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कैप्टन से राहुल गांधी की चिढ़ का आधार क्या सिर्फ सिद्धू के इल्जाम ही हैं?

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 02 जुलाई, 2021 05:24 PM
  • 02 जुलाई, 2021 05:24 PM
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राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ना-ना करते नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) से तो मिल लेते हैं, लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह (Capt. Amrinder Singh) को लेकर सिर्फ उनके खफा होने की खबर आ रही है - आखिर ऐसी नाराजगी का आधार क्या है, सिवा सिद्धू के आरोपों के?

नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) और कैप्टन अमरिंदर सिंह के अपने अपने स्टैंड को अलग अलग मान्यता भी मिलने लगी है. सिद्धू जहां गांधी परिवार के दरबार में मत्था टेकने में कामयाब रहे हैं, वहीं कैप्टन अपने समर्थकों, पंजाब कांग्रेस के नेताओं और विधायकों का दरबार लगा कर.

अब कौन से दरबार में हाजिरी लगाने का किसे क्या फल मिलता है - पंजाब में 2022 में होने जा रहे विधानसभा चुनाव के नतीजों से ही मालूम हो सकेगा. तब तक जो जितना चाहे अपनी किस्मत और काबिलियत पर इठलाते हुए खुश तो हो ही सकता है - और बाहर न सही, मन ही मन जश्न भी मना सकता है.

कहने को तो राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने सिद्धू से मिलने से भी इनकार कर ही दिया था, लेकिन कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की सिफारिश पर तैयार भी हो गये - और फिर बातचीत शुरू हुई तो 45 मिनट तक चली. जाहिर है ये मुलाकात हिमंता बिस्वा सरमा वाली कैटेगरी से तो अलग ही हुई होगी. हालांकि, ये तो सिद्धू ही कभी बताएंगे कि मुलाकात में आई-कॉन्टैक्ट उनसे ज्यादा रहा या पिडी से. पिडी, राहुल गांधी का प्यारा सा पेट है. कुछ दिन पहले भी ऐसी ही एक मुलाकात राहुल गांधी और सचिन पायलट के बीच भी हुई थी - और वो मामला तो अब तक लटका ही हुआ है. ध्यान देने वाली बात ये है कि उस मुलाकात की सूत्रधार भी प्रियंका गांधी वाड्रा ही रहीं.

सचिन पायलट के केस में कम से कम ये तो होता ही था कि दूसरी पार्टी यानी अशोक गहलोत के पास ऐसा एक्सेस कार्ड रहा जिसकी बदौलत वो साक्षात भी मिल लेते थे - और हॉटलाइन की सुविधा तो हासिल थी ही. सिद्धू के विरोधी कैप्टन अमरिंदर सिंह (Capt. Amrinder Singh) को ये सुविधा हासिल नहीं है, लेकिन अपने सूबे में सत्ता की चाबी फिलहाल कैप्टन के पास भी वैसे ही है, जैसे राजस्थान में अशोक गहलोत के...

नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) और कैप्टन अमरिंदर सिंह के अपने अपने स्टैंड को अलग अलग मान्यता भी मिलने लगी है. सिद्धू जहां गांधी परिवार के दरबार में मत्था टेकने में कामयाब रहे हैं, वहीं कैप्टन अपने समर्थकों, पंजाब कांग्रेस के नेताओं और विधायकों का दरबार लगा कर.

अब कौन से दरबार में हाजिरी लगाने का किसे क्या फल मिलता है - पंजाब में 2022 में होने जा रहे विधानसभा चुनाव के नतीजों से ही मालूम हो सकेगा. तब तक जो जितना चाहे अपनी किस्मत और काबिलियत पर इठलाते हुए खुश तो हो ही सकता है - और बाहर न सही, मन ही मन जश्न भी मना सकता है.

