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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघः भारतीय संविधान का सच्चा पैरोकार

    • तुफैल अहमद
    • Updated: 06 जनवरी, 2016 09:09 PM
  • 06 जनवरी, 2016 09:09 PM
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क्या राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ किसी एजेंडा के तहत भारत के संविधान पर हमला कर रहा है? या फिर सच्चाई इससे बिलकुल अलग है?

संगठनो का जन्म अलग-अलग परिस्थितियों में होता है और ये कुछ हासिल करने के लिए हमेशा आगे बढ़ते और विकास करते रहते हैं. इसी प्रक्रिया में ये संगठन कभी कुछ भी बन जाते हैं. इसका एक उल्लेखनीय उदहारण है कांग्रेस, जो अपने आरंभ में एक सामाजिक संस्था थी लेकिन स्वतंत्रता के बाद पूरी तरह राजनैतिक पार्टी बन गई और आज यह सोनिया गांधी और उनके बच्चों की निजी संपत्ति बनकर रह गई है. एक आम भारतीय योग्यता के बल पर इस पार्टी में कभी भी अपने को बढ़ता हुआ नहीं देख सकता. वहीँ अन्य विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों में जन्मा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आज भारतीय संविधान के आदर्शों और मूल्यों का सबसे बड़ा पैरोकार बनकर उभरा है.

कुछ दिन पहले मोहन भागवत द्वारा आरक्षण के मसले पर की गई टिप्पणी उस समस्या के समाधान की ओर एक कोशिश थी जो भारत की राजनीति में अपनी जड़ें गहराई से जमा चुकी है और इसे अंदर से खोखला कर रही है.उनकी यह टिप्पणी संविधान की उस मूल भावना के अक्षरशः तरह अनुरूप है जिसके द्वारा सामाजिक असमानता मिटाने के लक्ष्य को हम कम समय में हासिल कर सकते हैं. मोहन भागवत के अनुसार "अगर हमने राजनीति करने के बजाय इसे पहले ही स्वीकार किया होता तो शायद हम वर्तमान में इस विभाजनकारी (सामाजिक) स्थिति तक न पहुंचते" फिर भी विडंबना देखिए, उनका यह विशुद्ध संवैधानिक सुझाव भारत में होने वाली राजनीतिक बहसों के पटल से कहीँ खो गया. भाजपा ने इससे वोट खिसकने के डर से किनारा किया तो अन्य राजनैतिक-समाजिक विचारक-चिंतकों ने, जो अपने को कथित रूप से वामपंथी मानते हैं, इस पर लेख लिखना या टीवी पर बहस करना भी उचित नहीं समझा.

पंथ या धर्म को पूरी तरह एक किनारे रखकर देखा जाए तो मोहन भागवत की टिप्पणी से किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए जिसमें उन्होंने आरक्षण नीति की समीक्षा करने का सुझाव दिया था जिससे आरक्षण का लाभ उन सभी तक पहुंचाया सके जो इसके वास्तविक हक़दार हैं फिर चाहे उनकी जाति या धर्म कुछ भी हो. लेकिन भारत में ऐसा कैसे हो सकता है! यहाँ तो पंथनिरपेक्षता का मतलब इस्लाम और पाकिस्तान प्रेम हो...

संगठनो का जन्म अलग-अलग परिस्थितियों में होता है और ये कुछ हासिल करने के लिए हमेशा आगे बढ़ते और विकास करते रहते हैं. इसी प्रक्रिया में ये संगठन कभी कुछ भी बन जाते हैं. इसका एक उल्लेखनीय उदहारण है कांग्रेस, जो अपने आरंभ में एक सामाजिक संस्था थी लेकिन स्वतंत्रता के बाद पूरी तरह राजनैतिक पार्टी बन गई और आज यह सोनिया गांधी और उनके बच्चों की निजी संपत्ति बनकर रह गई है. एक आम भारतीय योग्यता के बल पर इस पार्टी में कभी भी अपने को बढ़ता हुआ नहीं देख सकता. वहीँ अन्य विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों में जन्मा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आज भारतीय संविधान के आदर्शों और मूल्यों का सबसे बड़ा पैरोकार बनकर उभरा है.

