बंट गए. अगर ये मिलकर भाजपा से लड़ते तो भाजपा को इतनी शानदार सफलता कभी मिल ही सकती थी. लेकिन, अब 2019 के लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी (बसपा), राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) ने तो मिलकर चुनाव ही लड़ा. हालांकि इन तीनों की विचारधारा तो कभी एक-दूसरे से मेल नहीं खाई, सिवाय वंशवाद के.

 

लोकसभा चुनाव के आगामी 23 मई को आने वाले नतीजों से पहले उत्तर प्रदेश (यूपी) और बिहार को लेकर जिस तरह की एक नहीं आधा दर्जन एक्टिज पोल (Exit poll results) ने जो तस्वीर रखी है, उसे गौर से देखने और गंभीरता पूर्वक समझने की आवश्यकता है. हालांकि यह अभी अनुमान है, पर गहरे संकेत अवश्य हैं. लगभग सभी खबरिया चैनलों ने जिस तरह के नतीजे देश को बताए हैं, उससे स्पष्ट है कि देश जाति पर आधारित राजनीति से त्रस्त हो चुका है.

देश का मतदाता अब अपनी जाति के उम्मीदवार को ही वोट देने के लिए उत्साहित नहीं होता. उसे आप जाति के जाल में अब और ज्यादा दिनों तक नहीं जकड़ कर नहीं रख सकते. उसे चौतरफा विकास की दरकरार है, उसे नौकरियों के अवसर चाहिए, स्वावलंबन चाहिए, नौकरी पाने की बजे नौकरी देने वाले उधमी बनने की स्वहिश है. उसे नए स्कूल-कॉलेज, अस्पताल चाहिए. उसे आप जाति विशेष का होने का झुनझुना थमा नहीं सकते.

इस संदर्भ में पहले जरा बात कर लें, देश के सबसे बड़े राज्य यूपी की. यहां से लोकसभा की 80 सीटें हैं. जाहिर है, केन्द्र में आगामी सरकार, जिस किसी भी पार्टी या गठबंधन की बनेगी, उसमें यूपी अपनी खास भूमिका निभाएगा. माई एक्सिस इंडिया टुडे के एक्जिट पोल में दावा किया जा रहा है कि यूपी में भाजपा को 62 से 68 सीटे तक मिल सकती हैं. आपको याद ही होगा कि विगत 2014 के लोकसभा के चुनावों में भाजपा को यूपी से 73 सीटों पर अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई थी.

तब भाजपा की  विचारधारा में मीनमेख निकालने वाले कह रहे थे कि भाजपा को इतनी बेहतरीन सफलता इसलिए मिली, क्योंकि राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टियों के वोट बुरी तरह बंट गए. अगर ये मिलकर भाजपा से लड़ते तो भाजपा को इतनी शानदार सफलता कभी मिल ही सकती थी. लेकिन, अब 2019 के लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी (बसपा), राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) ने तो मिलकर चुनाव ही लड़ा. हालांकि इन तीनों की विचारधारा तो कभी एक-दूसरे से मेल नहीं खाई, सिवाय वंशवाद के.

 

मोदी के पक्ष में मतदाताओं ने अखिलेश यादव और मायावती की जातिगत अपील को ठुकरा दिया.

ये आपस में हमेशा लड़ती-झगड़ती भी रही हैं. सारे राजनीतिक पंडित दावा कर रहे थे कि चुनाव नतीजों में इस गठबंधन की सुनामी देखने को मिलेगी। पर फिलहाल यह तो होता नहीं लग रहा है. इस गठबंधन के नेता पूरे चुनाब अभियान में बेशर्मी से जाति और धर्म के नाम पर बोट मांग रहे थे. इनके नेताओं को यह पक्का यकीन था कि इन्हें यादव, दलित, जाट और मुसलमानों के वोट तो थोकभाव मिलेंगे ही पर अभी के संकेत तो यह बता रहे हैं कि उत्तर प्रदेश की जनता ने इन सभी जातिवादियों को कायदे से समझा दिया है कि वे अब और इनके बहकावे में आने वाले नहीं हैं.

इस गठबंधन की नेत्री मायावती ने सहारनपुर के देवबंद की संयुक्त रैली में मुसलमानों को बार-बार कहा कि किसी भी सूरत में अपने वोट को बंटने नहीं देना. कांग्रेस इस लायक नहीं है कि वो मोदी की भाजपा को टक्कर दे सके. इसी रैली में मायावती ने यहां तक कहा कि भाजपा को हराना है तो मुस्लिमों को एकजुट होकर गठबंधन के पक्ष में ही वोट करना होगा.