कहने को तो राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने सिद्धू से मिलने से भी इनकार कर ही दिया था, लेकिन कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की सिफारिश पर तैयार भी हो गये - और फिर बातचीत शुरू हुई तो 45 मिनट तक चली. जाहिर है ये मुलाकात हिमंता बिस्वा सरमा वाली कैटेगरी से तो अलग ही हुई होगी. हालांकि, ये तो सिद्धू ही कभी बताएंगे कि मुलाकात में आई-कॉन्टैक्ट उनसे ज्यादा रहा या पिडी से. पिडी, राहुल गांधी का प्यारा सा पेट है. कुछ दिन पहले भी ऐसी ही एक मुलाकात राहुल गांधी और सचिन पायलट के बीच भी हुई थी - और वो मामला तो अब तक लटका ही हुआ है. ध्यान देने वाली बात ये है कि उस मुलाकात की सूत्रधार भी प्रियंका गांधी वाड्रा ही रहीं.

सचिन पायलट के केस में कम से कम ये तो होता ही था कि दूसरी पार्टी यानी अशोक गहलोत के पास ऐसा एक्सेस कार्ड रहा जिसकी बदौलत वो साक्षात भी मिल लेते थे - और हॉटलाइन की सुविधा तो हासिल थी ही. सिद्धू के विरोधी कैप्टन अमरिंदर सिंह (Capt. Amrinder Singh) को ये सुविधा हासिल नहीं है, लेकिन अपने सूबे में सत्ता की चाबी फिलहाल कैप्टन के पास भी वैसे ही है, जैसे राजस्थान में अशोक गहलोत के पास.

पंजाब और राजस्थान कांग्रेस के केस में एक बड़ी ही कॉमन बात है क्योंकि सिद्धू भी कैप्टन पर वैसे ही इल्जाम लगाते रहे हैं, जैसे सचिन पायलट अशोक गहलोत के खिलाफ - लेकिन क्या एक पार्टी के दूसरी पार्टी पर महज इल्जाम के आधार पर कोई राय बनायी जा सकती है?

बिजली के मामले में तो चूक गये कैप्टन

कांग्रेस आलाकमान की तरफ से खबर आ रही है कि पंजाब क्राइसिस को लेकर बीच के रास्ते की तलाश चल रही है. पंजाब संकट के ऐसे समाधान की जरूरत समझी जा रही है जो दोनों पक्षों के लिए सम्मानजनक हो. अच्छी बात है. ऐसा होना भी चाहिये.

अब अगर राहुल गांधी और सोनिया गांधी को लग रहा है कि सिद्धू बनाम कैप्टन के झगड़े में कांग्रेस की काफी किरकिरी हुई है तो सही भी है - लेकिन इसके लिए क्या आपस में झगड़ रहे सिद्धू और कैप्टन ही जिम्मेदार हैं? ये झगड़ा तो 2017 में पंजाब में कांग्रेस की सरकार बनने के साथ ही शुरू हो गया था, फिर इसे खींच कर अब तक बनाये रखने की जरूरत क्या थी?

पंजाब संकट को लेकर बनायी गयी मल्लिकार्जुन खड़गे कमेटी ने अपनी रिपोर्ट तैयार कर, कुछ सिफारिशों और सलाहियत के साथ सोनिया गांधी को सौंप दी है, ऐसा बताया जा रहा है. कमेटी तो शुरू से ही सिद्धू और कैप्टन को समझाने की कोशिश करती रही है.

कमेटी ने कैप्टन को भी बता दिया था कि उनकी मनमानी से कांग्रेस नेतृत्व खुश नहीं है. मल्लिकार्जुन कमेटी ने कैप्टन को प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर अपनी सरकार के कामकाज बताने और आगे का एक्शन प्लान शेयर करने की हिदायत दी थी, लेकिन हफ्ता भर बीत जाने के बाद भी ऐसा नहीं हो सका है.

वैसे कैप्टन ने पंजाब के कांग्रेस विधायकों, नेताओं और अपने समर्थकों को घर बुलाकर जो लंच कराया है, वो भी आलाकमान की अपेक्षा सूची का ही हिस्सा बताया जा रहा है.

क्या गांधी परिवार के दरबार में कैप्टन के साथ नाइंसाफी नहीं हो रही है?

