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राहुल गांधी अगर अखिलेश की तरह तेजस्वी का साथ दें तो ज्यादा फायदे में रहेंगे

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 17 अक्टूबर, 2020 10:33 PM
  • 17 अक्टूबर, 2020 10:33 PM
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राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को जैसे यूपी चुनाव 2017 में अखिलेश यादव का साथ पसंद था, बिहार चुनाव (Bihar Election 2020) में तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) की तकरीबन वही पोजीशन बनी हुई है. अगर राहुल गांधी वैसे ही खुल कर साथ साथ सामने आ जायें तो दोनों फायदे में रहेंगे.

महागठबंधन का मैनिफेस्टो जारी होते वक्त बस एक कमी महसूस हो रही थी - राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की गैरमौजूदगी. वैसे तो राहुल गांधी के प्रतिनिधि के रूप में रणदीप सिंह सुरजेवाला प्रेस कांफ्रेंस में पहुंचे थे, लेकिन मैनिफेस्टो पर राहुल गांधी की जो छाप देखने को मिली, उससे तो यही लगा कि उनको वहां खुद मौजूद रहना चाहिये था.

बेरोजगारी के मुद्दे से लेकर मनरेगा और कृषि बिलों के सख्त विरोधी तेवर के साथ साथ किसान कर्जमाफी तक तो बीते कई बरस से राहुल गांधी के पसंदीदा मुद्दे रहे हैं - और ये सब के सब महागठबंधन के संकल्प पत्र का हिस्सा बन चुके हैं.

सवाल ये है कि जब सब कुछ राहुल गांधी और तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) के मनमाफिक महागठबंधन में हो रहा है तो प्रेस कांफ्रेंस में भी दोनों ने अगल-बगल बैठने का फैसला क्यों नहीं किया?

क्या इसलिए क्योंकि राहुल गांधी राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं और तेजस्वी यादव क्षेत्रीय पार्टी के? 2017 में तो ये दीवार आड़े नहीं आयी थी - अखिलेश यादव और राहुल गांधी दोनों ही हर महत्वपूर्ण मौके पर साथ साथ नजर आते थे. फिर क्या राहुल गांधी यूपी चुनाव में गठबंधन के बुरे अनुभव के चलते परहेज करने लगे हैं?

बिहार चुनाव (Bihar Election 2020) में जिस तरीके से तेजस्वी यादव छुपे रुस्तम की तरह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को छकाने लगे हैं, अगर राहुल गांधी, तेजस्वी के साथ वैसे ही खड़े हो जायें जैसे तीन साल पहले अखिलेश यादव के साथ डटे हुए थे - मुमकिन है दोनों का भला हो जाये.

राहुल और तेजस्वी एक ही मोड़ पर खड़े हैं

राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की उम्र, कद और राजनीतिक अनुभव में भले ही काफी फासला हो, लेकिन दोनों की पृष्ठभूमि और पहचान एक जैसी ही है. दोनों ही परिवारवाद की विरासत की राजनीति में स्थापित होने की कोशिश कर रहे हैं और दोनों की ही अपनी अपनी मंजिले हैं जिनमें कोई टकराव भी नहीं है - तेजस्वी यादव को बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना है और राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनना है.

हाल फिलहाल दोनों के...

महागठबंधन का मैनिफेस्टो जारी होते वक्त बस एक कमी महसूस हो रही थी - राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की गैरमौजूदगी. वैसे तो राहुल गांधी के प्रतिनिधि के रूप में रणदीप सिंह सुरजेवाला प्रेस कांफ्रेंस में पहुंचे थे, लेकिन मैनिफेस्टो पर राहुल गांधी की जो छाप देखने को मिली, उससे तो यही लगा कि उनको वहां खुद मौजूद रहना चाहिये था.

बेरोजगारी के मुद्दे से लेकर मनरेगा और कृषि बिलों के सख्त विरोधी तेवर के साथ साथ किसान कर्जमाफी तक तो बीते कई बरस से राहुल गांधी के पसंदीदा मुद्दे रहे हैं - और ये सब के सब महागठबंधन के संकल्प पत्र का हिस्सा बन चुके हैं.

सवाल ये है कि जब सब कुछ राहुल गांधी और तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) के मनमाफिक महागठबंधन में हो रहा है तो प्रेस कांफ्रेंस में भी दोनों ने अगल-बगल बैठने का फैसला क्यों नहीं किया?

