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राहुल गांधी कांग्रेस नेताओं के इमोशनल अत्याचार का शिकार क्यों हो जाते हैं?

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 28 अगस्त, 2021 11:23 PM
  • 28 अगस्त, 2021 11:23 PM
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राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को केंद्र में रख कर जिस तरह की बातें भूपेश बघेल (Bhupesh Baghel) और नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) कर रहे हैं, एक खास पैटर्न नजर आता है. जैसे राहुल गांधी सुनते तो सबकी हैं - लेकिन अपने मन की कर नहीं पाते.

क्या राहुल गांधी (Rahul Gandhi) मध्य प्रदेश की समस्या से अब भी वैसे ही जूझते रहते? जैसे फिलहाल छत्तीसगढ़, पंजाब और राजस्थान कांग्रेस की चुनौतियों से जूझ रहे हैं? फिर तो बीजेपी और ऑपरेशन लोटस का एहसानमंद होना चाहिये कि चार में से कम से कम एक समस्या से निजात तो मिल ही गयी!

राजस्थान कांग्रेस की समस्या सुलझी नहीं थी बल्कि और उलझ गयी - ये तो बहुत बाद में मालूम हुआ. पंजाब का हाल तो तत्काल ही पता चल गया है. पंजाब कांग्रेस के ताजा ताजा अध्यक्ष बने नवजोत सिंह सिद्धू के तेवर से सूबे में पार्टी की समस्या की तासीर साफ साफ समझ आ रही है.

ठीक वैसे ही छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर पेंच फंसा हुआ था, लेकिन अब तो ऐसा लग रहा है जैसे ताकत की तरफ तराजू का पलड़ा झुक गया - और दिल्ली में भूपेश बघेल (Bhupesh Baghel) ने विधायकों के साथ शक्ति और समझदारी के प्रदर्शन से सभी चीजों को अपने पक्ष में मोड़ लिया.

राजस्थान में भी अशोक गहलोत ने करीब करीब ऐसे ही शक्ति प्रदर्शन किया और राहुल गांधी को अपनी तरफ झुका लिया, लेकिन जब सचिन पायलट की प्रियंका गांधी वाड्रा की बदौलत राहुल गांधी से मुलाकात हो गयी तो बीच का एक रास्ता निकाला गया. मामला सुलझ तो नहीं सका लेकिन कुछ दिन के लिए टल तो गया ही.

पंजाब का मामला तो सबसे अलग ही नजर आया. राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस नेतृत्व ने मिल कर सर्जरी का फैसला किया - कैप्टन अमरिंदर सिंह के लाख समझाने बुझाने के बावजूद सर्जिकल स्ट्राइक हुआ और नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) को अपने हक के रूप में प्रधान का पद हासिल हुआ.

मुद्दा ये नहीं है कि समस्या सुलझ रही है या नहीं सुलझ पा रही है - और ये भी नहीं कि उसके नतीजे क्या हो रहे हैं, मुद्दा ये है कि ऐसी समस्याओं को सुलझाने के लिए प्रक्रिया क्या...

क्या राहुल गांधी (Rahul Gandhi) मध्य प्रदेश की समस्या से अब भी वैसे ही जूझते रहते? जैसे फिलहाल छत्तीसगढ़, पंजाब और राजस्थान कांग्रेस की चुनौतियों से जूझ रहे हैं? फिर तो बीजेपी और ऑपरेशन लोटस का एहसानमंद होना चाहिये कि चार में से कम से कम एक समस्या से निजात तो मिल ही गयी!

राजस्थान कांग्रेस की समस्या सुलझी नहीं थी बल्कि और उलझ गयी - ये तो बहुत बाद में मालूम हुआ. पंजाब का हाल तो तत्काल ही पता चल गया है. पंजाब कांग्रेस के ताजा ताजा अध्यक्ष बने नवजोत सिंह सिद्धू के तेवर से सूबे में पार्टी की समस्या की तासीर साफ साफ समझ आ रही है.

ठीक वैसे ही छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर पेंच फंसा हुआ था, लेकिन अब तो ऐसा लग रहा है जैसे ताकत की तरफ तराजू का पलड़ा झुक गया - और दिल्ली में भूपेश बघेल (Bhupesh Baghel) ने विधायकों के साथ शक्ति और समझदारी के प्रदर्शन से सभी चीजों को अपने पक्ष में मोड़ लिया.