कुछ दिन पहले मोहन भागवत द्वारा आरक्षण के मसले पर की गई टिप्पणी उस समस्या के समाधान की ओर एक कोशिश थी जो भारत की राजनीति में अपनी जड़ें गहराई से जमा चुकी है और इसे अंदर से खोखला कर रही है.उनकी यह टिप्पणी संविधान की उस मूल भावना के अक्षरशः तरह अनुरूप है जिसके द्वारा सामाजिक असमानता मिटाने के लक्ष्य को हम कम समय में हासिल कर सकते हैं. मोहन भागवत के अनुसार "अगर हमने राजनीति करने के बजाय इसे पहले ही स्वीकार किया होता तो शायद हम वर्तमान में इस विभाजनकारी (सामाजिक) स्थिति तक न पहुंचते" फिर भी विडंबना देखिए, उनका यह विशुद्ध संवैधानिक सुझाव भारत में होने वाली राजनीतिक बहसों के पटल से कहीँ खो गया. भाजपा ने इससे वोट खिसकने के डर से किनारा किया तो अन्य राजनैतिक-समाजिक विचारक-चिंतकों ने, जो अपने को कथित रूप से वामपंथी मानते हैं, इस पर लेख लिखना या टीवी पर बहस करना भी उचित नहीं समझा.

पंथ या धर्म को पूरी तरह एक किनारे रखकर देखा जाए तो मोहन भागवत की टिप्पणी से किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए जिसमें उन्होंने आरक्षण नीति की समीक्षा करने का सुझाव दिया था जिससे आरक्षण का लाभ उन सभी तक पहुंचाया सके जो इसके वास्तविक हक़दार हैं फिर चाहे उनकी जाति या धर्म कुछ भी हो. लेकिन भारत में ऐसा कैसे हो सकता है! यहाँ तो पंथनिरपेक्षता का मतलब इस्लाम और पाकिस्तान प्रेम हो गया है. शायद इसी कारण ऐसे लोगों को, जो सेक्युलर के गलत मायने निकालते हैं, 'सेक्युलरिस्ट' कहा जाने लगा है. आरएसएस या भाजपा की तरफ से आने वाले हर अच्छे और रचनात्मक विचार को ऐसे सेक्युलरिस्ट' जिनमें पत्रकार, लेखक, या टीवी कलाकार शामिल हैं, नकार देते हैं. परिणाम स्वरुप भारत में भाजपा और इसका मातृ संगठन आरएसएस विचारों की धुरी पर सशक्त दक्षिण के रूप में उभर रहे हैं और दूसरी ओर कांग्रेस वामपंथियों की तरह हाशिए पर खिसकती जा रही है.

इसी साल नवंबर में गोवा में हुए इंडिया आईडिया कॉनक्लेव में इस लेखक ने सुझाव दिया था कि आरक्षण नीति के कारण उपजी विभाजनकारी व्यवस्था से बाहर आने के लिए सरकार को गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले (बीपीएल) परिवारों के कल्याण के लिए एक व्यापक राष्ट्रीय योजना बनानी चाहिए जिसमें उनके 18 साल तक के बच्चों को मुफ़्त किताबें, मुफ़्त पढ़ाई या मुफ़्त कपड़े मुहैया कराए जाने जैसे प्रावधान शामिल हों. ये ऐसे लक्ष्य हैं जिसे महज़ सब्सिडी की दिशा बदलकर पाया जा सकता है. जैसा शायद हम एयर इंडिया के मामले में कर सकते हैं जिसको चलाने के लिए कर दाताओं के करोड़ों रुपए बहाए जा रहे हैं लेकिन फिर भी एयर इंडिया घाटे में चल रही है और इस तरह गरीबों का हक़ छीनकर अमीरों को फायदा पहुंचा रही है. जाति और धर्म से हटकर अगर हम ऐसी योजना को लागू करने में कामयाब हो जाएं तो न सिर्फ हर जरूरतमंदों को उनका सही हक़ मिलेगा बल्कि वोट के लिए विभाजनकारी राजनीति करने वालों पर भी लगाम लगाई जा सकेगी. निश्चित रूप से ऐसी विभाजनकारी राजनीति से निबटने के लिए और भी तरीके हो सकते हैं.

शिवसेना, जिसका आरएसएस से कोई सीधा रिश्ता नहीं है, ने भी मोहन भागवत के इस विचार का समर्थन किया है. इसी शिवसेना का कहना है कि सरकार को सभी तरह की धार्मिक किताबों को हटाकर संविधान को ही हर जगह अनिवार्य कर देना चाहिए. 30 नवंबर को अपने मुखपत्र सामना में छपे संपादकीय में शिवसेना ने कहा कि चूंकि सभी धर्मों के लोग कानून या संविधान के सामने बराबर हैं तो इसलिए न्यायालयों में लोगों को दिलवाई जाने वाली शपथ संविधान पर हाथ रखकर दिलानी चाहिए न कि किसी धार्मिक किताब पर हाथ रखकर. लेकिन विडंबना देखिए, ऐसे पवित्र पंथनिरपेक्ष विचारों को भी हमारे वामपंथी बुद्धजीवी हज़म न कर पाए.

