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महाराष्ट्र में बीजेपी की बंपर जीत के पीछे ये है कारण

    • खुशदीप सहगल
    • Updated: 23 फरवरी, 2017 09:42 PM
  • 23 फरवरी, 2017 09:42 PM
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महाराष्ट्र निकाय चुनावों के नतीजे आने के बाद अब इनके विश्लेषण का दौर जारी है. बीएमसी में बीजेपी फिनिशिंग लाइन में शिवसेना की गर्दन के बिल्कुल करीब तक पहुंच गई. जानिए क्या है जीत के पीछे का कारण

महाराष्ट्र निकाय चुनावों के नतीजे आने के बाद अब इनके विश्लेषण का दौर जारी है. आखिर क्या वजह है कि बीजेपी को इस चुनाव में बंपर फायदा मिला? महाराष्ट्र के 7 बड़े शहरों में बीजेपी आगे रही, वहीं देश के सबसे अमीर माने जाने वाले शहरी निकाय यानि मुंबई नगर निगम (बीएमसी) में भी बीजेपी फिनिशिंग लाइन में शिवसेना की गर्दन के बिल्कुल करीब तक पहुंच गई. ये किसी से छुपा नहीं कि मुंबई को ही मराठा राजनीति करने वाली शिवसेना का सबसे बड़ा गढ़ माना जाता है. यहां नगर निगम में शिवसेना बामुश्किल सबसे बड़ी पार्टी का दर्जा बचा पाई. मुंबई के अलावा शिवसेना ने ठाणे में ही अपने दबदबे को बनाए रखने में कामयाबी पाई.

पुणे, नासिक, उल्हासनगर, अकोला, नागपुर और अमरावती में बीजेपी के मुकाबले और सभी पार्टियों का प्रदर्शन फीका रहा. इन सभी निकायों में बीजेपी के हाथ में सत्ता आना तय है. बीजेपी ने पुणे और उल्हासनगर में एनसीपी से सत्ता छीनी तो नासिक में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) को सत्ता से बेदखल किया. बीजेपी ने साथ ही नागपुर और अकोला में अपनी सत्ता को और मजबूती के साथ बरकरार रखने में सफलता पाई.

महाराष्ट्र में बीजेपी की इस बंपर जीत के लिए 'मैन ऑफ द मैच' मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को माना जा रहा है. महाराष्ट्र की राजनीति पारंपरिक तौर पर हाल तक मराठा प्रभुत्व वाली मानी जाती रही है. राज्य में अधिकतर मुख्यमंत्री मराठा ही रहे हैं. मनोहर जोशी के बाद फडणवीस दूसरे ब्राह्मण नेता है जिन्हें महाराष्ट्र का सीएम बनने का मौका मिला. पहले विधानसभा चुनाव और अब निकाय चुनावों में बीजेपी की बंपर जीत के मायने क्या महाराष्ट्र की राजनीति में मराठाओं का हाशिए पर जाना है.

महाराष्ट्र में बीजेपी की इस जीत का विश्लेषण किया जाए तो इसके पीछे उसकी वर्षों से चली आ रही रणनीति है. देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में जब से बीजेपी...

महाराष्ट्र निकाय चुनावों के नतीजे आने के बाद अब इनके विश्लेषण का दौर जारी है. आखिर क्या वजह है कि बीजेपी को इस चुनाव में बंपर फायदा मिला? महाराष्ट्र के 7 बड़े शहरों में बीजेपी आगे रही, वहीं देश के सबसे अमीर माने जाने वाले शहरी निकाय यानि मुंबई नगर निगम (बीएमसी) में भी बीजेपी फिनिशिंग लाइन में शिवसेना की गर्दन के बिल्कुल करीब तक पहुंच गई. ये किसी से छुपा नहीं कि मुंबई को ही मराठा राजनीति करने वाली शिवसेना का सबसे बड़ा गढ़ माना जाता है. यहां नगर निगम में शिवसेना बामुश्किल सबसे बड़ी पार्टी का दर्जा बचा पाई. मुंबई के अलावा शिवसेना ने ठाणे में ही अपने दबदबे को बनाए रखने में कामयाबी पाई.

पुणे, नासिक, उल्हासनगर, अकोला, नागपुर और अमरावती में बीजेपी के मुकाबले और सभी पार्टियों का प्रदर्शन फीका रहा. इन सभी निकायों में बीजेपी के हाथ में सत्ता आना तय है. बीजेपी ने पुणे और उल्हासनगर में एनसीपी से सत्ता छीनी तो नासिक में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) को सत्ता से बेदखल किया. बीजेपी ने साथ ही नागपुर और अकोला में अपनी सत्ता को और मजबूती के साथ बरकरार रखने में सफलता पाई.

