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Opinion: नीतीश-राज के 17 साल जो बिहार के लिए 'अवसर गंवाने' का इतिहास है

    • दर्पण सिंह
    • Updated: 11 अगस्त, 2022 06:46 PM
  • 11 अगस्त, 2022 06:46 PM
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नीतीश कुमार के बिहार की कमान संभालने के बाद पैदा हुए बच्चे अगले साल मतदाता होंगे. लेकिन बेहतर भविष्य का वादा अधूरा ही रह गया है. यह कहानी उन खोए अवसरों के बारे में है, जिसका सामना एक राज्य के रूप में बिहार को करना पड़ा.

90 के दशक के बच्चों के बारे में सोशल मीडिया पोस्ट अक्सर हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं. डीडी के कार्यक्रम, विज्ञापन, जिंगल और समाचार प्रस्तुति की शैली उस दौर में वापसी के लिए एक लालसा पैदा करते हैं. हम भावुक हो जाते हैं. हम यह मानना ​​पसंद करते हैं कि तब जीवन रुका हुआ, आराम से भरपूर और अधिक शांतिपूर्ण था. लेकिन उस दौरान बिहार में पले-बढ़े कई लोगों के लिए, अमूमन चीजें उतनी नॉस्टेल्जिक नहीं हैं. उनके लिए अधिक प्रासंगिक शब्द 'दुःस्वप्न' है. जाति, अपराध, भ्रष्टाचार और स्वास्थ्य, शिक्षा और कनेक्टिविटी सुविधाओं की कमी या गैर-मौजूदगी की कहानियों ने अक्सर ही अखबारों की सुर्खियां बटोरीं और लोगों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया.

लेकिन सच कहूं तो बिहार कभी महाराष्ट्र, पंजाब या तमिलनाडु नहीं था. यह हमेशा एक अविकसित और कुप्रशासित राज्य था. और इसकी जड़ें ब्रिटिश शासन में थीं. जब बॉम्बे और मद्रास जैसे प्रांत कृषि उत्पादन के आधार पर करों का भुगतान करते थे. लेकिन बिहार, जोकि बंगाल प्रांत का हिस्सा था, के लिए जो कर तय किए गए थे उसका पैमाना उपज की गुणवत्ता नहीं थी. उपज कम हो या ज्‍यादा टैक्स तयशुदा ही देना होता था.

आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

ज़मींदार अपनी ज़मीन बढ़ाने और बटाईदारों को निचोड़ने की होड़ में रहे. जातिगत तनावों ने जमींदार सेनाओं और किसान लड़ाकों के बीच जातिगत युद्धों को जन्म दिया. आजादी के बाद, दशकों की राजनीतिक अस्थिरता ने बिहार में स्थिति को और भी बदतर बना दिया, जो पहले से ही व्यापक गरीबी, अशिक्षा और बाढ़ से जूझ रहा था.

1990 का दशक

लेकिन 1990 के दशक में यह एक तस्वीर बदल गई थी. मंडल और कमंडल की राजनीति के चलते राजनेताओं की नई नस्लें, और उनके गुर्गे,...

90 के दशक के बच्चों के बारे में सोशल मीडिया पोस्ट अक्सर हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं. डीडी के कार्यक्रम, विज्ञापन, जिंगल और समाचार प्रस्तुति की शैली उस दौर में वापसी के लिए एक लालसा पैदा करते हैं. हम भावुक हो जाते हैं. हम यह मानना ​​पसंद करते हैं कि तब जीवन रुका हुआ, आराम से भरपूर और अधिक शांतिपूर्ण था. लेकिन उस दौरान बिहार में पले-बढ़े कई लोगों के लिए, अमूमन चीजें उतनी नॉस्टेल्जिक नहीं हैं. उनके लिए अधिक प्रासंगिक शब्द 'दुःस्वप्न' है. जाति, अपराध, भ्रष्टाचार और स्वास्थ्य, शिक्षा और कनेक्टिविटी सुविधाओं की कमी या गैर-मौजूदगी की कहानियों ने अक्सर ही अखबारों की सुर्खियां बटोरीं और लोगों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया.

लेकिन सच कहूं तो बिहार कभी महाराष्ट्र, पंजाब या तमिलनाडु नहीं था. यह हमेशा एक अविकसित और कुप्रशासित राज्य था. और इसकी जड़ें ब्रिटिश शासन में थीं. जब बॉम्बे और मद्रास जैसे प्रांत कृषि उत्पादन के आधार पर करों का भुगतान करते थे. लेकिन बिहार, जोकि बंगाल प्रांत का हिस्सा था, के लिए जो कर तय किए गए थे उसका पैमाना उपज की गुणवत्ता नहीं थी. उपज कम हो या ज्‍यादा टैक्स तयशुदा ही देना होता था.

आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

ज़मींदार अपनी ज़मीन बढ़ाने और बटाईदारों को निचोड़ने की होड़ में रहे. जातिगत तनावों ने जमींदार सेनाओं और किसान लड़ाकों के बीच जातिगत युद्धों को जन्म दिया. आजादी के बाद, दशकों की राजनीतिक अस्थिरता ने बिहार में स्थिति को और भी बदतर बना दिया, जो पहले से ही व्यापक गरीबी, अशिक्षा और बाढ़ से जूझ रहा था.

1990 का दशक

लेकिन 1990 के दशक में यह एक तस्वीर बदल गई थी. मंडल और कमंडल की राजनीति के चलते राजनेताओं की नई नस्लें, और उनके गुर्गे, दोनों तरफ उठे और अपराधियों, अधिकारियों और व्यवसायियों के साथ अपनी सांठगांठ बनाई. हत्या, बलात्कार, डकैती, अपहरण और जबरन वसूली की खबरें आम थीं. यहां तक कि नरसंहार अकसर होते थे. नौकरशाहों ने बेधड़क अपने राजनीतिक आकाओं के पैर छुए. एक विशेष उपनाम वाले पुरुष, नौकरशाहों की पत्नियों का वर्षों तक बलात्कार कर सकते थे और उनके परिवारों को डराने-धमकाने के बादवजूद खुलेआम घूम सकते थे. साथ ही भ्रष्टाचार के मुखबिरों या उसे उजागर करने वालों को बेरहमी से गोली मार दी जाती थी.

'चाहे वह बल्ब की फैक्ट्री स्थापित करना हो या फार्मेसी शुरू करना. मैंने अपने पिता को हर उस चीज के लिए रिश्वत देते देखा. तब कट्टा और देशी शराब का उत्पादन कुटीर उद्योग बन गया था. जान दोनों में जाती थी. दिल्ली-हावड़ा रेलवे लाइन के दोनों किनारों पर, लालू, राबड़ी और अन्य नेताओं के नाम पर अवैध ट्रेन हॉल्ट बन गए थे. जिससे यात्रा और दैनिक आवागमन एक दुःस्वप्न की तरह ही हो गया था.'

शिक्षक गप्पें मारते, तो शिक्षिकाएं स्वेटर बुनतीं. या दोनों जनगणना या मध्याह्न भोजन की तैयारी में लगे रहते. जब स्कूलों में शायद ही कोई शिक्षा थी, तब छात्रों के लिए 'राहत' के रूप में सामूहिक नकल की अनुमति दे दी गई थी. हालांकि, पटना हाई कोर्ट कभी कभी मामले को अपने हाथ में भी लेता था. लड़कियों को शादी करने के लिए और लड़कों को छोटी-मोटी नौकरी पाने के लिए मैट्रिक करना होता था. और ये एक ऐसी दहलीज थी जिसे पार करने के लिए हर कोई बेताब था. बावजूद नकल की 'सुविधा' के, कई लोगों के लिए अंग्रेजी समस्या थी. सरकार के पास समाधान था. जब मैंने दसवीं कक्षा की परीक्षा दी, तब अंग्रेजी को अनिवार्य विषय से हटाकर वैकल्पिक बना दिया गया.

नौकरियां भी कुछ ही थीं. निवेशकों ने राज्य से किनारा कर लिया था. कई व्यवसायों और कारखानों ने दुकान बंद कर दी थीं. मेरे गृहनगर डुमरांव (जिला बक्सर) में लालटेन, स्टील और टेक्सटाइल मिल की इकाइयां सरकारी मदद के अभाव में बंद हुईं. मजदूरों, चौकीदारों, धोबी और रिक्शा चालकों के रूप में काम करने वाले युवक राज्य के बाहर जाने के लिए मजबूर हो गए थे. इस पलायन ने 'बिहारी' को अपशब्द बना दिया. जब प्रवासी श्रमिकों के बच्चों ने नौकरी और कॉलेज की सीटों पर कब्जा कर लिया, तो राजनीतिक दलों ने प्रवासी विरोधी बयानबाजी और हिंसा को हवा दी.

वहीं, बिहार में सफेद कुर्ता-पायजामे में विशेष उपनाम वाले व्यक्ति को सरकारी कार्यालयों में गंभीरता से लिया जाने लगा. लालू यादव का मानना था कि उन्होंने अपने लोगों को स्वर्ग (स्वर्ग) न सही, स्वर (आवाज) तो दिया ही. तेजी से विभाजित हो रहे समाज में लालू एक ही समय में मसीहा और राक्षस दोनों थे.

