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प्रशांत किशोर आज 'गांधी' के साथ हैं तो 2014 में किसके साथ थे?

    • राठौर विचित्रमणि सिंह
    • Updated: 19 फरवरी, 2020 08:48 PM
  • 19 फरवरी, 2020 08:48 PM
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जेडीयू और बीजेपी के गठबंधन पर प्रशांत किशोर सवाल खड़ा करते हैं कि गांधी और गोडसे साथ-साथ कैसे हो सकते हैं? लेकिन वो यह नहीं साफ करते कि 2014 में उन्‍होंने 'गोडसे' वाली पार्टी के लिए कैंपेन मैनेजमेंट क्‍यों किया था.

महात्मा गांधी हर मुर्दे में जान फूंक देने वाली संजीवनी हैं. हर राजनीति के केंद्र में वह आ ही जाते हैं. इसीलिए जब नीतीश कुमार के खासमखास से खुन्नस खाए विरोधी के रूप में चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर मीडिया से रूबरू हुए तो बैकड्रॉप में महात्मा गांधी की तस्वीर थी. साथ ही उनका कोई उद्धरण भी जिसको मैं उद्धृत इसलिए नहीं कर पा रहा हूं कि प्रेस कॉन्फ्रेंस के पूरे फ्रेम में वह उद्धरण पूरी तरह दिखा ही नहीं. अब गांधी का कहा कुछ है तो उसमें आदर्शों और मूल्यों की ही बात होगी. खुद प्रशांत किशोर ने भी कह दिया कि गांधी और गोडसे साथ नहीं चल सकते.

बस यहीं फंस गए प्रशांत और इसी बात से बात साफ हो गई कि जेडीयू से निकाले गए प्रशांत को राजनीतिक मौत से बचने के लिए गांधी की जरूरत बस एक संजीवनी के लिए है. अगर नीतीश कुमार बीजेपी के सामिप्य में गोडसे वाले हो गए तो प्रशांत किशोर अपने उस गौरव भान को किस कतार में रखेंगे कि 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वही चुनावी रणनीतिकार थे? प्रशांत कुमार के पास इस सवाल का भी क्या जवाब है कि 2017 के जुलाई में जब नीतीश कुमार ने लालू का साथ छोड़कर मोदी-शाह की उंगली पकड़ ली थी तो फिर उसी पार्टी में वह ढाई साल तक कैसे गांधी और गोडसे में संतुलन बिठाते रहे? कैसे उस जेडीयू में उपाध्यक्ष की गद्दी पर उनको गोडसे नाम के कांटे नहीं चुभे जहां से वे जेडीयू के पुराने नेताओं की आंखों में चुभने लगे थे और उनकी छवि नीतीश की पार्टी में नंबर 2 की बनने लगी थी? कितना बदल जाता है इंसान सत्ता के साए में रहते हुए और सत्ता से पराए होते हुए!

जेडीयू से निकाले गए प्रशांत किशोर को राजनीतिक फलक पर वापसी के लिए गांधी नाम की संजीवनी चाहिए थी, जिसका उन्‍होंने इस्‍तेमाल कर लिया.

गांधी के आदर्शों की गंगोत्री कथनी और करनी की...

महात्मा गांधी हर मुर्दे में जान फूंक देने वाली संजीवनी हैं. हर राजनीति के केंद्र में वह आ ही जाते हैं. इसीलिए जब नीतीश कुमार के खासमखास से खुन्नस खाए विरोधी के रूप में चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर मीडिया से रूबरू हुए तो बैकड्रॉप में महात्मा गांधी की तस्वीर थी. साथ ही उनका कोई उद्धरण भी जिसको मैं उद्धृत इसलिए नहीं कर पा रहा हूं कि प्रेस कॉन्फ्रेंस के पूरे फ्रेम में वह उद्धरण पूरी तरह दिखा ही नहीं. अब गांधी का कहा कुछ है तो उसमें आदर्शों और मूल्यों की ही बात होगी. खुद प्रशांत किशोर ने भी कह दिया कि गांधी और गोडसे साथ नहीं चल सकते.

बस यहीं फंस गए प्रशांत और इसी बात से बात साफ हो गई कि जेडीयू से निकाले गए प्रशांत को राजनीतिक मौत से बचने के लिए गांधी की जरूरत बस एक संजीवनी के लिए है. अगर नीतीश कुमार बीजेपी के सामिप्य में गोडसे वाले हो गए तो प्रशांत किशोर अपने उस गौरव भान को किस कतार में रखेंगे कि 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वही चुनावी रणनीतिकार थे? प्रशांत कुमार के पास इस सवाल का भी क्या जवाब है कि 2017 के जुलाई में जब नीतीश कुमार ने लालू का साथ छोड़कर मोदी-शाह की उंगली पकड़ ली थी तो फिर उसी पार्टी में वह ढाई साल तक कैसे गांधी और गोडसे में संतुलन बिठाते रहे? कैसे उस जेडीयू में उपाध्यक्ष की गद्दी पर उनको गोडसे नाम के कांटे नहीं चुभे जहां से वे जेडीयू के पुराने नेताओं की आंखों में चुभने लगे थे और उनकी छवि नीतीश की पार्टी में नंबर 2 की बनने लगी थी? कितना बदल जाता है इंसान सत्ता के साए में रहते हुए और सत्ता से पराए होते हुए!