अभी मोदी के साथ ही योगी को भी भगाना होगा ताकि भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति से मुक्ति मिल सके. आप देश की एक कथित राष्ट्रीय पार्टी की नेत्री की भाषा के घटिया स्तर पर जरा भी गौर करें. हैरानी इस बात की है कि जिस पार्टी का जन्म ही जाति की राजनीति करने के लिए हुआ हो वह दूसरी पार्टी पर बेबुनियाद आरोप लगा रही थी. बसपा को तो वैसे भी जनता अब पूरी तरह से खारिज कर चुकी है.

पिछली लोकसभा में इसकी संसद में एक भी सीट नहीं थी. अब बिहार की ओर चलते हैं. एनडीटीवी ने दिखाया कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और जनता दल यूनाइटेड को राज्य की 40 में से 31 लोकसभा सीटें मिल रही हैं. यानी बिहार में भी जाति की राजनीति पर करार प्रहार होने जा रहा है. बिहार में पिछड़ा, दलित, अति पिछड़ा, मुसलमान, पासमांदा मुसलमानों की राजनीति करने वाली पार्टियों ने राज्य को बहुत पीछे धकेला है.

इस बात से सारा देश वाकिफ है. हालांकि इस क्रम में इन दलों के नेताओं ने अपनी घरों- परिवारों को तो खूब भरा है. यह बेहद आवश्यक है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में जाति की राजनीति खत्म हो, आरक्षण के नाम पर गरीब-गुरुबा को अब और ठगा न जाए. ये दोनों राज्य देश के महान राज्य हैं, पर इन्हें जाति की गटर राजनीति करने वालों ने अंधकार युग में पहुंचा दिया है.

अपने को बाबा साहब अंबेडकर की अनुयायी बताने वाली मायावती को शायद ही यह मालूम हो कि बाबा साहेब ने 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा को संबोधित करते हुए बहुत साफ शब्दों में कहा था, “जाति तो राष्ट्र विरोधी है. ...पर, भारत में जातियों के असर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. जातियां तो राष्ट्र-विरोधी हैं. इनसे समाज बिखरता है. ये राष्ट्र-विरोधी इस मायने में हैं क्योंकि इनके (जातियों) के चलते विभिन्न जातियों में एक-दूसरे को लेकर कटुता का भाव पैदा होता है.”

काश, मायावती ने बाबा साहेब के इस वक्तव्य को कभी पढ़ लिया होता. दुर्भाग्यवश सपा और बसपा जैसे राजनीतिक दल जातिवाद को दूर करने के बजाय उसे और भी ज्यादा खाद-पानी देती रहती हैं. अखिलेश यादव नौजवान हैं, पढ़े-लिखे हैं. उनसे यह उम्मीद तो नहीं थी कि वे जाति के आधार पर सत्ता की पंजरी खाने की कोशिश करते रहेंगे. पर उन्होंने अपने को एक आदर्श नेता के रूप में स्थापित नहीं किया. उनके भाषणों में सिर्फ जाति के कोढ़ पर ही बात हो रही होती है.

उनके पास नए विचार नहीं है. सपा-बसपा की जहरीली नीति ने उपेक्षित सवर्ण जातियां को भी अब मुखर कर दिया है. अब ये भी सरकार से ही अपने हक मांग रही हैं. किसे मालूम नहीं है कि यूपी के मुख्यमंत्री रहते हुए अखिलेश यादव ने बढ़ती बेरोजगारी से निपटने के लिए कोई दूरगामी योजना नहीं बनाई थी.उनके मुख्यमंत्रित्व काल में कानून और व्यवस्था के हालात पूरी तरह से चरमरा गए थे. उधर, मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल की तो बात करने भर से ही मन निराश हो जाता है. वह तो सिर्फ अपनी मूर्तियों को बनवाने में ही सरकारी पैसे को फूंकती रही थीं.

हां, उन्होंने अपने खजाने को दिन-रात भरा. निश्चित रूप से यदि एक्टिव पोल के मुताबिक ही यूपी और बिहार के नतीजे आए तो ये 2019 के लोकसभा चुनाव की सबसे शानदार खबर होगी. इसका अर्थ यह होगा कि अब देश विकास चाहता है, उसे उम्मीदवार की धर्म और जाति से कोई मतलब नहीं है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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