नीतीश उम्मीद लेकर आए

फिर बिहार में 2005 के विधानसभा चुनाव में लालू-राबड़ी के 15 साल के शासन का अंत हो गया. वर्षों तक लालू-राबड़ी के खिलाफ अभियान चलाने वाले नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने. भाजपा उनकी सहयोगी थी.

भारत में जन-आंदोलनों का एक विचित्र इतिहास रहा है. तकनीकी रूप से तो भारत छोड़ो आंदोलन भी विफलता में ही समाप्त हुआ. हालांकि, कुछ साल बाद वांछित परिणाम आया. हर पांच साल में - कई बार पहले भी - भारत और उसके सभी राज्यों में जन आंदोलन हुए, जिन्हें हम आम चुनाव कहते हैं. ऐसे ही एक जन आंदोलन ने 2005 में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद पर ला खड़ा किया था.

प्रत्येक चुनाव परिणाम पिछली सरकार से मिली हताशा और उससे बाहर निकलने का एक तरीका है. यह एक बेहतर भविष्य की आशा के साथ आता है. आशा की इस लहर पर सवार एक राजनेता नायक के रूप में उभरता है. 2005 में नीतीश बिहार के हीरो थे.

लोगों को उम्मीद थी कि बिहार बेहतर के लिए बदलेगा. स्कूल और कॉलेज की शिक्षा में सुधार होगा. अस्पतालों में दवाएं और डॉक्टर होंगे. बाढ़ की सालाना समस्या से निपटने के लिए एक योजना होगी. सड़कों, नालों, सीवेज, सिविल व पुलिस प्रशासन की लचर व्यवस्था को दुरुस्त किया जाएगा.

वाजपेयी सरकार में नीतीश ने मंत्री के रूप में काम किया था. उन्हें एक कुशल प्रशासक के रूप में देखा जाता था. उम्मीद थी कि वह विकास के ऐसे युग की शुरुआत करेंगे, जिसका सपना बिहार का हर नागरिक देख रहा था.

2010 तक उनके पहले कार्यकाल में कुछ काम जरूर हुआ. खासकर सड़कों, स्कूलों और बिजली आपूर्ति की स्थिति कुछ बेहतर हुई. नीतीश को कुछ हलकों में सुशासन बाबू और मिस्टर क्लीन के नाम से जाना जाने लगा. लेकिन ऐसे छोटे प्रयास दशकों के बदहाली को दूर करने के लिए नाकाफी थे. उम्मीद अभी बाकी थी. नीतीश ने अपने पुराने दोस्त लालू को इसलिए छोड़ दिया था क्योंकि वह लालू की बढ़ती छाया के तहत काम नहीं करना चाहते थे. भाजपा के साथ काम करते हुए धर्मनिरपेक्षता का समर्थन करना जारी रखना भी उतना ही चुनौतीपूर्ण था, लेकिन नीतीश की महत्वाकांक्षाएं बिहार तक ही सीमित नहीं थीं.

जब हुई सहयोगियों की अदला-बदली की शुरुआत

फिर, 2013 में, एक और छाया भारत के राजनीतिक स्पेक्ट्रम के दूसरी तरफ उभर रही थी. यह स्पष्ट होता जा रहा था कि नरेंद्र मोदी भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे. धर्मनिरपेक्ष नीतीश ने भाजपा को छोड़ दिया और लालू यादव के साथ चले गए, जिनके जंगल राज का इस्तेमाल उन्होंने सत्ता में आने के लिए किया था.

हालांकि, 2017 आने तक नीतीश फिर से लालू यादव के दो बेटों के बढ़ते कद से खुद को ठगा सा महसूस करने लगे. उन्होंने उनके आचरण में भ्रष्टाचार की खोज की और उन्हें भाजपा के साथ बिहार में फिर सरकार बनाई. इससे तिलमिलाए लालू ने उन्हें 'सांप' कहा. नीतीश ने कहा कि वह मर जाएंगे लेकिन दोबारा लालू का साथ नहीं लेंगे. लेकिन इतिहास में खुद को दोहराने की एक अजीब ही फितरत है. बीते दिन भी उन्होंने वही किया जो उन्होंने नौ साल पहले किया था.

जून 2013 में, जब नीतीश ने पहली बार भाजपा के साथ अपना गठबंधन तोड़ा. तब लालू के लिए अदालत की पहली सजा तीन महीने दूर थी. चारा घोटाला के कई मामलों में आज उन्हें सजा सुनाई जा चुकी है. लेकिन नीतीश ने वही किया जो वे करना चाहते थे. सहयोगी की अदला-बदली करने के लिए उनके पास राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं सहित अपने कारण होंगे, और मैं इसकी राजनीति में नहीं जाना चाहता. एक बिहारी होने के नाते मैं एक ही सवाल पूछना चाहता हूं कि पिछले 17 वर्षों में बिहार में क्या-क्या हुआ? यानी, क्‍या बदला?

