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पठानकोट हमलाः भारत-पाकिस्तान शांति प्रक्रिया में हम क्या बचाने की कोशिश कर रहे हैं?

    • शिव अरूर
    • Updated: 06 जनवरी, 2016 06:43 PM
  • 06 जनवरी, 2016 06:43 PM
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भारत-पाकिस्तान के रिश्तों का दायरा ही हमारी समस्या है. एक छोर पर खून के बदले खून की दरकार है तो दूसरे छोर पर लाहौर जैसी आत्मीयता या फिर रिश्तों में मैन्युफैक्चर्ड गरमाहट, आखिर इसका समाधान क्या है?

भारतीय धरती पर होने वाले किसी भी पाक प्रायोजित आतंकवाद को लेकर दो तरह की प्रतिक्रियाओं का आना तय होता है.

पहली तेज और ज्यादा तीव्र होती हैः इसमें युद्ध की मांग होती है, 'अब बहुत हो गया' और 'पाकिस्तान को सबक सिखाने का वक्त आ गया है', भारतीयों का खून बहाने के लिए दुनिया के सामने पाक को खामोश करने की मांग.

दूसरी प्रतिक्रिया थोड़ी धीमी होती है- इसमें आसानी से भावनाओं के आवेश में बहने की बजाय बुद्धिमानी, कारण और परिपक्वता की बात शामिल होती है. इसमें इस बात को लेकर चिंता होती है कि क्या इस आतंकी हमले से शांति प्रयासों की कोशिशों को झटका लगेगा. जैसे कि भारत-पाकिस्तान के मामले में होता है. क्या भारतीय सरकार में इस तरह के हमले को झेलने और उसे सार्थक बातचीत की प्रक्रिया से अलग रखने की दृ्ढता है. आप माथे पर चिंता की लकीरें लिए लोगों को पूछते हुए सुनेंगे, क्या हम आतंकियों के हाथों का खिलौना बन जाएंगे.

यह भी पढ़ें: इतना तो कर ही सकते थे गुरदासपुर एसपी सलविंदर सिंह...

मैं दूसरे विचार के संदर्भ में कुछ बातें कहना चाहूंगा. कड़ी मेहनत से किए गए शांति प्रयासों की दिशा में उठाए गए कदमों पर आतंकी हमले का असर पड़ने की चिंता बुद्धिमानीपूर्ण लगती है क्योंकि वे खुले तौर पर हिंसा, प्रतिशोध और दोनों देशों के उतार-चढ़ाव भरे रिश्ते को झटका देने का समर्थन नहीं करते हैं.

इसका दूसरा फायदा- यह है कि यह एक अच्छी तरह से परिभाषित, बुलंद, आदर्श शांति की बात करता है. जबकि युद्ध का परिणाम कभी न खत्म होने वाली विभीषिका के रूप में सामने आता है-'इसलिए हम पाकिस्तान पर हमला करेंगे. और तब?'

ऐसे माहौल में जहां ज्यादातर लोग खून की मांग करने वाले हों, ऐसे में शांति प्रयासों की हर कीमत पर रक्षा करने के लिए सोचा-समझा कदम उठाने की मांग सबसे सही है. जैसा कि आपको पहले ही...

भारतीय धरती पर होने वाले किसी भी पाक प्रायोजित आतंकवाद को लेकर दो तरह की प्रतिक्रियाओं का आना तय होता है.

पहली तेज और ज्यादा तीव्र होती हैः इसमें युद्ध की मांग होती है, 'अब बहुत हो गया' और 'पाकिस्तान को सबक सिखाने का वक्त आ गया है', भारतीयों का खून बहाने के लिए दुनिया के सामने पाक को खामोश करने की मांग.

दूसरी प्रतिक्रिया थोड़ी धीमी होती है- इसमें आसानी से भावनाओं के आवेश में बहने की बजाय बुद्धिमानी, कारण और परिपक्वता की बात शामिल होती है. इसमें इस बात को लेकर चिंता होती है कि क्या इस आतंकी हमले से शांति प्रयासों की कोशिशों को झटका लगेगा. जैसे कि भारत-पाकिस्तान के मामले में होता है. क्या भारतीय सरकार में इस तरह के हमले को झेलने और उसे सार्थक बातचीत की प्रक्रिया से अलग रखने की दृ्ढता है. आप माथे पर चिंता की लकीरें लिए लोगों को पूछते हुए सुनेंगे, क्या हम आतंकियों के हाथों का खिलौना बन जाएंगे.

यह भी पढ़ें: इतना तो कर ही सकते थे गुरदासपुर एसपी सलविंदर सिंह...

मैं दूसरे विचार के संदर्भ में कुछ बातें कहना चाहूंगा. कड़ी मेहनत से किए गए शांति प्रयासों की दिशा में उठाए गए कदमों पर आतंकी हमले का असर पड़ने की चिंता बुद्धिमानीपूर्ण लगती है क्योंकि वे खुले तौर पर हिंसा, प्रतिशोध और दोनों देशों के उतार-चढ़ाव भरे रिश्ते को झटका देने का समर्थन नहीं करते हैं.

इसका दूसरा फायदा- यह है कि यह एक अच्छी तरह से परिभाषित, बुलंद, आदर्श शांति की बात करता है. जबकि युद्ध का परिणाम कभी न खत्म होने वाली विभीषिका के रूप में सामने आता है-'इसलिए हम पाकिस्तान पर हमला करेंगे. और तब?'

