• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
सियासत

फारूक का ये सियासी 'पथराव' महज चुनावी है, या कोई नई लाइन ?

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 06 अप्रिल, 2017 03:14 PM
  • 06 अप्रिल, 2017 03:14 PM
offline
क्या फारूक अब्दुल्ला की राय महज सत्ता में होने और न होने की वजह से बदल रही है? या सिर्फ चुनाव जीतने और खोई हुई जमीन वापस लेने की तात्कालिक कवायद भर है?

सात साल पहले फारूक अब्दुल्ला की भी पत्थरबाजों को लेकर वही राय थी जो अभी महबूबा मुफ्ती की बातों से जाहिर होती है. हालांकि, उस वक्त जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री खुद फारूक नहीं बल्कि उनके बेटे उमर अब्दुल्ला थे. दिलचस्प बात ये है कि तब महबूबा भी उसी तरफ खड़ी देखी जाती रहीं जिधर फारूक फिलहाल नजर आ रहे हैं. फारूक अब्दुल्ला फिलहाल श्रीनगर लोक सभा सीट से नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के संयुक्त उम्मीदवार हैं.

आखिर ऐसा क्या हो गया कि फारूक अब्दुल्ला अचानक दिहाड़ी पत्थरबाजों के पीछे खड़े हो गये हैं? क्या फारूक की राय महज सत्ता में होने और न होने की वजह से बदल रही है? या सिर्फ चुनाव जीतने और खोई हुई जमीन वापस लेने की तात्कालिक कवायद भर है?

सात साल में यू टर्न

दैनिक भास्कर ने फारूक अब्दुल्ला का एक पुराना बयान छापा है जिसमें घाटी में होने वाली पत्थरबाजी की उन्होंने निंदा की है. सवाल ये है कि अब फारूक ने यू टर्न क्यों लिया?

उस वक्त फारूक अब्दुल्ला ने कहा था, "यहां कुछ उन्मादी लोग सोच रहे हैं कि पत्थर फेंक-फेंक कर कश्मीर को भारत से अलग कर लेंगे. पहले वो लोग बम और बंदूकें भी ला चुके हैं, लेकिन भारत को झुका नहीं पाये. मैं वादा करता हूं कि भारत इस बार भी नहीं हारेगा. ये लोग कामयाब नहीं हो पाएंगे. इस तरह हिंसा फैला कर ये लोग सिर्फ अपनी कब्रें खोद रहे हैं. घाटी में हो रही पत्थरबाजी निंदनीय है. बढ़ती हिंसा के बीच सरकार को इनसे निपटने की नई रणनीति ढूंढनी पड़ेगी."

किस तरफ हैं फारूक अब्दुल्ला?

फारूक का ये बयान 18 सितंबर 2010 का है. 2009 से 2015 के बीच फारूक के बेटे उमर अब्दुल्ला ही जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे. अपने ताजा बयान में फारूक अब्दुल्ला ने पत्थरबाजों का सपोर्ट किया है. फारूक अब कहने लगे हैं,...

सात साल पहले फारूक अब्दुल्ला की भी पत्थरबाजों को लेकर वही राय थी जो अभी महबूबा मुफ्ती की बातों से जाहिर होती है. हालांकि, उस वक्त जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री खुद फारूक नहीं बल्कि उनके बेटे उमर अब्दुल्ला थे. दिलचस्प बात ये है कि तब महबूबा भी उसी तरफ खड़ी देखी जाती रहीं जिधर फारूक फिलहाल नजर आ रहे हैं. फारूक अब्दुल्ला फिलहाल श्रीनगर लोक सभा सीट से नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के संयुक्त उम्मीदवार हैं.

आखिर ऐसा क्या हो गया कि फारूक अब्दुल्ला अचानक दिहाड़ी पत्थरबाजों के पीछे खड़े हो गये हैं? क्या फारूक की राय महज सत्ता में होने और न होने की वजह से बदल रही है? या सिर्फ चुनाव जीतने और खोई हुई जमीन वापस लेने की तात्कालिक कवायद भर है?

