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कांग्रेस को यूपी गठबंधन से बाहर रखने के फायदे और नुकसान

    • आईचौक
    • Updated: 13 जनवरी, 2019 01:42 PM
  • 13 जनवरी, 2019 01:42 PM
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मायावती और अखिलेश यादव ने यूपी में काफी सोच विचार के बाद गठबंधन किया है. हाल के विधानसभा चुनावों में एक्सपेरिमेंट फेल होने के बावजूद कांग्रेस को गठबंधन से बाहर रखा है - इसके फायदे भी हैं और खतरे भी.

यूपी गठबंधन को लेकर मायावती का कहना है कि चूंकि कांग्रेस के साथ सौदा फायदे का नहीं था इसलिए उसे शामिल नहीं किया. मायावती मानती हैं कि कांग्रेस के मुकाबले समाजवादी पार्टी के साथ डील फायदेमंद रहेगी जिसे वो आजमाया हुआ मान कर चल रही हैं.

गठबंधन को लेकर मायावती ने प्रेस कांफ्रेंस में बताया कि यूपी की सभी 80 सीटों को लेकर अखिलेश यादव के साथ उनकी बात पहले ही फाइनल हो चुकी है. जाहिर है हर कोई सौदा तो फायदे का ही करता है, लेकिन कई बार महत्वपूर्ण पहलू यूं ही ध्यान से छूट जाते हैं.

बेशक मायावती का अखिलेश यादव से हाथ मिलाना फायदे का सौदा साबित हो सकता है - लेकिन इसमें नुकसान की भी आशंका है. ऐसे कई पहलू हैं जिन पर होम वर्क कम हुआ लगता है.

सपा-बसपा गठबंधन के फायदे

मायावती ने यूपी गठबंधन से कांग्रेस को बाहर रखने के मुख्य तौर पर दो कारण बताये हैं. एक, कांग्रेस भी बिलकुल बीजेपी जैसी ही है. दो, कांग्रेस के साथ गठबंधन करने का सबसे बड़ा नुकसान वोट ट्रांसफर न होना बताया है. 1996 में कांग्रेस के साथ बीएसपी गठबंधन के मुकाबले कड़वे अनुभव के बावजूद 1993 का समाजवादी पार्टी के साथ हुए गठबंधन को मायावती वोटों के हिसाब से फायदेमंद मानती हैं.

1. अधिकतम सीटों की संभावना: अगर गठबंधन के लिए कांग्रेस के साथ भी सीटें शेयर करनी पड़ती तो सपा और बसपा दोनों ही को अपनी अपनी सीटें कम करनी पड़तीं. बंटवारे के चलते पहले ही हाथ कट जाता और ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने की संभावना पूरी तरह खत्म हो जाती. अभी तो दोनों के साथ अधिकतम सीटें जीतने की खुली संभावना है.

2. मोलभाव की गुंजाइश: अगर खुद पर यकीन हो तो कोई भी पार्टी ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने की उम्मीद रखती है. किसी भी पार्टी को भी स्पष्ट बहुमत न मिलने की सूरत में मोलभाव की गुंजाइश भी बनी रह सकती है.

3. ज्यादा सीटें ताकत देंगी: सपा और बसपा दोनों ही दलों के नेताओं को केंद्र की सरकार के सामने सीबीआई के डंडे के चलते झुकना...

यूपी गठबंधन को लेकर मायावती का कहना है कि चूंकि कांग्रेस के साथ सौदा फायदे का नहीं था इसलिए उसे शामिल नहीं किया. मायावती मानती हैं कि कांग्रेस के मुकाबले समाजवादी पार्टी के साथ डील फायदेमंद रहेगी जिसे वो आजमाया हुआ मान कर चल रही हैं.

गठबंधन को लेकर मायावती ने प्रेस कांफ्रेंस में बताया कि यूपी की सभी 80 सीटों को लेकर अखिलेश यादव के साथ उनकी बात पहले ही फाइनल हो चुकी है. जाहिर है हर कोई सौदा तो फायदे का ही करता है, लेकिन कई बार महत्वपूर्ण पहलू यूं ही ध्यान से छूट जाते हैं.

