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कानून की वो खामियां जिन्‍होंने पार्टी अध्‍यक्ष के चुनाव को मजाक बना दिया

    • कपिल शर्मा
    • Updated: 11 दिसम्बर, 2017 04:47 PM
  • 11 दिसम्बर, 2017 04:47 PM
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लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के प्रावधान किसी राजनैतिक दल का पंजीकरण समाप्त करने का अधिकार भारत निर्वाचन आयोग को नहीं देते हैं. बस यहीं से खेल शुरू होता है पार्टी के भीतर मनमानी का..

कई बार भारतीय मतदाताओं के दिमाग में ये सवाल जरुर आता होगा कि कई राजनैतिक दलों के अध्यक्ष पद पर एक ही व्यक्ति का निर्वाचन र्निविरोध सुनिश्चित होता है. फिर राजनैतिक दल में अध्यक्ष पद हेतु चुनाव क्यों कराया जाता है? असल में भारत में कई राजनैतिक दल अपने आंतरिक लोकतंत्र को लेकर उतने पारदर्शी नहीं हैं, जितना भारतीय लोकतांत्रिक भावना के तहत उन्हें होना चाहिए.

गौरतलब है कि भारत में चुनाव लड़ने के इच्छुक राजनैतिक दल को पंजीकृत होने के लिए लोक-प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 29क एवं राजनैतिक दलों के पंजीकरण आदेश 1992 के तहत पंजीकरण हेतु आवेदन देना होता है. इसमें उन्हें स्पष्ट उल्लेख करना होता है कि वे अपने दल के पदों के चुनाव हेतु अधिकतम पांच साल के भीतर स्वतंत्र, पारदर्शी, निष्पक्ष चुनाव करायेंगे. इसके अलावा कोई भी राजनैतिक दल अपने आंतरिक सांगठनिक प्रशासन के कुल पदों के एक तिहाई से ज्यादा में नामित करने की प्रक्रिया को नहीं अपनायेगा. लेकिन वास्तविकता इससे कोसों दूर है.

राजनीतिक पार्टियों के नियम दिखाने के कुछ और होते हैं

राजनैतिक दलों में चुनाव तो होते हैं, लेकिन अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महासचिव जैसे पद कई लोगों के लिए अघोषित तौर पर आरक्षित से कर दिये जाते हैं. यही नहीं आवेदन करने वाले राजनैतिक दल को पंजीकरण के लिए बनाए गये नियमों में इस बात का भी उल्लेख करना पड़ता है कि उसकी सदस्यता समाज के हर वर्ग, धर्म, जाति, क्षेत्र के वयस्क, भारतीय नागरिक के लिए पूर्ण लोकतांत्रिक तरीके से खुली हुई है और कोई भी इसका सदस्य बन सकता है. लेकिन व्यवहार में कई राजनैतिक दल जाति विशेष, धर्म अथवा भाषा विशेष के जनाधार वाले व्यक्तियों को ही प्राथमिकता देते हैं. भारत में कई राजनैतिक दल इसका उदाहरण हैं.

कई बार भारतीय मतदाताओं के दिमाग में ये सवाल जरुर आता होगा कि कई राजनैतिक दलों के अध्यक्ष पद पर एक ही व्यक्ति का निर्वाचन र्निविरोध सुनिश्चित होता है. फिर राजनैतिक दल में अध्यक्ष पद हेतु चुनाव क्यों कराया जाता है? असल में भारत में कई राजनैतिक दल अपने आंतरिक लोकतंत्र को लेकर उतने पारदर्शी नहीं हैं, जितना भारतीय लोकतांत्रिक भावना के तहत उन्हें होना चाहिए.

गौरतलब है कि भारत में चुनाव लड़ने के इच्छुक राजनैतिक दल को पंजीकृत होने के लिए लोक-प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 29क एवं राजनैतिक दलों के पंजीकरण आदेश 1992 के तहत पंजीकरण हेतु आवेदन देना होता है. इसमें उन्हें स्पष्ट उल्लेख करना होता है कि वे अपने दल के पदों के चुनाव हेतु अधिकतम पांच साल के भीतर स्वतंत्र, पारदर्शी, निष्पक्ष चुनाव करायेंगे. इसके अलावा कोई भी राजनैतिक दल अपने आंतरिक सांगठनिक प्रशासन के कुल पदों के एक तिहाई से ज्यादा में नामित करने की प्रक्रिया को नहीं अपनायेगा. लेकिन वास्तविकता इससे कोसों दूर है.