राजस्थान में भी अशोक गहलोत ने करीब करीब ऐसे ही शक्ति प्रदर्शन किया और राहुल गांधी को अपनी तरफ झुका लिया, लेकिन जब सचिन पायलट की प्रियंका गांधी वाड्रा की बदौलत राहुल गांधी से मुलाकात हो गयी तो बीच का एक रास्ता निकाला गया. मामला सुलझ तो नहीं सका लेकिन कुछ दिन के लिए टल तो गया ही.

पंजाब का मामला तो सबसे अलग ही नजर आया. राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस नेतृत्व ने मिल कर सर्जरी का फैसला किया - कैप्टन अमरिंदर सिंह के लाख समझाने बुझाने के बावजूद सर्जिकल स्ट्राइक हुआ और नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) को अपने हक के रूप में प्रधान का पद हासिल हुआ.

मुद्दा ये नहीं है कि समस्या सुलझ रही है या नहीं सुलझ पा रही है - और ये भी नहीं कि उसके नतीजे क्या हो रहे हैं, मुद्दा ये है कि ऐसी समस्याओं को सुलझाने के लिए प्रक्रिया क्या अपनायी जा रही है.

ऐसे सभी मामलों में सबसे खास बात वो है जो कई सारी मीटिंग और मुलाकातों के बाद चीजों को किसी नतीजे पर ले जा रही है - लेकिन ऐसा क्यों है कि इन समस्याओं को सुलझाने के पीछे को कोई तर्क नहीं होता, बल्कि हर मामले में कोई न कोई इमोशनल अत्याचार कर रहा होता है!

जब जिसने जो भी समझा दिया!

ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी ज्वाइन कर लेने पर राहुल गांधी की पहली प्रतिक्रिया बड़ी ही सिंपल रही - 'वो तो मेरे कॉलेज के दोस्त थे. कभी भी मेरे पास आ सकते थे...'

मतलब, कमलनाथ बार बार पास चले जाते थे, इसलिए हमेशा उनकी बातें मान ली जाती रहीं - और सिंधिया वो काम नहीं करते रहे इसलिए राहुल गांधी ने कभी उनसे पूछा भी नहीं - कोई दिक्कत तो नहीं है? चाहते तो राहुल गांधी भी ये पूछ सकते थे. फिर क्या समझें, दोनों शर्मीले स्वभाव के हैं. बस मन में सोच कर रह जाते हैं और कुछ कहते भी नहीं. बल्कि कुछ कहने के लिए मिलते ही नहीं.

चूंकि 2019 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे कमलनाथ बार बार मिल कर अपने बेटे नकुल नाथ के लिए कांग्रेस का टिकट देने की जिद करते रहे, इसलिए काम हो गया. ये भी राहुल गांधी ने ही कांग्रेस कार्यकारिणी में बताया था कि कमलनाथ ही नहीं, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी बेटे को टिकट दिलाने के लिए बार बार बोल कर दबाव बनाया और हासिल भी कर लिया. अब ये तो किस्मत की बात है कि नकुलनाथ जीत कर संसद पहुंच गये - और वैभव गहलोत चुनाव हार गये.

सिद्धू और बघेल के दिखाये सपनों में राहुल गांधी कौन सा ख्वाब देख रहे हैं - और क्यों?

ये तो यही इशारा कर रहा है कि राहुल गांधी से बार बार मिल कर अपनी बात समझायी जा सकती है. मुलाकात के लिए जरूर एक एक्सेस प्वाइंट खोजना होता है, लेकिन एक बार ग्रीन सिग्नल मिल गया फिर तो ग्रीन कॉरिडोर ही बन जाता है.

लेकिन मुलाकात के लिए एक्सेस सबको नहीं मिल पाता. कैप्टन अमरिंदर सिंह और सचिन पायलट जैसे नेताओं को इंतजार करने के बाद खाली हाथ लौट भी जाना पड़ता है - और जुगाड़ बनते ही नवजोत सिंह सिद्धू जैसे नेता एक ही दिन में तीन-तीन बार मिल लेते हैं, भूपेश बघेल जैसे नेता एक बार मिल कर चले जाते हैं और फिर 48 घंटे में ही दोबारा रायपुर से दिल्ली पहुंच कर मिल लेते हैं.

