स्वयं को शिव भक्त कहने वाले 'जनेऊ धारी' राहुल गाँधी ने भारत के दौरे पर आए इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से मिलना उचित नहीं समझा. गुजरात चुनावों में चाहे मंदिर-मंदिर जाकर राहुल ने 'नर्म हिंदूत्व' दिखाने की बहुत कोशिश की, परंतु जब परीक्षा की घड़ी आई तो वह अपनी धर्म आधारित तुष्टिकरण की नीति पर कायम रहे. राहुल गाँधी अब भी उस नीति पर कायम है जहाँ इज़रायल से अच्छे संबंध रखने को मुस्लिम विरोधी के रूप में देखा जाता है. इस नीति के कारण ही भारत-इज़रायल के रिश्ते दशकों तक ठंडे बस्ते में पड़ें रहे. अब जब भारत-इज़रायल के रिश्तों में सुधार हो रहा है, तब भी राहुल उस मित्रता का संज्ञान नहीं लेना चाहते हैं.
जब भी कोई विदेशी राष्ट्रअध्यक्ष - राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, इत्यादि देश में आता है तो शिष्टाचार और प्रोटोकॉल के अनुसार मेज़बान देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्य विपक्षी राजनीतिक दल के अध्यक्ष, इत्यादि उस मेहमान से मिलते है. इज़रायली प्रधानमंत्री के भारत आगमन पर राहुल गाँधी ने बेंजामिन नेतन्याहू से मिलने के बजाए, नरेंद्र मोदी के विदेशी नेताओं से गले लगने के ढंग पर मज़ाक उड़ाना बेहतर समझा. वामपंथी राजनीतिक दल भी पीछे नहीं रहे, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के डैनियल राजा ने बेंजामिन नेतन्याहू की भारत यात्रा के विरोध में रैली भी निकाल दी.
पिछले कई दशकों में भारत के राजनेताओं ने भारत-इज़रायल के रिश्तों को फ़िलिस्तीन की नज़र से देखने की ग़लती की है. ऐसे नेताओं को लगता है कि यदि भारत इज़रायल के साथ मित्रता बढ़ाएगा तो भारत को फ़िलिस्तीन विरोधी समझा जाएगा. यह राजनेता भारत-इज़रायल और भारत-फ़िलिस्तीन इन दोनों रिश्तों को अलग अलग क्यों नहीं देख सकते है? फ़िलिस्तीन के मुद्दे पर इज़रायल का समर्थन किए बिना भी भारत इज़रायल के साथ दोस्ती कर सकता है. भारत की पूर्व की सरकारें...
स्वयं को शिव भक्त कहने वाले 'जनेऊ धारी' राहुल गाँधी ने भारत के दौरे पर आए इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से मिलना उचित नहीं समझा. गुजरात चुनावों में चाहे मंदिर-मंदिर जाकर राहुल ने 'नर्म हिंदूत्व' दिखाने की बहुत कोशिश की, परंतु जब परीक्षा की घड़ी आई तो वह अपनी धर्म आधारित तुष्टिकरण की नीति पर कायम रहे. राहुल गाँधी अब भी उस नीति पर कायम है जहाँ इज़रायल से अच्छे संबंध रखने को मुस्लिम विरोधी के रूप में देखा जाता है. इस नीति के कारण ही भारत-इज़रायल के रिश्ते दशकों तक ठंडे बस्ते में पड़ें रहे. अब जब भारत-इज़रायल के रिश्तों में सुधार हो रहा है, तब भी राहुल उस मित्रता का संज्ञान नहीं लेना चाहते हैं.
जब भी कोई विदेशी राष्ट्रअध्यक्ष - राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, इत्यादि देश में आता है तो शिष्टाचार और प्रोटोकॉल के अनुसार मेज़बान देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्य विपक्षी राजनीतिक दल के अध्यक्ष, इत्यादि उस मेहमान से मिलते है. इज़रायली प्रधानमंत्री के भारत आगमन पर राहुल गाँधी ने बेंजामिन नेतन्याहू से मिलने के बजाए, नरेंद्र मोदी के विदेशी नेताओं से गले लगने के ढंग पर मज़ाक उड़ाना बेहतर समझा. वामपंथी राजनीतिक दल भी पीछे नहीं रहे, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के डैनियल राजा ने बेंजामिन नेतन्याहू की भारत यात्रा के विरोध में रैली भी निकाल दी.
पिछले कई दशकों में भारत के राजनेताओं ने भारत-इज़रायल के रिश्तों को फ़िलिस्तीन की नज़र से देखने की ग़लती की है. ऐसे नेताओं को लगता है कि यदि भारत इज़रायल के साथ मित्रता बढ़ाएगा तो भारत को फ़िलिस्तीन विरोधी समझा जाएगा. यह राजनेता भारत-इज़रायल और भारत-फ़िलिस्तीन इन दोनों रिश्तों को अलग अलग क्यों नहीं देख सकते है? फ़िलिस्तीन के मुद्दे पर इज़रायल का समर्थन किए बिना भी भारत इज़रायल के साथ दोस्ती कर सकता है. भारत की पूर्व की सरकारें यह बात नहीं समझ पाई, जिसे वर्तमान सरकार बड़ी खूबी से प्रस्तुत कर रही है. वर्तमान सरकार फ़िलिस्तीन के हितों से जुड़े मुद्दों को अनदेखा किए बिना इज़रायल के साथ मित्रता बढ़ा रही है.
इज़रायल चाहे क्षेत्रफल और जनसंख्या में भारत से बहुत छोटा हो पर भारत की कई समस्यों के समाधान में हमारा साथी बन सकता है. खेती की नवीनतम तकनीक, नदियों की सफाई, हथियारों की पूर्ति, सीमा सुरक्षा तकनीक, साइबर सुरक्षा, स्टार्ट अप इंडिया, इन सभी क्षेत्रों में इज़रायल भारत की सहायता कर सकता है. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इज़रायल ही उन कुछ चुनिंदा देशों में से है जिसने भारत-पाकिस्तान युद्धों के समय हमारी मदद की है. ऐसे मित्र देश का भारत को हमेशा सम्मान करना चाहिए.
राहुल नये नये कांग्रेस के अध्यक्ष बने हैं, उनके कृत्यों में एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल के अध्यक्ष की गरिमा झलकनी चाहिए. भविष्य में राहुल गाँधी से यही उम्मीद होगी की वह नकारात्मक और तुष्टिकरण की राजनीति को छोड़, सकारात्मक राजनीति पर बल देगें.
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