क्या इसलिए क्योंकि राहुल गांधी राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं और तेजस्वी यादव क्षेत्रीय पार्टी के? 2017 में तो ये दीवार आड़े नहीं आयी थी - अखिलेश यादव और राहुल गांधी दोनों ही हर महत्वपूर्ण मौके पर साथ साथ नजर आते थे. फिर क्या राहुल गांधी यूपी चुनाव में गठबंधन के बुरे अनुभव के चलते परहेज करने लगे हैं?

बिहार चुनाव (Bihar Election 2020) में जिस तरीके से तेजस्वी यादव छुपे रुस्तम की तरह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को छकाने लगे हैं, अगर राहुल गांधी, तेजस्वी के साथ वैसे ही खड़े हो जायें जैसे तीन साल पहले अखिलेश यादव के साथ डटे हुए थे - मुमकिन है दोनों का भला हो जाये.

राहुल और तेजस्वी एक ही मोड़ पर खड़े हैं

राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की उम्र, कद और राजनीतिक अनुभव में भले ही काफी फासला हो, लेकिन दोनों की पृष्ठभूमि और पहचान एक जैसी ही है. दोनों ही परिवारवाद की विरासत की राजनीति में स्थापित होने की कोशिश कर रहे हैं और दोनों की ही अपनी अपनी मंजिले हैं जिनमें कोई टकराव भी नहीं है - तेजस्वी यादव को बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना है और राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनना है.

हाल फिलहाल दोनों के ट्रैक रिकॉर्ड की तुलना करें तो वो भी एक जैसा ही लगता है - राहुल गांधी और तेजस्वी यादव दोनों ही 2019 के आम चुनाव में अपने अपने हिसाब से पूरी तरह फेल रहे. फर्क ये है कि राहुल गांधी ने फेल होकर कांग्रेस के अध्यक्ष पद की कुर्सी छोड़ दी, लेकिन तेजस्वी यादव पार्टी के नेता बने रहे और अब तो चुनाव मैदान में महागठबंधन के भी नेता हैं. बिहार चुनाव राहुल गांधी के लिए भले ही एक पड़ाव हो, लेकिन तेजस्वी यादव के लिए तो वो मंजिल ही है.

लेकिन राहुल गांधी के पास ये बेहतरीन मौका है कि वो बिहार चुनाव को एक महत्वपूर्ण पड़ाव बना सकते हैं. अगर वो तेजस्वी यादव के साथ वैसे ही मिल कर चुनाव लड़ें जैसे 2017 में उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़े थे तो बेहतर नतीजों की उम्मीद भी कर सकते हैं. अगर बिहार चुनाव में महागठबंधन के पक्ष में जरा भी बेहतर नतीजे आते हैं तो तेजस्वी यादव के लिए तो राहत की बात होगी ही, राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस कार्यकर्ताओं का जोश भी बढ़ेगा.

ऐसा खबरें आ रही हैं कि राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में 2021 में वापसी कर सकते हैं. ऐसी खबरों का आधार कांग्रेस में बनायी गयी चुनाव समितियों की तेज गतिविधियां और बैठकें मानी जा रही हैं. ऐसे कयास हैं कि 2021 में होने वाले विधानसभा चुनावों तक राहुल गांधी कांग्रेस का औपचारिक तौर पर नेतृत्व संभाल सकते हैं.

राहुल गांधी और तेजस्वी यादव बेहतर कर सकते हैं लेकिन खुल कर आगे आना होगा

अगर वाकई ये स्थिति बन रही है, फिर तो राहुल गांधी के लिए बिहार चुनाव भी 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव की तरह काफी अहम हो सकता है. गुजरात में कांग्रेस की सरकार तो नहीं बन सकी, लेकिन विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने सत्ताधारी बीजेपी को 100 का आंकड़ा छूने से रोक ही दिया था. गुजरात चुनाव खत्म होने के बाद ही राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठे थे. गुजरात के अगले ही साल राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने तीन राज्यों में बीजेपी को सत्ता से बेदखल करते हुए राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सरकार बना ली थी.

बिहार चुनाव भी राहुल गांधी के लिए गुजरात के मैदान जैसा हो सकता है. बिहार में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह चुनाव में नीतीश कुमार को आगे कर मैदान में डटे हुए हैं - अगर राहुल गांधी, तेजस्वी यादव के साथ मिलकर एनडीए को बिहार की सत्ता से बेदखल करने में सफल नहीं हो पायें, लेकिन सीटों की संख्या गुजरात जैसी ही कर दें तो भी आगे उसका भरपूर फायदा मिल सकता है. 2021 में जिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं उनमें राहुल गांधी का फेवरेट राज्य केरल भी है, जहां से फिलहाल वो लोक सभा सांसद हैं.