यह सही है कि कई हिंदूवादी संगठनों ने पाकिस्तान से आए लेखकों या कलाकारों का विरोध किया है, पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलने पर ऐतराज जताया है लेकिन इस आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि इन लोगों की संविधान में आस्था नहीं है. वास्तव में ये विरोध पाकिस्तानियों के प्रति न होकर उन वाम बुद्धजीवियों के खिलाफ है जो हर कीमत पर पाकिस्तानियों की पैरोकारी करते रहते हैं. हमें यह बिलकुल नहीं भूलना चाहिए कि आरएसएस और भाजपा से आने वाले, गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने कई मंदिरों को तुड़वाया था जो राज्य में होने वाले विकास कार्यों में बाधा बने थे. वहां उनका अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और विश्व हिंदू परिषद जैसे संघ के संगठनों ने विरोध भी किया लेकिन नरेंद्र मोदी ने किसी की परवाह नहीं की. क्या हम ऐसी स्थिति की कल्पना कर सकते हैं जब जमात-ए-इस्लामी से उठकर आया कोई मुस्लिम नेता किसी रोड या स्कूल बनवाने के लिए मस्जिदों को ढहा दे?

ऐसी परिस्थितियों में भाजपा ही देश की राजनीति के लिए फिट बैठती है. एक ओर भाजपा हमें इतिहास का उदहारण देती है जो हमें सिखाती है कि हम लोग कौन हैं तो दूसरी ओर संविधान का उदाहरण देती है जो हमें बताता है कि हम लोगों को कैसे रास्ते पर चलना चाहिए. जबकि कांग्रेस सिर्फ वंशवादी राजनीति को ही ढो रही है, भाजपा संवैधानिक मूल्यों की पैरोकार बनकर उभरी है.

यह कोई दुर्घटना नहीं है जो आरएसएस की शाखाओं से होकर निकला एक चाय बेचने वाला देश की प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच जाए. 2014 में चुनाव जीतने के बाद मोदी जब संसद भवन पहुंचे तो घुटनों पर बैठकर उन्होनें उस भव्य इमारत को प्रणाम किया था जो सवा सौ करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करती है. यह सम्मान न सिर्फ संसद का सम्मान था बल्कि वास्तविक अर्थों में संविधान का सम्मान था.

लोग उस क्षण को शायद ही भूल सकेंगे जब मोदी, एक आरएसएस का स्वयं सेवक, संसद की चौखट पर नतमस्तक था. भारतीय हमेशा अपने पूजा स्थलों/इबादतगाहों के सामने सर झुकाते रहे हैं न कि संसद जैसे संस्थानों के समक्ष जो संविधान द्वारा बनाई गई संस्था है. नरेंद्र मोदी ने अपना आरंभिक जीवन एक स्वयं सेवक के रूप में बिताया है और अब वह संविधान की भावना और मूल्यों को नई ऊंचाई पर ले जाने वाले योद्धा के रूप में उभरे हैं.

मोदी ने अपने जीवनीकार एंडी मरिनो को बताया है कि उन्होंने इंदिरा गांधी के खिलाफ आपातकाल-विरोधी आंदोलन से जो कुछ सीखा है वह अब उनके डीएनए में समा गया है. उन्हीं के शब्दों में “संवैधानिक मूल्य क्या होते हैं...संविधान क्या है...अधिकार क्या हैं... मानो इस तरह ये सब मेरे डीएनए में रच-बस गए हैं. क्योंकि इससे पहले मैं एक अलग ही दुनिया में रह रहा था... आपातकाल मेरे लिए एक विश्वविद्यालय के समान शिक्षा देने वाला था”

जो लोग मोदी को हमेशा विभाजनकारी सिद्ध करने पर तुले रहते हैं उन्हें मोदी के उस भाषण को फिर से सुनना चाहिए जो पिछले साल उन्होंने नेपाल की संसद में दिया था. वहां तो मोदी कोई हिंदुत्व पर भाषण नहीं दे रहे थे. इस संबोधन के दौरान मोदी ने कहा था “संविधान महज़ एक किताब नहीं है... यह आपके कल और आज को जोड़ने वाली एक कड़ी है. प्राचीन कालों में जो काम वेद और उपनिषद लिखकर किया गया वही काम आधुनिक पीढ़ियां संविधान लिख कर करती हैं.”