लब्बोलुआब तो यही लगता है कि जब भी जो भी चाहे, राहुल गांधी से मिलकर अपनी बात समझा ले, कांग्रेस में काम बन जाएगा - बस बार बार मिलते रहना और अपनी बात समझाते रहना जरूरी शर्त है है - काउंसिलिंग भी तो इसी को कहते हैं.

सवाल ये है कि एक ही शख्स को हर कोई अपने अपने मतलब की बात कैसे समझा लेता है? मतलब तो ये हुआ कि कांग्रेस में कायम रहने के लिए कुशल राजनीतिज्ञ ही नहीं, काउंसिलिंग के कौशल से भी लैस होना जरूरी है - वरना, अशोक गहलोत से सचिन पायलट निकम्मा और नकारा जैसी बातें सुनते ही नहीं, साबित भी हो जाते हैं.

और कैप्टन अमरिंदर जैसा मजबूत नेता कदम पीछे खींच लेता है और सिद्धू जैसे लोग सरेआम ईंट से ईंट बजाने की धमकी दे डालते हैं - और कोई बाल-बांका भी नहीं हो पाता.

सिद्धू के कांग्रेस आलाकमान को ललकारने के बाद, G-23 नेताओं का जख्म हरा हो गया है. पंजाब से आने वाले कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने अपना दर्द यूं बयान किया है.

प्रियंका गांधी का रोल क्या है?

कांग्रेस को लेकर बाहर जो समझाइश है, वो तो यही है कि राहुल गांधी ही फाइनल अथॉरिटी हैं. हालांकि, वो प्रियंका गांधी वाड्रा की तरह कांग्रेस महासचिव भी नहीं हैं, लेकिन भूतपूर्व अध्यक्ष जरूर हैं - अगर कांग्रेस में ऐसे नेताओं को भी कोई अलग सुविधा दी जाने लगी हो तो. अलिखित अधिकार, अघोषित अधिकार. संपत्ति के वारिस होने के ताने स्वस्थानांतरित हो जाने वाले अधिकार. वैसे भी कई बार मौखिक अधिकार भी दस्तखत वाले अधिकारों पर भारी पड़ते हैं - क्योंकि कद तो कभी पद का मोहताज होता नहीं है.

सवाल ये उठता है कि प्रियंका गांधी वाड्रा फिलाह कौन सी भूमिका में हैं?

कुछ मीडिया रिपोर्ट में प्रियंका गांधी वाड्रा को अहमद पटेल जैसा संकटमोचक भी बताया जाने लगा है. आलम ये है कि अहमद पटेल अमूमन समस्याों को अपने स्तर पर सुलझा कर हाई कमान को अपडेट कर देते थे - और प्रियंका गांधी वाड्रा सुलझाई समस्याओं की उलझनें देर सबेर उछल उछल कर कुलांचें भरने लगती हैं.

राजस्थान से पंजाब तक घूम आइये, हर कोई ऐसे ही किस्से सुनाते मिलेगा. छत्तीसगढ़ को लेकर अलग किस्सा सुनने में आ रहा है. एक मीडिया रिपोर्ट मे बताया गया है कि छत्तीसगढ़ के मामले में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के बीच सहमति नहीं बन पा रही है.

रिपोर्ट से मालूम होता है कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और राहुल गांधी के बीच जब 24 अगस्त को मीटिंग हुई थी, तब प्रियंका गांधी कहीं बाहर व्यस्त थी, लिहाजा मीटिंग में शामिल नहीं हो सकीं. या कहें कि भूपेश बघेल से बात नहीं कर सकीं. यही वजह रही कि उनके फ्री होने पर दो दिन बाद भी भूपेश बघेल फिर से हाजिर हुए - और राहुल गांधी के साथ पहली वाली डेढ़ घंटे की मीटिंग के मुकाबले तीन घंटे तक प्रजेंटेशन देते रहे. याद रहे नवजोत सिंह सिद्धू भी छह महीने गुमनामी में बिताने के बाद सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी को प्रजेंटेशन दिये थे - और ईंट से ईंट बजाने की धमकी के दौरान भी उसी पंजाब मॉडल का जिक्र कर रहे थे - और दावा कि अगले बीस साल तक पंजाब में सत्ता की बागडोर कांग्रेस के पास ही रहेगी. लगे हाथ एक डिस्क्लेमर भी था - अगर वो पंजाब मॉडल को लागू कर पाये!