बेशक मायावती का अखिलेश यादव से हाथ मिलाना फायदे का सौदा साबित हो सकता है - लेकिन इसमें नुकसान की भी आशंका है. ऐसे कई पहलू हैं जिन पर होम वर्क कम हुआ लगता है.

सपा-बसपा गठबंधन के फायदे

मायावती ने यूपी गठबंधन से कांग्रेस को बाहर रखने के मुख्य तौर पर दो कारण बताये हैं. एक, कांग्रेस भी बिलकुल बीजेपी जैसी ही है. दो, कांग्रेस के साथ गठबंधन करने का सबसे बड़ा नुकसान वोट ट्रांसफर न होना बताया है. 1996 में कांग्रेस के साथ बीएसपी गठबंधन के मुकाबले कड़वे अनुभव के बावजूद 1993 का समाजवादी पार्टी के साथ हुए गठबंधन को मायावती वोटों के हिसाब से फायदेमंद मानती हैं.

1. अधिकतम सीटों की संभावना: अगर गठबंधन के लिए कांग्रेस के साथ भी सीटें शेयर करनी पड़ती तो सपा और बसपा दोनों ही को अपनी अपनी सीटें कम करनी पड़तीं. बंटवारे के चलते पहले ही हाथ कट जाता और ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने की संभावना पूरी तरह खत्म हो जाती. अभी तो दोनों के साथ अधिकतम सीटें जीतने की खुली संभावना है.

2. मोलभाव की गुंजाइश: अगर खुद पर यकीन हो तो कोई भी पार्टी ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने की उम्मीद रखती है. किसी भी पार्टी को भी स्पष्ट बहुमत न मिलने की सूरत में मोलभाव की गुंजाइश भी बनी रह सकती है.

3. ज्यादा सीटें ताकत देंगी: सपा और बसपा दोनों ही दलों के नेताओं को केंद्र की सरकार के सामने सीबीआई के डंडे के चलते झुकना पड़ता रहा है. ज्यादा सीटें जीतने पर स्थिति बेहतर होगी और नेताओं को ताकतवर बनाएगी.

क्या मायावती और अखिलेश यादव ने कांग्रेस को गठबंधन से बाहर रख कर चूक कर दी?

4. वोट शेयर बढ़ेगा: मायावती और अखिलेश यादव दोनों को अपने वोट बैंक हाथ से फिसल जाने से तमाम मुश्किलें उठानी पड़ रही हैं. ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने का फायदा ये होगा कि वोट शेयर भी ज्यादा रहेगा. कांग्रेस के साथ सीटें शेयर करने की स्थिति में जिन सीटों पर सपा और बसपा के उम्मीदवार नहीं होते वहां के तो सारे वोट कांग्रेस के ही खाते में जाते.

5. प्रधानमंत्री बनने का विकल्प: जिस तरह से अखिलेश यादव ने प्रधानमंत्री पद के लिए मायावती की दावेदारी का सपोर्ट किया है, ऐसी कोई सूरत बनती है तो मायावती का ये सपना भी साकार हो सकता है.

त्रिकोणीय मुकाबला हुआ तो नुकसान तय है

उम्मीदें बहुत अच्छी होती हैं. उम्मीदें पालने में कोई बुराई नहीं होती, बशर्ते उनके पीछे ठोस तर्क हों. अगर मायावती और अखिलेश यादव ने हाथ मिला लिया है तो बीजेपी भी उसकी काट ढूंढ रही होगी - और कांग्रेस को तो अपने लिए अलग से तैयारी करनी ही है.