बिहार में कोई बहार नहीं है!

आज स्कूल के शिक्षक दीवारों पर मेन्यू चार्ट लटकने से परेशान हैं. कोविड की चपेट में आने पर वे अपने जीर्ण-शीर्ण घरों को वापस जाने वाले प्रवासी श्रमिकों को लुंगी और बाल्टियां वितरित करते हैं. शिक्षक छात्रों को और उनके माता-पिता को सुबह छह बजे से मानव श्रृंखला में खड़े होने के लिए आदेश देते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि मुख्यमंत्री को सुबह नौ बजे किसी कार्यक्रम की मेजबानी करना होता है. उन्हें उन प्रवासियों का पता लगाना होता है जो शायद गांव से भाग गए हैं. वे पंचायत चुनाव के लिए म्हणत करते हैं. उन्हें ऐसा करने के लिए इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि सरकार जमीनी स्तर पर नागरिक या राजनीतिक प्रशासन पर भरोसा नहीं कर सकती.

कई अस्पतालों में अभी भी डॉक्टर नहीं हैं, और उनकी फ़ार्मेसी मरीज़ों को दवाओं के लिए लाइन में खड़ा कर देती है. कोविड महामारी की विनाशकारी दूसरी लहर के दौरान दरभंगा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल की तस्वीरें कौन भूल सकता है? वैसे भी, बिहार के अस्पताल कई बीमारियों के लिए जन्मस्‍थान हैं. जजेस, नेता या सरकारी अधिकारी तो बिहार में अपना इलाज कराने के बारे में सोचते थी नहीं. मुख्यमंत्री खुद अपनी नियमित जांच (2018) या मोतियाबिंद की साधारण सर्जरी (2021) के लिए दिल्ली स्थित एम्स जाते हैं.

जब नीतीश ने बिहार की बागडोर अपने हाथ में ली तो वहां पैदा हुआ बच्चा अब एक वोटर है. जो बेहतर शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोटा, दिल्ली, मनिपाल और यहां तक कि गोरखपुर जा रहा है. जो वहीं बिहार में रह गए हैं, वे नौकरी के लिए ट्रेनों और बसों को जला रहे हैं. क्‍योकि, जिस नौकरी (सैनिक बनने) के बूते उनके पास दहेज लेकर तुरंत पैसा पा लेने का मौका था, वह सेना में रिफॉर्म के चलते बलि चढ़ती दिखाई दे रही है.

चोर अब लोहे के पुल और एटीएम चुरा रहे हैं.  स्कूल की बहुमंजिला इमारत पर चढ़कर अपने बच्चों को नक़ल में मदद करने के लिए अपनी जान जोखिम में डालकर खिड़की से लटके लोगों की तस्वीरें अभी भी दुनिया भर में बिहार का उपहास उड़ाती हैं .

अपने श्रेय के लिए, नीतीश राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की उच्च विकास दर पर गर्व कर सकते हैं. लेकिन क्या आपने कभी अमेरिका को 8% की दर से बढ़ते हुए सुना है? केवल सबसे गरीब से गरीब व्यक्ति में ही तेजी से बढ़ने की क्षमता होती है. 10 रुपये कमाने वाला व्यक्ति यदि 11 रुपये कमाता है, वो वह 10% की वृद्धि दर दर्ज कर रहा है. सच्चाई यह है कि अगर बिहार 2005 में दूसरा सबसे गरीब राज्य था, तो अब यह देश का सबसे गरीब राज्य है.

नीतीश इतने साल तक सत्ते में कैसे बने रहे, इसे समझाने के कई नजरिये हो सकते हैं. खासतौर पर राजनीतिक रूप से जागरुक बिहार जैसे सूबे में. लेकिन, एक बात तो तयशुदा है कि ये 17 साल व्यर्थ ही गए. बिहार के विषय में एक अच्छी बात ये रही कि बिहारियों ने खुद को 'मजदूरीपेशा' से परिष्कृत कर 'मेहनतकश' बनाया है.

मेरे गृहनगर में, मेरे पिता को अभी भी छोटे से छोटे सरकारी काम करवाने के लिए रिश्वत देने के लिए मजबूर हैं. औद्योगिक इकाइयां आज भी बंद हैं. बुधवार को नीतीश कुमार ने आठवीं बार बिहार के सीएम पद की शपथ ली है. बीजेपी उन पर विश्वासघात का आरोप लगा रही है. लेकिन जिसके साथ वाक़ई धोखा हुआ है वो बिहार है.

और मैं, एक बिहारी के रूप में, बड़े पैमाने पर निराश महसूस कर रहा हूं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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