कैप्टन को लेकर एक बार फिर पुरानी धारणा लोगों के मन में आने लगी थी - उनकी सहज उपलब्धता को लेकर. कहा जा रहा है कि पिछले साल भर से कैप्टन पहले की ही तरह अपने ही लोगों से दूर होते जा रहे थे - और ऐसा इसलिए क्योंकि जैसे वो खुद चाह कर भी दिल्ली में होने के बावजूद राहुल गांधी या सोनिया गांधी से नहीं मिल सके, उनके मुलाकातियों के अंदर भी कुछ ऐसी ही फीलिंग बनती जा रही है. 2017 में चुनाव के दौरान उनके रणनीतिकार प्रशांत किशोर को भी ये लगा था और इसे न्यूट्रलाइज करने के लिए वो कॉफी विद कैप्टन जैसे कार्यक्रम शुरू किये थे और उसका भरपूर फायदा भी मिला.

कैप्टन के लिए लंच डिप्लोमेसी तो डबल बेनिफिट वाली साबित हुई है. एक तरफ कांग्रेस नेतृत्व की बात भी मान ली है - और दूसरी तरफ अपना सपोर्ट बेस भी रीन्यू करा लिया है. चुनावों के हिसाब से देखें तो कैप्टन का ये कदम सिद्धू को मिली सौगात पर भारी लगता है. जब सामने चुनाव हो तो जनता का साथ जरूरी होता है, आलाकमान तो गुस्से में भी मन मसोस कर रह जाएगा. यूपी का योगी आदित्यनाथ प्रकरण सबसे सटीक मिसाल है.

हालांकि, कैप्टन एक मामले में जरूर चूक गये हैं. कांग्रेस नेतृत्व की हिदायतों के मुताबिक कैप्टन को 200 यूनिट मुफ्त बिजली देने की भी घोषणा करने को कहा गया था, लेकिन उससे पहले ही AAP नेता अरविंद केजरीवाल ने पंजाब में भी सत्ता में आने पर 300 यूनिट मुफ्त बिजली देने का वादा कर दिया है.

सिद्धू के आरोप सचिन जैसे क्यों?

राजस्थान के अशोक गहलोत से लड़ाई में सचिन पायलट का एक बड़ा इल्जाम रहा है, मुख्यमंत्री का राजनीतिक विरोधी बीजेपी नेता वसुंधरा राजे के प्रति नरम रुख. सचिन पायलट का आरोप रहा है कि अशोक गहलोत न सिर्फ वसुंधरा की गलतियों पर परदा ढकते हैं, बल्कि नियमों को ताक पर रख कर उनके लिए सरकारी बंगला भी अलॉट कर देते हैं.

वैसे सचिन के आरोपों को दबी जबान में मीडिया से बातचीत में वहां के लोग स्वीकार भी करते हैं. वसुंधरा राजे का शिवराज सिंह चौहान की तरह कांग्रेस की सरकार गिराने और फिर तख्तापलट के बाद कुर्सी हथियाने में दिलचस्पी न होना भी ऐसे ही इशारे करता है. वसुंधरा राजे मान कर चल रही हैं कि 2023 में विधानसभा चुनाव होंगे तो सत्ता मिलनी ही है, परंपरा के अनुसार - लेकिन ये जरूरी भी तो नहीं है.

राजस्थान की ही तर्ज पर सिद्धू पंजाब में बादल परिवार को फायरिंग और बेअदबी केस में बचाने का इल्जाम लगाते रहे हैं. हो सकता है सचिन पायलट जैसे ही सिद्धू के आरोपों के होने के कारण राहुल गांधी और सोनिया गांधी को भी मामला एक जैसा लग रहा हो.

कैप्टन के साथ मुश्किल ये है कि वो अशोक गहलोत की तरह गांधी परिवार का एक्सेस कार्ड नहीं रखते, बल्कि हर वक्त प्रोटेस्ट कार्ड लेकर घूमते रहते हैं. जैसी वसुंधरा राजे और बीजेपी नेतृत्व से टकराव की खबरें आती रहती हैं.