सात साल में यू टर्न

दैनिक भास्कर ने फारूक अब्दुल्ला का एक पुराना बयान छापा है जिसमें घाटी में होने वाली पत्थरबाजी की उन्होंने निंदा की है. सवाल ये है कि अब फारूक ने यू टर्न क्यों लिया?

उस वक्त फारूक अब्दुल्ला ने कहा था, "यहां कुछ उन्मादी लोग सोच रहे हैं कि पत्थर फेंक-फेंक कर कश्मीर को भारत से अलग कर लेंगे. पहले वो लोग बम और बंदूकें भी ला चुके हैं, लेकिन भारत को झुका नहीं पाये. मैं वादा करता हूं कि भारत इस बार भी नहीं हारेगा. ये लोग कामयाब नहीं हो पाएंगे. इस तरह हिंसा फैला कर ये लोग सिर्फ अपनी कब्रें खोद रहे हैं. घाटी में हो रही पत्थरबाजी निंदनीय है. बढ़ती हिंसा के बीच सरकार को इनसे निपटने की नई रणनीति ढूंढनी पड़ेगी."

किस तरफ हैं फारूक अब्दुल्ला?

फारूक का ये बयान 18 सितंबर 2010 का है. 2009 से 2015 के बीच फारूक के बेटे उमर अब्दुल्ला ही जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे. अपने ताजा बयान में फारूक अब्दुल्ला ने पत्थरबाजों का सपोर्ट किया है. फारूक अब कहने लगे हैं, "वे भूखों मरेंगे, लेकिन अपने वतन के लिए पत्थर फेंकेंगे, वे कश्मीर मुद्दे के हल के लिए अपनी जान दे रहे हैं, हमें इसे समझने की जरूरत है."

हर बार जबान नहीं फिसलती...

ज्यादा दिन नहीं हुए जब फारूक के एक बयान को जबान फिसलने के तौर पर देखा गया था. पाक अधिकृत कश्मीर पर एक रिजोल्युशन पर बड़े तैश में फारूक ने बोला, "क्या ये तुम्हारे बाप का है, मौजूदा वक्त में ये पाकिस्तान के कब्जे में है."

पिछले साल जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की 111वीं जयंती के मौके पर अपनी कश्मीरी स्पीच में फारूक ने कहा, "मैं इन हुर्रियत नेताओं से भी कहता हूं कि आप अलग रास्तों पर मत चलिए. एकजुट हों. वैसे कश्मीर के हक के लिए हम भी आपके साथ खड़े हैं. हमें अपना दुश्मन मत समझें."

शेख अब्दुल्ला की कब्र पर नेशनल कांफ्रेंस कार्यकर्ताओं की मौजूदगी में अपने खानदानी संघर्षों की दुहाई देते हुए फारूक बोले, "हमने कश्मीर के लिए बहुत संघर्ष किया है. जिंदगी खपा दी. आज मैं आपको इस मुकद्दस जगह से कहना चाहता हूं कि आप आगे बढ़िए, हम आपके साथ खड़े हैं." ये तो हो नहीं सकता कि हर बार किसी की जबान फिसल जाये. एक दो बार हो सकता है, लेकिन बार बार एक ही लाइन पर बयान का मतलब तो यही है कि फारूक ने अपना स्टैंड बदल लिया है.

सूबे में बीजेपी के साथ गठबंधन सरकार की मुख्यमंत्री बनने के बाद महबूबा भी बुरहान वानी के मामले को छोड़ कर अलगाववादियों के खिलाफ सख्त लहजे में ही बात की है. महबूबा ने दूध-ब्रेड से लेकर अलगाववादियों के बच्चों के स्कूल जाने की बात भी सार्वजनिक तौर पर कही है.

हां, ये जरूर है कि सीएम बनने से पहले महबूबा भी अलगाववादियों के साथ सहानुभूति के खड़ी रहीं. यहां तक कि अपने पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद के सीएम रहते भी महबूबा के रवैये में कोई कमी नहीं आई थी - उन्होंने संभल कर बोलना तभी शुरू किया जब खुद कुर्सी पर बैठीं.