ऐसे माहौल में जहां ज्यादातर लोग खून की मांग करने वाले हों, ऐसे में शांति प्रयासों की हर कीमत पर रक्षा करने के लिए सोचा-समझा कदम उठाने की मांग सबसे सही है. जैसा कि आपको पहले ही पता है कि समस्या ये है कि पाकिस्तान के शांति प्रयास दरअसल बिल्कुल भी शांति प्रयासों की तरह नहीं हैं. लाहौर में मोदी-नवाज के हाथ मिलाने या इस्लामाबाद में सुषमा-सरताज के लंच की मिलनसारिता का यह सोचकर बचाव करने की कोशिश करना कि इन बैठकों में दोनों देशों के संबंधों को बदलने का माद्दा है. जबकि इन दोनों ही बैठकों में इतना दम नहीं है.

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इन सवालों पर विचार जरूरीः

हम किस शांति प्रक्रिया की रक्षा करने की बात कर रहे हैं अगर हम जिनके बारे में बात कर रहे हैं उनके पास कोई महत्वपूर्ण शक्ति ही नहीं है? हम पाकिस्तान को किस तरह 'मुंह तोड़ जवाब' देने की बात कर रहे हैं अगर हम अब भी उनके साथ जुड़े रहने में खुश हैं, फिर भले ही ये संबंध पाकिस्तान के असली शक्ति केंद्रों के ढांचे से कितने कमजोर ढंग से जुड़ा हुआ ही क्यों न हो.

क्या शांति प्रयासों को जान-माल और संपत्ति के भारी नुकसान की कीमत चुकाकर भी जारी रखना चाहिए? क्या जो लोग भारत-पाकिस्तान के बीच शांति वार्ता को हर कीमत पर जारी रखना चाहते हैं वे आतंकवाद के उस वास्तविक कीमत को भी जोड़ेंगे जिसे पाकिस्तान से वसूलना भारत के अधिकार क्षेत्र में है?

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क्या जो लोग भारत-पाकिस्तान शांति वार्ता की प्रक्रिया को अछूत मानते हैं वे वास्तव में यह भी मानते हैं कि भारत एक बड़े दिल वाला उदार देश है. या फिर वे इसकी संभावना भी देखते हैं कि इसे भारत के आत्मविश्वास में कमी के तौर पर भी देखा जाएगा. लगातार हो रहे आतंकी हमले तो इस दूसरी बात की ओर इशारा कर रहे हैं.

लिहाजा ऐसे में हम किस शांति वार्ता को बचाने की कोशिश कर रहे हैं. क्या इस वार्ता में ऐसा कुछ है जिसे बचाने की जरूरत है. अगर हम किसी ऐसे व्यक्ति से बात नहीं कर रहे हैं जिसके पास आपसी शांति पर फैसला लेने की क्षमता है तो हम क्यों अपनी राजनयिक उर्जा का ह्रास कर रहे हैं. मझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि पाकिस्तान के संदर्भ में भारत को दुनिया के सामने कुछ भी साबित करने की जरूरत है. यहां उसे यह साबित करने कि जरूरत कतई नहीं है कि भारत-पाकिस्तान रिश्ते में वह ऊंचे पायदान पर है.

या फिर समय आ चुका है कि हमें पाकिस्तान को पूरी तरह से दरकिनार करने की जरूरत है. यह फैसला हमें पूरी दृढ़ता के साथ करने की जरूरत है जिससे हम यह साबित कर सकें भारत किसी के हाथ का खिलौना नहीं है. ऐसे हमलों की एक कीमत तय होनी चाहिए- जिसमें आर्थिक, राजनीतिक, राजनयिक या अन्य पहलू शामिल हों- जिससे अगली बार पाकिस्तान इस तरह के किसी आतंकी हमले को अंजाम देने से पहले कई बार सोचने पर मजबूर हो. या फिर अब समय आ चुका है कि हमें दोस्ती का हाथ बढ़ाने और गले मिलने के साथ-साथ पाकिस्तान को उसकी गलती पर कड़ी सजा देने से गुरेज नहीं करना चाहिए. हमें पाकिस्तान से लगातार मिलने और उसे सत्कार भी देने की जरूरत है. जब हमारी वार्ता कैमरे के सामने हो तो हमें मुस्कुराने की जरूरत है और जब हम बंद कमरे में हों या फिर सरहद पर तो हमें मुंह तोड़ जवाब देने से भी नहीं कतराना होगा. अब पाकिस्तान के लिए ऐसी क्या सजा होनी चाहिए और वह सजा उसे कैसे दी जा सकती है. इस सवाल का जवाब हमें काफी गंभीरता के साथ सोचने की जरूरत है.

यह भी पढ़ें: इतिहास साक्षी है...पाकिस्तान न सुधरा है न सुधरेगा

भारत-पाकिस्तान के रिश्तों का दायरा ही हमारी समस्या है. एक छोर पर खून के बदले खून की दरकार है तो दूसरे छोर पर लाहौर जैसी आत्मीयता या फिर रिश्तों में मैन्युफैक्चर्ड गरमाहट. अब विदेशी मामलों के जानकार हों या फिर पत्रकार, उनका मानना है कि शांति वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है कि हम हर तरह कि स्थितियों के लिए तैयार रहें क्योंकि मैन्युफैक्चर्ड गरमाहट और सीरियल धमाकें अगर हमें शांति कि दिशा में एक कदम आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं.

लिहाजा दोनों देशों के बीच जारी शांति वार्ता को रोकना इस बात को नकार देगा कि भारत के पास पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध के अलावा और कोई विकल्प नहीं है...खून के बदले खून की नीति खतरनाक होने के अलावा टिकाऊ भी नहीं है. इस स्थिति में यह ऐसा जवाब नहीं जिसकी कोई कामना करे या फिर समर्थन. लेकिन इस स्थिति में राजनयिक शिष्टाचार में महज कैमरे के लिए गले मिलने का भी कोई फायदा नहीं होगा.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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