सत्ता पक्ष के खिलाफ जनता के विरोध की स्थिति में एक नारा खूब चलता है - 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है'. पंजाब में भी कुछ कुछ ऐसा ही चल रहा है, लेकिन वो 'तू चल मैं आता हूं' का भाव लिये हुए लगता है - 'तुम हटो मैं सिंहासन चढ़ता हूं'. ऐसा ही मुहावरा इन दिनों पंजाब में चर्चा-ए-आम है.

हैरानी की बात ये है कि मुहावरे को कैप्टन और बादल परिवार के बीच बारी बारी सत्ता की अदला-बदली के तौर पर लिया जा रहा है. पंजाब में ऐसा होता तो आया है, लेकिन 2017 से पहले लगातार दस साल प्रकाश सिंह बादल मुख्यमंत्री रहे और कैप्टन अमरिंदर सिंह सत्ता से बाहर.

समझा जाता है कि कांग्रेस नेतृत्व को कैप्टन से घोर नाराजगी के पीछे भी एक बड़ी वजह ये भी है - और यही वजह लगती है कि प्रियंका गांधी वाड्रा ने सिद्धू से खुद मुलाकात करने का फैसला तो लिया ही, राहुल गांधी से सिद्धू को मिलाने में भी अपने प्रभाव का पूरा इस्तेमाल किया है.

लेकिन सवाल है कि क्या सत्ता को लेकर ऐसी कोई अंडरस्टैंडिंग राजनीति में कभी संभव है?

सत्ता के मामले में भी प्यार और जंग में सब जायज जैसी चीजें न सिर्फ लागू होती हैं, कई बार तो बहुत पीछे भी छूट जाती हैं.

बड़ा अजीब लगता है अशोक गहलोत और कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे अनुभवी नेताओं के बारे भला ऐसा कैसे समझ लिया जाता है.

सत्ता का आकर्षण भी नशे की तरह होता है - और अपने हिस्से का नशा कोई किसी से भी शेयर नहीं करता. भला राजनीति में कब से ये त्याग की भावना बनने लगी कि लोग आपसी समझ से ऐसा करने को राजी होने लगे?

अब तक तो यही देखने को मिला है कि आधे आधे कार्यकाल के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी साझा करने को लेकर या तो कोई तैयार नहीं होता या फिर अपनी पारी पूरी करने के बाद नयी चाल चल देता है. महाराष्ट्र में तो मुख्यमंत्री की कुर्सी शेयर करने की बजाय बीजेपी ने गठबंधन ही टूट जाने दिया.

वैसे कैप्टन को छोड़ कर राहुल गांधी ने उनका विरोध करने वाले कई सारे विधायकों और नेताओं से मिले हैं - और कइयों से फोन पर भी संपर्क किया है. एक तरफ मल्लिकार्जुन कमेटी की मीटिंग चल रही थी और दूसरी तरफ राहुल गांधी अपने स्तर पर जांच पड़ताल और फीडबैक ले रहे थे.

सुनने में आया कि राहुल गांधी कम के कम दो चीजें समझने में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे थे - एक, अगर कैप्टन को हटा दिया गया तो कितने कांग्रेस विधायक बगावत कर सकते हैं - और दूसरा सवाल था - पहले तो आप लोग कैप्टन के सपोर्ट में हुआ करते थे, लेकिन अब विरोध कर रहे हो. ऐसा क्यों? मिलने वालों या फोन पर विधायकों से संपर्क के दौरान, मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, राहुल गांधी का ये सवाल जरूर होता था.

लब्बोलुआब तो यही है कि अपने तरीके से राहुल गांधी ने कैप्टन अमरिंदर सिंह को लेकर अपनी राय तो बना ही ली है, लेकिन उसका मुख्य आधार या तो नवजोत सिंह सिद्धू के इल्जाम हैं या फिर कैप्टन विरोधियों की शिकायतों का पुलिंदा. राहुल गांधी को कम से कम एक बार कैप्टन अमरिंदर सिंह से भी मिलना तो बनता ही है. ऐसा भी नहीं कि समय बीत चुका है. पूरा मौका है एक मुलाकात का. वरना, मैसेज तो यही जाएगा - ये तो बहुत नाइंसाफी है!

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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