राहुल, तेजस्वी के साथ एक और एक 11 बन सकते हैं

महागठबंधन से उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी आरजेडी का साथ छोड़ चुके थे और कांग्रेस ने भी कह रखा था कि सम्मानजनक सीटें न मिलने पर वो अकेले चुनाव मैदान में उतर जाएगी. देखा जाये तो कांग्रेस की भी बिहार में राजनीतिक स्थिति अपने बूते कोई उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी से बहुत ज्यादा बेहतर नहीं हैं, लेकिन राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर उसकी एक ब्रांड वैल्यू है. तेजस्वी यादव के किसी की भी परवाह न करने और कांग्रेस को साथ बनाये रखने के पीछे सबसे बड़ी वजह भी यही रही.

आरजेडी और कांग्रेस के बीच कई दौर की बातचीत हो चुकी थी, लेकिन मामला फाइनल तभी हुआ जब दिल्ली में तेजस्वी यादव और राहुल गांधी साथ बैठे. जिस दिन तेजस्वी यादव का दिल्ली का कार्यक्रम बना उस दिन उनका रांची जाना पहले से तय था, लेकिन लालू यादव से मुलाकात रद्द कर वो राहुल से मिलने पहुंचे थे.

जिस तरह से आरजेडी और कांग्रेस के बीच सीटों का बंटवारा हुआ, यही समझ आया कि दोनों फायदे में रहे. कांग्रेस को तो सम्मानजनक सीटों से मतलब था. कांग्रेस की 75 सीटों की डिमांड थी और आरजेडी ने 70 पर मना लिया, लेकिन उसके एवज में कांग्रेस नेतृत्व से उस चीज पर मुहर लगवा ली जिसकी आरजेडी को सबसे ज्यादा जरूरत रही - तेजस्वी यादव को महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार मान लेना. बाद में सीटों के बंटवारे की प्रेस कांफ्रेंस में कांग्रेस के बिहार प्रभारी अविनाश पांडे ने घोषणा की कि तेजस्वी यादव महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे. लालू यादव ने तेजस्वी को अपना वारिस घोषित तो कर ही रखा था, लेकिन एक राजनीतिक मान्यता की दरकार बनी हुई थी. कांग्रेस और आरजेडी ने एक दूसरे की बातें मान कर दोनों को फायदे में पहुंचा दिया.

अब अगर राहुल गांधी बिहार में चुनाव प्रचार भी करते हैं तो ऐसा भी नहीं कि अलग से भाषण तैयार करना पड़ेगा. चुनाव कहीं का भी हो, निशाने पर तो उनके प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह ही होंगे. बिहार में कभी कभी नीतीश कुमार का नाम जोड़ना पड़ेगा. मैनिफेस्टो में जिस तरह के मुद्दे शामिल किये गये हैं वे ऐसे ही हैं कि राहुल गांधी अगर सामान्य दिनों के बयानों की बातें भी भाषणों में कर दें तो वो चुनाव प्रचार ही होगा.

आखिर सामान्य दिनों में भी तो राहुल गांधी बेरोजगारी, मनरेगा और किसानों की ही बातें तो करते रहते हैं, बिहार चुनाव में भाषण का वही टेप भी चला दें तो लगेगा मैनिफेस्टो के मुद्दे उठा रहे हैं. राहुल गांधी के ऐसा करने से कांग्रेस का फायदा तो होगा ही, अपनेआप आरजेडी और तेजस्वी यादव को भी फायदा मिलेगा.

राहुल गांधी चाहें तो किसी साथी से विचार विमर्श भी कर सकते हैं. तेजस्वी यादव इस वक्त तब के अखिलेश यादव से बेहतर पोजीशन में हैं. तब अखिलेश यादव घर और पार्टी के झगड़े में ही सारी ऊर्जा गंवा बैठे थे और चुनावों में उसका भी नुकसान हुआ. अखिलेश यादव के सामने सत्ता विरोधी लहर बड़ा चैलेंज था, तेजस्वी यादव को नीतीश कुमार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का फायदा मिल सकता है और राहुल गांधी थोड़ा सक्रिय हो जायें तो दोनों बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं.

अगर राहुल गांधी बिहार चुनाव में तेजस्वी यादव के साथ मिलकर कोई करिश्मा दिखा दें तो उनका भविष्य तो उज्ज्वल हो ही जाएगा, तेजस्वी के रूप में कांग्रेस से बाहर उनको एक मजबूत साथी भी मिल जाएगा - ठीक वैसे ही जैसे सोनिया गांधी के साथ लालू यादव हर मुश्किल दौर में डटे रहे.

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तेजस्वी यादव तो छुपा रुस्तम बन कर नीतीश कुमार को छकाने भी लगे हैं!


इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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