दिहाड़ी पत्थरबाजी

हाल ही में आज तक के एक स्टिंग ऑपरेशन में सबने देखा कि किस तरह कश्मीर के नौजवानों को पत्थरबाजी के लिए दिहाड़ी मजदूरों की तरह ट्रीट किया जा रहा है. पत्थरबाजी के लिए नौजवानों को सात से 11 हजार रुपये महीने तक मिल रहे हैं - ये बात पत्थर फेंकने वालों ने ही आज तक के कैमरे पर कबूल किया था.

महबूबा मुफ्ती का कहना है कि कश्मीर के नौजवान हताशा में हैं और उनसे संवाद की जरूरत है. महबूबा के मुताबिक उनके भाई तसद्दुक सईद ऐसे नौजवानों से बातचीत की कोशिश कर रहे हैं. तसद्दुक अनंतनाग उपचुनाव में पीडीपी के उम्मीदवार हैं, जो महबूबा के इस्तीफे से खाली हुआ है. महबूबा कहती हैं, "घाटी में नौजवानों की बेरोजगारी और अशांति सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है. पत्थर उठाने वाले नौजवान बड़ा मुद्दा हैं और ये चुनौती हमने एक-दो साल में पैदा नहीं की."

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कश्मीर के नौजवानों से टूरिज्म या टेररिज्म में से कोई एक चुनने को कहा था. फारूक अब्दुल्ला का बयान उसी प्रसंग में आया है. फारूक चाहते हैं कि कश्मीर पर बातचीत में भारत और पाकिस्तान के साथ अलगाववादियों को भी शामिल किया जाये. फारुक कश्मीर विवाद में अमेरिका से भी मध्यस्थता की मांग कर रहे हैं. शिमला समझौते के तहत भारत और पाकिस्तान के बीच तय है कि बातचीत में कोई तीसरा पक्ष नहीं होगा.

पत्थरबाजों को लेकर आर्मी चीफ बिपिन रावत ने भी आगाह किया था कि अगर वे हरकतों से बाज नहीं आये तो सेना अपने तरीके से निबटेगी. असल में देखा गया कि आतंकवादियों के खिलाफ सेना के ऑपरेशन के वक्त पत्थरबाजों का झुंड रास्ते का रोड़ा बन कर खड़े हो जा रहे हैं. वैसे कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद को भी ये बात नागवार गुजरी थी.

ऐसा क्यों लग रहा है कि फारूक अब्दुल्ला अलगाववादियों के सपोर्ट की बात करते करते उन्हीं की जबान बोलने भी लगे हैं. फिर फारूक और अलगाववादियों में फर्क क्या है? बस यही कि आप चुनाव प्रक्रिया में हिस्सा लेकर जो बात कहते हैं वे उसका बहिष्कार करते और बोलते हैं. सवाल ये है कि फारूक अब्दुल्ला का ये स्टैंड महज श्रीनगर उपचुनाव तक ही है या फिर अब आगे भी वो इसी लाइन पर कायम रहेंगे?

इन्हें भी पढ़ें :

फारूक अब्दुल्ला सोच लीजिये आपको किस तरफ जाना है ?

फारूक अब्दुल्ला के हुर्रियत के सपोर्ट के पीछे क्या सिर्फ महबूबा विरोध है?

पीओके पर बर्दाश्‍त नहीं बेसुरा राग

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    अब चीन से मिलने वाली मदद से भी महरूम न हो जाए पाकिस्तान?
  • offline
    भारत की आर्थिक छलांग के लिए उत्तर प्रदेश महत्वपूर्ण क्यों है?
  • offline
    अखिलेश यादव के PDA में क्षत्रियों का क्या काम है?
  • offline
    मिशन 2023 में भाजपा का गढ़ ग्वालियर - चम्बल ही भाजपा के लिए बना मुसीबत!
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