राजनीतिक पार्टियों के नियम दिखाने के कुछ और होते हैं

राजनैतिक दलों में चुनाव तो होते हैं, लेकिन अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महासचिव जैसे पद कई लोगों के लिए अघोषित तौर पर आरक्षित से कर दिये जाते हैं. यही नहीं आवेदन करने वाले राजनैतिक दल को पंजीकरण के लिए बनाए गये नियमों में इस बात का भी उल्लेख करना पड़ता है कि उसकी सदस्यता समाज के हर वर्ग, धर्म, जाति, क्षेत्र के वयस्क, भारतीय नागरिक के लिए पूर्ण लोकतांत्रिक तरीके से खुली हुई है और कोई भी इसका सदस्य बन सकता है. लेकिन व्यवहार में कई राजनैतिक दल जाति विशेष, धर्म अथवा भाषा विशेष के जनाधार वाले व्यक्तियों को ही प्राथमिकता देते हैं. भारत में कई राजनैतिक दल इसका उदाहरण हैं.

'वोट बैंक' प्रकोष्‍ठ !

ज्यादातर राजनैतिक दलों में जाति या वर्ग विशेष के नागरिकों को सदस्य बनाने के लिए अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ, क्षेत्रिय प्रकोष्ठ, अनुसूचित जाति एवं जनजाति प्रकोष्ठ, पिछड़ा प्रकोष्ठ, ब्राम्हण प्रकोष्ठ, दलित प्रकोष्ठ बनाये जाते हैं. देखा जाये तो पूर्ण लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाने वाले राजनैतिक दलों के लिए इस तरह के प्रकोष्ठ बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है. ये प्रक्रिया राजनैतिक दल की लोकतांत्रिक भावना का अतिक्रमण करती है. इसमें समाज के कई वर्ग संबंधित राजनैतिक दल में प्रकोष्ठ न बनाए जाने के कारण राजनैतिक सहभागिता से वंचित भी महसूस कर सकते है. ये इस बात का भी संकेत है कि संबंधित राजनैतिक दल कई अन्य वर्गों को अपना वोट बैंक नहीं मान रहे हैं और उन्हें उचित प्रतिनिधित्व नहीं देना चाहते हैं. इसलिए उनके प्रकोष्ठ गठित ही नहीं किये जा रहे हैं.

गौर करने लायक बात यह है कि ये प्रकोष्ठ ही चुनाव की घोषणा होने के बाद वर्ग, जाति अथवा धर्म के नाम पर वोट मांगने का आधार भी बनते हैं. साथ ही वोटरों को जाति और धर्म के नाम पर राजनैतिक दल के पक्ष में गोलबंद करते हैं. ऐसे में राजनैतिक दलों की यह प्रवृत्ति लोक-प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 123(3) का अतिक्रमण करती है. इसमें जाति, प्रजाति, धर्म, भाषा, समुदाय के नाम पर वोट मांगने को भ्रष्ट निर्वाचन व्यवहार मानती है. सर्वोच्च न्यायालय भी इस संबंध में दिशा-निर्देश जारी कर चुका है कि जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगने वाले उम्मीदवारों का निर्वाचन निरस्त एंव रद्द माना जायेगा.

निर्वाचन आयोग की सबसे चौंकाने वाली लाचारी

सवाल उठता है कि भारत निर्वाचन आयोग इन उल्लेखित मामलों में राजनैतिक दलों के खिलाफ उनका पंजीकरण समाप्त करने की कार्रवाई क्यों नहीं करता है? तो जानकारी बता दें कि लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के प्रावधान किसी पंजीकृत राजनैतिक दल का पंजीकरण समाप्त करने का प्राधिकार भारत निर्वाचन आयोग को नहीं देता है. ऐसे में भारत निर्वाचन आयोग राजनैतिक दलों के पंजीकरण समाप्त करने से संबंधित कार्रवाई, अनुशासनिक नियंत्रण के तौर पर नहीं कर सकता है.

इस संबंध में चुनाव सुधारों के मद्देनज़र भारत निर्वाचन आयोग ने संसद के सामने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम मे आवश्यक संशोधन करने की अपील रखी हुई है. कुछ ही दिनों पहले जाति एवं धर्म के नाम पर वोट मांगकर संवैधानिक उल्लंघन करने वाले राजनैतिक दलों के पंजीकरण को समाप्त करने के लिए एक जनहित याचिका मद्रास उच्च न्यायालय में लगायी गयी थी. इसकी अग्रेतर कार्रवाई में उच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार से पूछा था की वह स्पष्ट करे कि राजनैतिक दलों को पंजीकरण समाप्त करने का प्राधिकार किस संस्थान के पास है.

ऐसे में देखा जाये तो भारत में राजनैतिक दलों को दोतरफा कार्रवाई करने की आवश्यकता है. पहली- हर वर्ग, जाति, धर्म, समुदाय, भाषा समूह को प्रतिनिधित्व देकर भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने की. दूसरी- अपनी दलीय सांगठनिक व्यवस्था में आंतरिक लोकतंत्र को स्थापित करने की. देखने की बात यह है कि सत्ता की प्राप्ति में इस आदर्श की प्राप्ति राजनैतिक दलों के लिए क्या मायने रखती है. क्या प्राथमिकता रखती है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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