बताते हैं कि राहुल गांधी चूंकि टीएस सिंहदेव से मुख्यमंत्री पद का आधा हिस्सा देने का वादा कर चुके हैं, इसलिए छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री बदलने के पक्ष में हैं. दूसरी तरफ प्रियंका गांधी वाड्रा भूपेश बघेल को कम से कम यूपी चुनाव तक बदलने के पक्ष में नहीं हैं - क्योंकि यूपी चुनाव में ओबीसी का मुद्दा उठने वाला है. जातीय जनगणना की मांग तो जोर पकड़ ही रही है.

भूपेश बघेल भी ओबीसी कोटे से ही आते हैं - और खबर ये भी आ रही है कि बीजेपी भी 2023 के लिए लिए किसी ओबीसी चेहरे की तलाश में जोर शोर से है. मतलब, चावल वाले बाबा के नाम से मशहूर रमन सिंह के सामने भी मामला खतरे के निशाने से ऊपर जा चुका है.

बहरहाल, रायपुर लौटकर भूपेश बघेल बता रहे हैं कि राहुल गांधी अगले ही हफ्ते छत्तीसगढ़ के दौरे पर पहुंच रहे हैं - उनका दौरा भी तीन चरणों में बताया गया है. राहुल गांधी के दौरे की शुरुआत बस्तर से होगी जहां वो दो दिन बिताएंगे. वैसे ही सरगुजा और मैदानी इलाकों में दो-दो दिन बिताएंगे.

भूपेश बघेल के मुताबिक, राहुल गांधी वहां छत्तीसगढ़ मॉडल देखेंगे. बघेल कह रहे हैं, 'गुजरात मॉडल के बाद अब देश के सामने छत्तीसगढ़ मॉडल है और इसे देखने हमारे नेता पहुंचेंगे.'

भूपेश बघेल ने ये भी बताया है कि राहुल गांधी छत्तीसगढ़ मॉडल देखने के बाद वहां जो विकास के कार्य हुए हैं, उसे लेकर पूरे भारत में जाएंगे - और लोगों को बताएंगे.

अब तो आपको ये समझ में आ ही गया होगा कि भूपेश बघेल ने राहुल गांधी को क्या क्या और कैसे समझाया है - और ये भी राहुल गांधी को कांग्रेस नेता क्या क्या और कैसे समझा लेते हैं - राहुल गांधी के ट्रैक रिकॉर्ड को देखिये. कई कड़ियां आपस में एक दूसरे से ऐसे ही जुड़ती नजर आएंगी. हर नेता अपने अपने तरीके से अपनी बात समझा देता है.

अशोक गहलोत समझा देते हैं कि सचिन पायलट निकम्मा और नकारा तो हैं ही, पीठ में छुरा भी भोंकते हैं. हैंडसम दिखने और अच्छी अंग्रेजी बोलने से कुछ भी नहीं होता - और राहुल गांधी समझ जाते हैं. अशोक गहलोत बोल रहे हैं तो ठीक ही बोल रहे होंगे.

नवजोत सिंह सिद्धू पंजाब मॉडल का सपना दिखाते हैं और तभी भूपेश बघेल गुजरात मॉडल के मुकाबले छत्तीसगढ़ मॉडल पेश कर देते हैं. साथ में ये भी समझा देते होंगे कि राहुल गांधी चाहें तो छत्तीसगढ़ मॉडल से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात मॉडल की हवा निकाल सकते हैं. चाहें तो भूकंप भी ला सकते हैं - और राहुल गांधी समझ जाते हैं. नवजोत सिंह सिद्धू और भूपेश बघेल बोल रहे हैं तो सही ही बोल रहे होंगे.

नफरत भरे माहौल में आगे बढ़ कर गले मिलने वाले एक नेकदिल इंसान की मासूमियत का ये बेजा इस्तेमाल - आखिर इमोशनल अत्याचार नहीं है, तो क्या है!

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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