जेडीयू से निकाले गए प्रशांत किशोर को राजनीतिक फलक पर वापसी के लिए गांधी नाम की संजीवनी चाहिए थी, जिसका उन्‍होंने इस्‍तेमाल कर लिया.

गांधी के आदर्शों की गंगोत्री कथनी और करनी की एका से निकलती है. नीतीश कुमार से मोह भंग के बाद प्रशांत किशोर को अगर बिहार सरकार की नाकामियां दिखती हैं तो इस बात में सच्चाई के बावजूद प्रशांत सही नहीं हो सकते. आप याद कीजिए कि जेडीयू में नंबर 2 रहते हुए क्या कभी प्रशांत ने बिहार सरकार की नीतियों पर एक बार भी सवाल उठाया? विरोध का स्वर तब उठा जब उनके लिए पार्टी में संभावनाओं की गली बंद होती दिखी. ऐसे में अब उठने वाली बात बिहार की बस एक फिल्मी गीत का मुखड़ा याद दिलाती है कि कसमे वादे प्यार वफा सब बाते हैं बातों का क्या!

प्रशांत किशोर आदर्शों की तपोभूमि पर विकास की जिस परिकल्पना को पेश करते हैं, वह कहने-सुनने में बहुत अच्छी लगती है. लेकिन उसको जमीन पर उतारने के लिए क्या करना है, यह साफ नहीं दिखता.

प्रशांत किशोर और केजरीवाल की राजनीति में क्‍या कोई समानता है?

प्रशांत की बातें अन्ना आंदोलन से उभरे अरविंद केजरीवाल की याद दिलाती है जिन्होंने मौजूदा राजनीति से तंग आ चुके लोगों के लिए नई आशा पेश की थी. लेकिन केजरीवाल और प्रशांत में फर्क यह है कि केजरीवाल एक ताजा और बिल्कुल नई अवधारणा के रूप में आए थे जबकि चुनावी रणनीतिकार के रूप में प्रशांत ने अपनी ऐसी छवि बनाई है कि पैसा दो और चुनाव जीतने का फॉर्मूला ले लो. इसमें वे बीजेपी के लिए भी काम कर चुके हैं, कांग्रेस के लिए भी, आम आदमी पार्टी के लिए भी और नीतीश की पार्टी में तो बड़े ओहदे की शोभा बढ़ा चुके हैं.

दिल्‍ली और बिहार का सियासी फर्क...

प्रशांत बिहार के रहने वाले हैं, इसलिए राजनीति की नई संभावनाओं का दरवाजा उन्होंने बिहार में ही खोलना चाहा है. लेकिन आज की हस्तिनापुर और पाटलिपुत्र की राजनीति में बहुत दूरियां हैं. दिल्ली एक महानगर है जहां विविधताओं का समावेश है, जहां बदलाव की नई धारा बहती है और जाति-धर्म का चुनावों पर वैसा असर नहीं होता, जैसा दूसरे राज्यों में देखने को मिलता है. लेकिन बिहार में राजनीति पर चढ़ी जाति-धर्म की जड़ता को तोड़ना आसान नहीं है. ऐसा नहीं है कि बिहार ऐसी संभावनाओं को देखता नहीं लेकिन इसके लिए सीजर की पत्नी को ईमानदार होना ही नहीं चाहिए, दिखना भी चाहिए. प्रशांत किशोर ऐसी छवि पेश नहीं करते.

विधानसभा चुनाव से 9 महीने पहले बिहार की शांत राजनीति के तालाब में प्रशांत किशोर ने उम्मीदों का एक कंकड़ उछाला है. अभी वह साफ नहीं कर रहे हैं कि बिहार में बदलाव की राजनीति कैसे करेंगे? वह एक करोड़ युवाओं को जोड़ने के बाद पार्टी बनाने के बारे में सोचेंगे. पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के रथ के नीचे कुचलकर एक गिलहरी की मौत हो गई. महाराज ने अपने सलाहकारों से पूछा कि गिलहरी क्यों मरी. सबने अपने हिसाब से जवाब दिया लेकिन सही जवाब खुद रणजीत सिंह ने ही दिया. उन्होंने कहा कि गिलहरी इसलिए मरी कि वह दो कदम आगे जाती थी, फिर एक कदम पीछे. वह तय ही नहीं कर पा रही थी कि सड़क के इस छोर रहे कि उस छोर जाए. राजनीति की किस सड़क पर प्रशांत को चलना है, इसमें गोपनीयता उनकी रणनीति हो सकती है लेकिन अगर-मगर के बीच की राजनीति भी हमेशा गिलहरी की मौत मरती है. और हां, जब बैकड्रॉप में गांधी हों तो गांधी से सीखना चाहिए कि आदर्शों और लोक कल्याण की राजनीति गोपनीयता के दायरे में नहीं होती. गांधी सिर्फ दिखाने के लिए नहीं होते, जैसा कि खुद को महामानव और महानायक समझने वाले नेता दिखा रहे हैं.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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