इतना ही नहीं उन्होंने 2014 आम चुनावों के पहले भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में कहा था कि हमारा संविधान हमारी प्राचीन विरासत का दर्पण है. हम अगर आज विश्व से आँख मिलाकर बात कर पाते हैं तो इसका कारण हमारे यहाँ लोकतंत्र का होना है. हमें गर्व है कि हम गणतंत्र की परंपरा का अनुसरण कर रहे हैं"

जहां ग्रामीण गणतंत्रों के उदाहरण हमारे प्राचीन इतिहास में मिलते हैं वहीँ आधुनिक संवैधानिक समानता और स्वतंत्रता जैसे मूल्य हमारे यहां ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से आए. ग्रीक दर्शन से उपजी ये मान्यताओं ने संपूर्ण यूरोप को पुनर्जाग्रत किया फिर अमेरिका और फ्रांसीसी क्रांति के प्रेरणा बने. हमारे संविधान की शुरुआत भी अमेरिकी संविधान के समान वी द पीपल से होती है. वर्तमान संदर्भ में नरेंद्र मोदी को अगर भारत में यूरोपीय पुनर्जागरण का प्रतिनिधि कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए. इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि एक ओर जहाँ भाजपा और संघ यूरोपीय पुनर्जागरण से उपजे व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे अधिकारों की पहुंच मुस्लिम महिलाओं तक कराने के लिए प्रयासरत हैं तो वहीँ कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां इसका विरोध कर रही हैं. यहाँ तक वामपंथी, सेक्युलर लेखक-पत्रकारों ने भी इस मसले पर चुप्पी साध रखी है. फिर बात चाहे जिहाद की हो, सोशल मीडिया में बढ़ती इस्लामी कट्टरता की हो या मुस्लिम महिलाओं द्वारा बुर्क़ा पहनने की... सेक्युलर बुद्धजीवी कुछ भी कहने को तैयार नहीं है.

इन सब मसलों को देखकर लगता है वामपंथी विचारधारा में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मानवाधिकार अब बीते जमाने की बातें हो गई हैं. आज यदि आप इस्लाम में तीन-तलाक़ देने या इस्लाम में वैद्य अन्य किसी अराजक परंपरा के खिलाफ कहीं भी कुछ लिखते हैं तो आपके और मुस्लिम महिलाओं के समर्थन में जो सबसे पहले आवाज़ उठेगी वह आवाज़ किसी संघ या भाजपा से जुड़े व्यक्ति की होगी. हमारे संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों में समान नागरिक संहिता के लिए राज्य से अपेक्षा की गई है कि वह इस दिशा में कानून बनाए जिससे सभी धर्मों को समान मानकर उनके साथ एक जैसा व्यवहार किया जाए, उन्हें एक जैसे अधिकार दिए जाएं. इसके समर्थन में भी सबसे आगे आने वालों में संघ या भाजपा के ही लोग हैं. समय के साथ जैसे-जैसे हमारे संविधान की जड़े हमारे समाज में गहराई में जा रही हैं, उसी के साथ-साथ हिंदू धर्म का पालन करने वाले अपनी अतीत की गलतियों से सबक लेकर अब संविधान में दिए गए लक्ष्यों को पाने के लिए आगे बढ़ रहे हैं.

बात चाहे गौमांस खाने की हो, या इस पर प्रतिबंध लगाने की... किसी भाजपा शासित राज्य ने गौहत्या पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून नहीं बनाए, ये तो कांग्रेस के राज में बनाए गए क्योंकि ऐसा संविधान के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में राज्य से अपेक्षा की गई है. और तो और गोवा में, जहां भाजपा की सरकार है, वहां आप गौमांस खा सकते हैं क्योंकि ये किसी राज्य के कानून के मुताबिक वैध है तो किसी राज्य में अवैध... मैं ये समझने में असमर्थ हूँ कि अपनी-अपनी संस्कृति के हिसाब से राज्यों ने अलग-अलग कानून बनाए तो इसमें आरएसएस या भाजपा का एजेण्डा कहां से आ गया. लेकिन फिर भी उदार बुद्धजीवी ऐसा ही दोहराते रहते हैं.

गोवा के इसी इण्डिया आईडिया सम्मेलन में आरएसएस के दत्तात्रेय होसबले ने कहा है कि संघ का कोई छिपा सांस्कृतिक एजेण्डा नहीं है बल्कि जो भारतीय संस्कृति सदियों से चली आ रही है वही वास्तव में संघ का एजेण्डा है.

(यह लेख मूल रुप से स्वराज्य पत्रिका में प्रकाशित हुआ है और इसका अनुवाद अमित ने किया है.)

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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