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काश, ऐसा होता तो जेएनयू पर सवाल ही न उठते

    • रोशनी ठोकने
    • Updated: 07 मार्च, 2016 09:58 PM
  • 07 मार्च, 2016 09:58 PM
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देश विरोधी नारे लगाने वालों के खिलाफ पूरा जेएनयू एकजुट होता. सिर्फ निंदा नहीं करता बल्कि खुद ही FIR करता. पुलिस की पूछताछ में लेफ्ट, राईट और एडमिनिस्ट्रेशन खुद ही सहयोग करते. सोचिए, अगर ऐसा होता तो न जेएनयू पर सवाल उठते?

देश विरोधी नारे लगाने वालों के खिलाफ पूरा जेएनयू एकजुट होता. सिर्फ निंदा नहीं करता बल्कि खुद ही FIR करता. पुलिस की पूछताछ में लेफ्ट, राईट और एडमिनिस्ट्रेशन खुद ही सहयोग करते. सभी गवाह बनकर देश विरोधी नारे लगाने वालों की शिनाख्त करने में मदद करते. जो देशद्रोही, छात्रों की आड़ में खुद को बचाने में कामयाब हो गए, उन्हें ढूंढ निकालने में उतना ही जोर जेएनयू के छात्र लगाते, जितना आजादी के नारे देते वक्त लगाया गया.

सोचिए, अगर ऐसा होता तो न जेएनयू पर सवाल उठते, न कोई छात्र राइट और लेफ्ट विचारधारा के बीच 21 दिन जेल की सलाखों के पीछे गुजरता. और न ही लाइट, कैमरे के आगे 'कन्हैया' पैदा होता. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जानते हैं क्यूं? क्योंकि अगर सब कुछ ऐसा ही होता तो कह्नैया का आदर्श रोहित वेमुला कैसे बनता? देश में intolrance कहाँ से आती? राजनीतिक रोटियां सेंकने वालों की दुकानें कैसे चलती? केंद्र सरकार के खिलाफ माहौल खड़ा करने का मौका कैसे मिलता (ये जानते हुए भी कि अभी सरकार 3 साल तो रहेगी ही, चाहे आप कुछ भी कर लें). और कैसे देश का अंतरकलह अन्तर्राष्ट्रीय सुर्खियां बनता?

ये मेरे देश की ताकत ही है कि लोकतन्त्र के नाम पर आज भी देशभक्ति की परिभाषा लोग अपने अपने हिसाब से लिखते हैं. और यही मेरे देश की सबसे बढ़ी कमजोरी भी जहां देशभक्ति के नाम पर भी जनता दो-धड़ों में बंट जाती है. वैसे अफसोस होता है कि देशविरोधी नारों के जिम्मेदार चेहरों को (चाहे वो किसी भी पार्टी से ताल्लुक रखते हों) दुनिया के सामने लाने में दिलचस्पी किसी की नहीं दिख रही.

'गो इंडिया गो बैक' और 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' जैसे नारों के बावजूद जेएनयू लेफ्ट-राइट में बंट गया. मीडिया भी सच से दूर एक-दूसरे को सच्चा-झूठा साबित करने ही होड़ में लग गई. और सरकार या नेता जिन पर देश की अखण्डता बनाये रखने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है, वो तो ऐसे ही मौकों की तलाश में रहते हैं.

कोई भी सरकार असफल होती है, तो देश प्रगति पथ पर 5 साल पीछे रह जाता है. ये तो भारत का दुर्भाग्य है की यहां मॉडल...

देश विरोधी नारे लगाने वालों के खिलाफ पूरा जेएनयू एकजुट होता. सिर्फ निंदा नहीं करता बल्कि खुद ही FIR करता. पुलिस की पूछताछ में लेफ्ट, राईट और एडमिनिस्ट्रेशन खुद ही सहयोग करते. सभी गवाह बनकर देश विरोधी नारे लगाने वालों की शिनाख्त करने में मदद करते. जो देशद्रोही, छात्रों की आड़ में खुद को बचाने में कामयाब हो गए, उन्हें ढूंढ निकालने में उतना ही जोर जेएनयू के छात्र लगाते, जितना आजादी के नारे देते वक्त लगाया गया.

सोचिए, अगर ऐसा होता तो न जेएनयू पर सवाल उठते, न कोई छात्र राइट और लेफ्ट विचारधारा के बीच 21 दिन जेल की सलाखों के पीछे गुजरता. और न ही लाइट, कैमरे के आगे 'कन्हैया' पैदा होता. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जानते हैं क्यूं? क्योंकि अगर सब कुछ ऐसा ही होता तो कह्नैया का आदर्श रोहित वेमुला कैसे बनता? देश में intolrance कहाँ से आती? राजनीतिक रोटियां सेंकने वालों की दुकानें कैसे चलती? केंद्र सरकार के खिलाफ माहौल खड़ा करने का मौका कैसे मिलता (ये जानते हुए भी कि अभी सरकार 3 साल तो रहेगी ही, चाहे आप कुछ भी कर लें). और कैसे देश का अंतरकलह अन्तर्राष्ट्रीय सुर्खियां बनता?

ये मेरे देश की ताकत ही है कि लोकतन्त्र के नाम पर आज भी देशभक्ति की परिभाषा लोग अपने अपने हिसाब से लिखते हैं. और यही मेरे देश की सबसे बढ़ी कमजोरी भी जहां देशभक्ति के नाम पर भी जनता दो-धड़ों में बंट जाती है. वैसे अफसोस होता है कि देशविरोधी नारों के जिम्मेदार चेहरों को (चाहे वो किसी भी पार्टी से ताल्लुक रखते हों) दुनिया के सामने लाने में दिलचस्पी किसी की नहीं दिख रही.

'गो इंडिया गो बैक' और 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' जैसे नारों के बावजूद जेएनयू लेफ्ट-राइट में बंट गया. मीडिया भी सच से दूर एक-दूसरे को सच्चा-झूठा साबित करने ही होड़ में लग गई. और सरकार या नेता जिन पर देश की अखण्डता बनाये रखने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है, वो तो ऐसे ही मौकों की तलाश में रहते हैं.

कोई भी सरकार असफल होती है, तो देश प्रगति पथ पर 5 साल पीछे रह जाता है. ये तो भारत का दुर्भाग्य है की यहां मॉडल विकास का तो होता है लेकिन 'ifs and but' की राजनीति न विकास होने देती है न देश को मॉडल स्टेट बनने.

खैर, जो हुआ वो सही या गलत, इस पर सबकी अपनी राय है. लेकिन हाँ, अगर सब कुछ वैसा ही हुआ होता जैसा मैंने शुरुआत में लिखा है तो फिर हर दिन डे प्लान में जेएनयू न होता. और फिर मुझे रोज एक नया स्टोरी आईडिया ढूंढना पड़ता.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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