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...इसलिए दोबारा चुनी जाएंगी ममता बनर्जी

    • देबदत्त भट्टाचार्या
    • Updated: 26 मार्च, 2016 11:21 AM
  • 26 मार्च, 2016 11:21 AM
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सवाल वही है, आखिर टीएमसी को छोडकर राज्य के वोटरों के पास दूसरा विकल्प क्या है? केन्द्र में कांग्रेस की सरकार भी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी थी. वहीं वामदलों पर विपक्ष को आतंकित करने का आरोप लगता रहा. बीजेपी के पास बंगाल में जमीन ही कितनी है.

ममता बैनर्जी ने 2011 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में 34 साल पुराने वामपंथी किले को उखाड़ फेंका. ‘पोरिबोर्तन’ के नाम पर ममता ने चुनाव जीता और पश्चिम बंगाल के वोटरों में उम्मीद बंधी कि अब राज्य को बीते तीन दशकों की दूर्दशा से छुटकारा मिलेगा. लंबे समय से पश्चिम बंगाल अपनी वामपंथी विचारधारा के चलते पिछड़ चुका था. सरकारी खजाना खाली पड़ा था, नौकरियां गिनी-चुनी थी, निवेश के रास्ते बंद पड़े थे और शिक्षा का स्तर शिथिल पड़ा था. राज्य में बड़े सुधारों के सामने वामपंथी विचारधारा की दीवार खड़ी थी और सबसे अहम यह कि जब पूरे देश की अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही थी, पश्चिम बंगाल खोखला होता जा रहा था. 

राज्य के वोटरों ने इस स्थिति को पलटने के लिए ममता का हाथ मजबूत किया. बीते दो दशकों से वह बेपरवाह और अकेले वामपंथियों का मुकाबला कर रही थीं. सिंगूर और नंदीग्राम में सत्तारूढ़ वामदलों के खिलाफ मोर्चे ने ममता के पीछे खड़े लोगों की संख्या को बढ़ा दिया. माना जाने लगा कि इन मामलों में ममता का विरोध कर सत्तारूढ़ वामपंथी दलों ने अपना राजनीतिक वर्चस्व त्रिणमूल पार्टी के हाथों में सौंप दिया.

अब पांच साल बीत चुके हैं. क्या ममता सरकार ने इस दौरान अपने वादों को पूरा किया? क्या वह वोटरों की उम्मीद पर खरी उतरीं? क्या पश्चिम बंगाल में 'पोरिबोर्तन' देखने को मिला?

जमीनी हकीकत ममता के पक्ष में नहीं है. राज्य अभी भी संसाधनों की कमी से जूझ रहा है, बड़े निवेश अभी भी राज्य में नहीं पहुंचे हैं, नौकरियां जस की तस हैं, शिक्षा वैसे ही पिछड़ी हुई है और कानून-व्यवस्था की हालत पहले से खराब हो चुकी है. तानाशाही से भरे ममता सरकार के इन पांच वर्षों ने कई लोगों की उम्मीद पर ठोकर मारने का काम किया है. इसके बावजूद अप्रैल के पहले हफ्ते में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं और लोगों का मानना है कि ममता आसानी से एक बार फिर सरकार बनाने जा रही हैं. ऐसा इसलिए कि पश्चिम बंगाल में वोटर भले ममता के पांच साल के शाषन से त्रस्त हैं, उनके पास और कोई मजबूत विकल्प...

ममता बैनर्जी ने 2011 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में 34 साल पुराने वामपंथी किले को उखाड़ फेंका. ‘पोरिबोर्तन’ के नाम पर ममता ने चुनाव जीता और पश्चिम बंगाल के वोटरों में उम्मीद बंधी कि अब राज्य को बीते तीन दशकों की दूर्दशा से छुटकारा मिलेगा. लंबे समय से पश्चिम बंगाल अपनी वामपंथी विचारधारा के चलते पिछड़ चुका था. सरकारी खजाना खाली पड़ा था, नौकरियां गिनी-चुनी थी, निवेश के रास्ते बंद पड़े थे और शिक्षा का स्तर शिथिल पड़ा था. राज्य में बड़े सुधारों के सामने वामपंथी विचारधारा की दीवार खड़ी थी और सबसे अहम यह कि जब पूरे देश की अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही थी, पश्चिम बंगाल खोखला होता जा रहा था. 

राज्य के वोटरों ने इस स्थिति को पलटने के लिए ममता का हाथ मजबूत किया. बीते दो दशकों से वह बेपरवाह और अकेले वामपंथियों का मुकाबला कर रही थीं. सिंगूर और नंदीग्राम में सत्तारूढ़ वामदलों के खिलाफ मोर्चे ने ममता के पीछे खड़े लोगों की संख्या को बढ़ा दिया. माना जाने लगा कि इन मामलों में ममता का विरोध कर सत्तारूढ़ वामपंथी दलों ने अपना राजनीतिक वर्चस्व त्रिणमूल पार्टी के हाथों में सौंप दिया.

अब पांच साल बीत चुके हैं. क्या ममता सरकार ने इस दौरान अपने वादों को पूरा किया? क्या वह वोटरों की उम्मीद पर खरी उतरीं? क्या पश्चिम बंगाल में 'पोरिबोर्तन' देखने को मिला?

