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पाकिस्तान अब फिर दो राहे पर

    • अरुण पुरी
    • Updated: 04 अगस्त, 2017 08:29 PM
  • 04 अगस्त, 2017 08:29 PM
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पाकिस्तान में भ्रष्‍टाचार के आरोपों के कारण प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को सत्‍ता से बेदखल कर दिया गया है. उसके बाद उपजी स्थिति को लेकर इंडिया टुडे के पत्रिका के एडिटर-इन-चीफ अरुण पुरी का यह विशेष लेख...

ठीक उस वक्त जब आप सोचते हैं कि पाकिस्तान के लिए इससे बुरा नहीं हो सकता, यह मुल्क आपको चकित कर देता है. ट्रंप प्रशासन पाकिस्तान को पहले ही आगाह कर चुका था कि जब तक वह दहशतगर्दी के खिलाफ कार्रवाई नहीं करता तब तक सामान्य कामकाज नहीं हो सकता. भारत के साथ उसके रिश्ते रसातल में पहुंच गए हैं और कथित भारतीय जासूस कुलभूषण जाधव के मामले में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का फैसला उसके खिलाफ गया. उसकी अर्थव्यवस्था जर्जर है, स्थानीय दहशतगर्द फल-फूल रहे हैं और अब एक न्यायिक तख्तापलट में उसके लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए प्रधानमंत्री को पद से हटा दिया गया है.

लेकिन पाकिस्तान में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. 1947 से पाकिस्तान में 18 प्रधानमंत्री हो चुके हैं और उनमें से कोई भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका. 1958 से 1971 के दौरान प्रधानमंत्री का दफ्तर तक खत्म कर दिया गया था और ऐसा आखिरी बार नहीं हुआ. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री तरह-तरह की नियतियों के शिकार हुए– हत्या, फौज के हाथों तख्तापलट, राष्ट्रपति के हाथों बर्खास्तगी और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के हाथों अयोग्य ठहराया जाना.

पाकिस्तान में पीएम होना पाप है

इसके उलट हिंदुस्तान में इसी दौरान 14 प्रधानमंत्री हुए और अगर उनके कार्यकालों में कटौती हुई भी, तो संसदीय चुनावों में हार की वजह से. प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को उनके ओहदे से हटा दिया गया है. इस बार यह काम देश की सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की एक पीठ ने किया है, जिसने उनकी चुनावी सियासत पर कम से कम पांच साल के लिए पाबंदी लगा दिया है. अब उन्हें पद पर रहते हुए तीन बार हटाए जाने का संदिग्ध गौरव हासिल है– एक बार राष्ट्रपति के हाथों, फिर फौज के हाथों और अब सुप्रीम कोर्ट के हाथों.

वजह? संविधान के अनुच्छेद 62 और 63 का उल्लंघन, जो संसद के...

ठीक उस वक्त जब आप सोचते हैं कि पाकिस्तान के लिए इससे बुरा नहीं हो सकता, यह मुल्क आपको चकित कर देता है. ट्रंप प्रशासन पाकिस्तान को पहले ही आगाह कर चुका था कि जब तक वह दहशतगर्दी के खिलाफ कार्रवाई नहीं करता तब तक सामान्य कामकाज नहीं हो सकता. भारत के साथ उसके रिश्ते रसातल में पहुंच गए हैं और कथित भारतीय जासूस कुलभूषण जाधव के मामले में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का फैसला उसके खिलाफ गया. उसकी अर्थव्यवस्था जर्जर है, स्थानीय दहशतगर्द फल-फूल रहे हैं और अब एक न्यायिक तख्तापलट में उसके लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए प्रधानमंत्री को पद से हटा दिया गया है.

लेकिन पाकिस्तान में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. 1947 से पाकिस्तान में 18 प्रधानमंत्री हो चुके हैं और उनमें से कोई भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका. 1958 से 1971 के दौरान प्रधानमंत्री का दफ्तर तक खत्म कर दिया गया था और ऐसा आखिरी बार नहीं हुआ. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री तरह-तरह की नियतियों के शिकार हुए– हत्या, फौज के हाथों तख्तापलट, राष्ट्रपति के हाथों बर्खास्तगी और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के हाथों अयोग्य ठहराया जाना.

पाकिस्तान में पीएम होना पाप है

इसके उलट हिंदुस्तान में इसी दौरान 14 प्रधानमंत्री हुए और अगर उनके कार्यकालों में कटौती हुई भी, तो संसदीय चुनावों में हार की वजह से. प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को उनके ओहदे से हटा दिया गया है. इस बार यह काम देश की सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की एक पीठ ने किया है, जिसने उनकी चुनावी सियासत पर कम से कम पांच साल के लिए पाबंदी लगा दिया है. अब उन्हें पद पर रहते हुए तीन बार हटाए जाने का संदिग्ध गौरव हासिल है– एक बार राष्ट्रपति के हाथों, फिर फौज के हाथों और अब सुप्रीम कोर्ट के हाथों.