महाराष्ट्र में बीजेपी की इस बंपर जीत के लिए 'मैन ऑफ द मैच' मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को माना जा रहा है. महाराष्ट्र की राजनीति पारंपरिक तौर पर हाल तक मराठा प्रभुत्व वाली मानी जाती रही है. राज्य में अधिकतर मुख्यमंत्री मराठा ही रहे हैं. मनोहर जोशी के बाद फडणवीस दूसरे ब्राह्मण नेता है जिन्हें महाराष्ट्र का सीएम बनने का मौका मिला. पहले विधानसभा चुनाव और अब निकाय चुनावों में बीजेपी की बंपर जीत के मायने क्या महाराष्ट्र की राजनीति में मराठाओं का हाशिए पर जाना है.

महाराष्ट्र में बीजेपी की इस जीत का विश्लेषण किया जाए तो इसके पीछे उसकी वर्षों से चली आ रही रणनीति है. देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में जब से बीजेपी महाराष्ट्र की सत्ता पर काबिज हुई है, तब से कोऑपरेटिव बैंक और शुगर कोऑपरेटिव के मौजूदा ढांचों को तोड़ने की सिस्टेमेटिक कोशिश कर रही है.

महाराष्ट्र ही नहीं कुछ और राज्यों में भी बीजेपी की रणनीति को देखा जाए तो ये नजर आएगा कि राज्य में जो जाति बहुलता में होती है, बीजेपी की कोशिश दूसरी जातियों को उसके खिलाफ एकजुट करने की होती है. गुजरात में गैर पटेल, महाराष्ट्र में गैर मराठा और हरियाणा में गैर जाटों को लेकर वो अपना रणनीतिक तानाबाना बुनती है. उत्तर प्रदेश में गैर यादव वोटों को अपनी ओर मोड़ने पर बीजेपी का जोर है.

क्षेत्रीय आधार पर सोशल इंजीनियरिंग के इसी अस्त्र की वजह से बीजेपी ने पहले वंजारी समुदाय को मराठा से अलग किया. दिवंगत गोपीनाथ मुंडे (वंजारी) को मराठवाड़ा में अपना नेता प्रमोट किया. फिर एकनाथ खड़से (लेवा-पाटिल) को खानदेश में खड़ा किया. इसी तरह राजू शेट्टी (लिंगायत) से हाथ मिलाया। फिर पश्चिमी महाराष्ट्र में किसान नेता महादेव जानकर (धानघर) और रामदास अठावले (दलित) को अपने खेमे से जोड़ा. इन सब को मिला दिया जाए तो ये कुल वोट शेयर का 65 फीसदी हिस्सा बन जाता है और मराठा के 35 फीसदी वोटों पर भारी पड़ता है.

आरएसएस इस एजेंडे पर बीते 40 साल से काम कर रहा है और उसे अपनी अथक मेहनत का फल पहले महाराष्ट्र में 2014 विधानसभा चुनाव में मिला और अब निकाय चुनाव में. कांग्रेस-एनसीपी के लगातार गिरते प्रदर्शन और बीजेपी के लगातार मजबूत होने से महाराष्ट्र की राजनीति में मराठा प्रभुत्व घटा है.

यहां एक और घटना का उल्लेख करना भी जरूरी है. बीते साल जुलाई में अहमदनगर जिले के कोपर्डी गांव में हुई एक आपराधिक घटना के बाद महाराष्ट्र भर में मराठा समुदाय सड़कों पर आ गया था. मराठी समुदाय से ताल्लुक रखने वाली नाबालिग लड़की की गैंगरेप के बाद हत्या कर दी गई. इस दरिंदगी का आरोप दलित समुदाय के तीन युवकों पर लगा. तीनों आरोपियों को पुलिस ने 48 घंटे में ही गिरफ्तार कर लिया. कोपर्डी की घटना पर विरोध जताने के लिए शुरू हुए मराठा आंदोलन ने महाराष्ट्र भर में महाआंदोलन का रूप ले लिया.

महाराष्ट्र के 37 जिलों लाखों मराठा सड़कों पर उतरे. जगह-जगह विरोध रैलियों का ये सिलसिला कई महीनों तक जारी रहा. 6 नवंबर 2016 को मुंबई में सोमैया मैदान से छत्रपति शिवाजी टर्मिनस तक बाइक रैली निकाली गई. इस रैली में हजारों बाइकर्स ने हिस्सा लिया. मराठा आंदोलन के दौरान मराठा समुदाय को अन्य पिछड़े वर्ग में आरक्षण देने की मांग के एक और बड़ी मांग SC-ST एक्ट 1989 में संशोधन की गई.

ऐसे में सवाल उठता है कि मराठा आंदोलन के दौरान जिस तरह मराठाओं ने सड़कों पर उतर कर जिस तरह अपना आक्रोश व्यक्त किया उसने क्या महाराष्ट्र के गैर मराठा समुदायों को एकजुट कर दिया. और इसकी अभिव्यक्ति महाराष्ट्र निकाय चुनाव के इन नतीजों में दिखी. साथ ही बीजेपी को महाराष्ट्र में गैर मराठा समुदायों को अपने साथ जोड़ने की रणनीति का बंपर फायदा मिला. बहरहाल, महाराष्ट्र में बीजेपी की इस जीत की गूंज लंबे समय तक सुनाई देती रहेगी.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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