जमीनी हकीकत ममता के पक्ष में नहीं है. राज्य अभी भी संसाधनों की कमी से जूझ रहा है, बड़े निवेश अभी भी राज्य में नहीं पहुंचे हैं, नौकरियां जस की तस हैं, शिक्षा वैसे ही पिछड़ी हुई है और कानून-व्यवस्था की हालत पहले से खराब हो चुकी है. तानाशाही से भरे ममता सरकार के इन पांच वर्षों ने कई लोगों की उम्मीद पर ठोकर मारने का काम किया है. इसके बावजूद अप्रैल के पहले हफ्ते में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं और लोगों का मानना है कि ममता आसानी से एक बार फिर सरकार बनाने जा रही हैं. ऐसा इसलिए कि पश्चिम बंगाल में वोटर भले ममता के पांच साल के शाषन से त्रस्त हैं, उनके पास और कोई मजबूत विकल्प नहीं है.

अब लोकसभा चुनावों के बाद कुछ समय के लिए लगा कि मोदी लहर आने वाले दिनों में ममता के लिए बड़ी चुनौती बनकर खड़ी हो सकती है. लोकसभा में बीजेपी को बड़ी सफलता मिली और महाराष्ट्र, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में उसका मजबूत प्रदर्शन देखने को मिला. लोकसभा चुनावों के दौरान नरेन्द्र मोदी ने कई रैलियां कर अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी और उसके बाद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने अपने मिशन 2016 के तहत भाग ममता भाग का उद्घोष कर दिया था.

पश्चिम बंगाल में 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया. बीजेपी को 2 सीट पर जीत के साथ-साथ 17 फीसदी वोट शेयर मिला और 3 सीटों पर उसका उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहा. हालांकि बीजेपी के इस प्रदर्शन का टीएमसी पर कोई असर नहीं पड़ा. उसने नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को राज्य में आड़े हाथों लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी. पलटवार में बीजेपी ने शारदा चिट फंड घोटाले के जरिए कई दिग्गज टीएमसी नेताओं पर हमला किया. जहां टीएमसी नेता कुनाल घोष, श्रिंजॉए बोस और मदन मित्रा को गिरफ्तार किया गया और ममता के बेहद करीबी मुकुल रॉय के दरवाजे पर सीबीआई ने दस्तक तक दी. इस दौरान अफवाहों का बाजार गर्म था कि सीबीआई ममता बनर्जी के दरवाजे को खटखटा सकती है और यहां तक कि उनकों गिरफ्तार भी कर सकती है. बहरहाल, ममता के खिलाफ सीबीआई की धार कमजोर हो गई या कह लें कर दी गई. इतना साफ है कि बीजेपी को यह साफ हो चुका है कि पश्चिम बंगाल में वह टीएमसी के मुकाबले कहीं नहीं खड़ी है और फिर 2015 में लोकल चुनावों ने बीजेपी को राज्य में उसकी जगह और साफ कर दी.

पश्चिम बंगाल में बीजेपी की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उसके पास ममता बनर्जी या ज्योती बसु की तरह कोई नेतृत्व नहीं है और राज्य में उसे गैर-बंगाली पार्टी के तौर पर ही देखा जाता है. वहीं जमीनी स्तर पर टीएमसी की पकड़ और बीजेपी कार्यकर्ताओं के खिलाफ सिलसिलेवार हमलों ने बीजेपी को राज्य में पूरी तरह से नाउम्मीद कर दिया है. साथ ही यह भी संभव है कि बीजेपी को यह भी समझ आ चुका है कि वह राज्य सभा में अपने कम आंकड़ों को पूरा करने के लिए पश्चिम बंगाल के आगामी विधानसभा चुनावों में टीएमसी की जीत को रोकने की कोशिश नहीं करेगी. क्योंकि इन चुनावों में टीएमसी की जीत राज्य में कांग्रेस के वजूद को खत्म करने में ज्यादा कारगर हो सकती है. और शायद इसीलिए चुनावों से ठीक पहले ममता और टीएमसी के खिलाफ सीबीआई की तेजी में सुस्ती दिखाई देने लगी है.

वहीं कांग्रेस और वामदलों का गठजोड़ दोनों पार्टियों को फायदा पहुंचा सकता है और इस गठजोड़ के सहारे दोनों दल राज्य में अपनी प्रासंगितका खोने से बच सकते हैं. हालांकि यह गठजोड़ चुनावों के पहले ही मुश्किलों में घिर चुका है क्योंकि वामदलों ने अपने उम्मीदवार घोषित करने में कांग्रेस का ख्याल नहीं रखा है. अब 2014 लोकसभा चुनावों से ठीक पहले शुरु किए गए नारद न्यूज के स्टिंग का 2016 विधानसभा चुनावों से ठीक पहले हुए खुलासे ने एक बार फिर टीएमसी नेताओं की छवि को बड़ा धक्का दिया है. इसका खामियाजा भी कुछ नेताओं को उठाना पड़ सकता है.

लेकिन सवाल वहीं है, आखिर टीएमसी को छोडकर राज्य के वोटरों के पास दूसरा विकल्प क्या है? केन्द्र में कांग्रेस की सरकार भी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी थी और राज्य में कांग्रेस के मुखिया अधीर चौधरी पर गंभीर आरोप हैं. वहीं वामदलों पर विपक्ष को आतंकित करने का आरोप लगता रहा. लिहाजा, ऐसे में ममता की तमाम विफलताओं के बाद भी उन्हें एक बार फिर सत्ता दी जा सकती है क्योंकि राज्य में वोटरों के पास और कोई विकल्प मौजूद नहीं है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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