वजह? संविधान के अनुच्छेद 62 और 63 का उल्लंघन, जो संसद के सदस्य से ‘सादिक’ और ‘अमीन’ यानी ‘सच्चा’ और ‘नेक’ होने की मांग करते हैं. इसके लिए उकसावा क्या था? पनामा पेपर्स, जो इंटरनेशनल कंसोर्शियम ऑफ इनवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स जो खोजी पत्रकारों के अंतरराष्ट्रीय समूह की खोजी खबरों का लोकप्रिय नाम है और जिसने 1990 के दशक में, जब वे दो बार प्रधानमंत्री रहे, नवाज शरीफ की गैरकानूनी मनी लॉन्ड्रिंग का खुलासा किया. इसके बाद अदालत की बनाई संयुक्त जांच टीम ने उनके परिवार के काले कारनामों पर 275 पेज की रिपोर्ट तैयारी की, जिसने उनकी किस्मत के दरवाजे बंद कर दिए. हमारे साझा इतिहास के चलते हमेशा की तरह पाकिस्तान में जो कुछ होता है, वह केवल पाकिस्तान तक ही महदूद नहीं रहता.

भारत के लिए फौजी हुकमरान के मुकाबले सिविल हुकमरान से निपटना हमेशा ज्यादा आसान होता है. नवाज शरीफ शुरुआत में नरेंद्र मोदी सरकार के दोस्त थे. उन्होंने 2014 में उनकी शपथ का न्यौता जोश और फुर्ती से मंजूर किया था और फिर 2015 में अपनी नातिन की शादी में मोदी के अचानक आने पर उनका खुशी-खुशी स्वागत भी किया था. उस यात्रा के हफ्ते भर के भीतर पठानकोट एयर बेस पर हुए हमले से आसन्न शांति प्रक्रिया के प्रति पाकिस्तानी फौजों की नाखुशी की झलक मिली थी. उसके बाद से हालात लगातार बिगड़ते ही गए और कश्मीर घाटी में उग्रवाद और तेज हो गया.

नवाज शरीफ को सिर नवाना ही पड़ा

इस हफ्ते की कवर स्‍टोरी पाकिस्तान की मुश्किलों पर केंद्रित है. फिलहाल वह अपनी अर्थव्यवस्था में सुधार लाने की, ‘खुद अपने पिछवाड़े में मौजूद सांपों’ से साबका बिठाने की और अपने मामलों में चीन की दखलअंदाजी से निपटने की जद्दोजहद कर रहा है. लाहौर में रहने वाले स्वतंत्र पत्रकार वजाहत एस. खान आगे की राह और साथ ही नवाज शरीफ के वारिस और अगले संभावित प्रधानमंत्री, उनके भाई शहबाज शरीफ पर एक नजर डाल रहे हैं.

एग्जक्यूटिव एडिटर संदीप उन्नीथन ने भारत पर इस सियासी उथलपुथल के असर की छानबीन की है. नवाज शरीफ को अमन के पक्षधर के तौर पर देखा जाता था, जिनके साथ मोदी काम कर सकते थे. पाकिस्तानी निजाम का फौजी सत्ता और नागरिक सरकार के बीच बंटा होना भारत के लिए हमेशा यह पसोपेश पैदा करता है कि वह किससे बात करे. सबसे अच्छा तो यही है कि भारत चुनी हुई सरकार के साथ काम करे, मगर जब भी किसी किस्म का समझौता होता है, सेना उसे भितरघात से नाकाम कर देती है. 

अब क्या होगा जब नवाज शरीफ रुखसत हो चुके हैं? मुमकिन है कि नई दिल्ली पाकिस्तान में मई 2018 में होने वाले अगले आम चुनाव तक हालात पर नजर रखे और इंतजार करे. बातचीत की कोई सूरत दिखाई नहीं देती और ऐसे में सीमा पर झड़पें जारी रहेंगी और उग्रवाद का प्रायोजन भी, जो कश्मीर में अशांति को भड़काता है. मान भी लें कि चुनाव तय वक्त पर ही होंगे, तब भी लोकप्रिय जनादेश हासिल करने वाले शख्स को क्या मुल्क चलाने दिया जाएगा? शायद अब वक्त आ गया है जब भारत को कूटनीतिक नजाकतों को अनदेखा करके जनरलों से बातचीत करने के लिए तैयार होना चाहिए. हो सकता है अमन उन्हीं लोगों के साथ बातचीत करके आ सकता हो जो जंग करते हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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