मायावती और अखिलेश यादव ने महज दो सीटें छोड़ कर अजीत सिंह की भी नाराजगी मोल ली है. अजीत सिंह की पार्टी छह सीटों की मांग कर रही थी, लेकिन उनके हिस्से में दो सीटें ही आती लगती हैं. जाहिर है अजीत सिंह दूसरी संभावनाओं पर भी विचार कर रही रहे होंगे. ऐसी संभावनाओं के तार भी कांग्रेस से जुड़ते लगते हैं. ये सही है कि सपा और बसपा की बदौलत ही अजीत सिंह की पार्टी आरएलडी का लोकसभा में खाता खुल पाया है, लेकिन कैराना चुनाव में जिस तरह जयंत चौधरी ने लड़ाई को जिन्ना बनाम गन्ना बनाकर जीत हासिल की वो भी नजरअंदाज करने लायक नहीं है.

कांग्रेस ने मुकाबला त्रिकोणीय करा दिया तो गठबंधन का क्या होगा?

कांग्रेस भी अब अपने तरीके से तैयारी करेगी. खबर भी आ रही है कि कांग्रेस पहले से ही प्लान बी पर काम कर रही है. कांग्रेस के इस प्लान में यूपी की 25 लोक सभा सीटें हैं. ये वे सीटें बतायी जा रही हैं जहां कांग्रेस उम्मीदवारों के जीतने की ज्यादा से ज्यादा संभावना बनती है.

जाहिर है कांग्रेस भी चुनाव में पूरी ताकत से उतरेगी. उन सीटों के नतीजे क्या होंगे जहां मोदी लहर के बावजूद कांग्रेस अपने उम्मीदवारों के बूते दूसरे नंबर पर रही. गठबंधन के पक्ष में तर्क ये हो सकता है कि दोनों के वोट शेयर मिल कर कांग्रेस से ज्यादा हो जाएंगे. ठीक है, लेकिन विपक्ष के वोट बंटने की बात तो पक्की हो जाती है - और ऐसा होने पर फायदा किसे मिलेगा.

2014 के आम चुनाव में कांग्रेस ने दो सीटें जीती थीं - अमेठी और रायबरेली. अमेठी से राहुल गांधी और रायबरेली से सोनिया गांधी. जीती तो समाजवादी पार्टी भी थी, लेकिन सिर्फ वही जिन पर मुलायम सिंह यादव के परिवार के लोग थे - और बीएसपी तो खाता भी नहीं खोल पायी थी.

कांग्रेस ने दो सीटें जीतने के साथ ही यूपी में 6 ऐसी सीटें रहीं जहां वो दूसरे नंबर पर रही. लखनऊ, कानपुर, गाजियाबाद, सहारनपुर, बाराबंकी और कुशीनगर की सीटें जीती तो बीजेपी लेकिन दूसरे नंबर पर कांग्रेस रही और बीएसपी तीसरे नंबर पर. इसी तरह पांच सीटें ऐसी भी रहीं जहां कांग्रेस की पोजीशन तीसरी रही.

कांग्रेस का ध्यान उन सीटों पर भी होगा जहां बीएसपी और समाजवादी पार्टी को 10 हजार से भी कम वोट मिले. अलीगढ़, बाराबंकी भदोही, धौरहरा, हरदोई, सलेमपुर और उन्नाव ऐसी ही सीटें हैं. इनमें भी सिर्फ उन्नाव में समाजवादी पार्टी आगे रही, बाकियों पर बीएसपी ने लीड लिये थे.

अगर इन सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय हुआ तो नुकसान तो निश्चित तौर पर सपा-बसपा गठबंधन का ही होगा.

यूपी में अगर चुनाव बीजेपी बनाम बाकी दल है तो विपक्ष के पास भी चुनाव जीतने के दो मॉडल हैं - एक कैराना और दूसरा फूलपुर-गोरखपुर. कैराना वो मॉडल है जिसमें सारा विपक्ष एक साथ चुनाव लड़ चुका है. फूलपुर-गोरखपुर वो मॉडल है जिस पर सपा-बसपा का नया गठबंधन खड़ा हो रहा है. ये ठीक है पूरा यूपी कैराना जैसा नहीं हो सकता है, लेकिन सच तो ये भी है कि पूरे सूबे में सिर्फ फूलपुर-गोरखपुर मॉडल जैसे ही वोट तो पड़ेंगे नहीं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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