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पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव: लोकतंत्र और कानून व्यवस्था की खुलेआम हत्या

    • अमित अरोड़ा
    • Updated: 06 मई, 2018 01:04 PM
  • 06 मई, 2018 11:11 AM
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आंकड़े चीख-चीख कर बोल रहे हैं कि पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र खतरे में है. तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं पर हिंसा और बाहुबल प्रयोग कर अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को चुनाव लड़ने से रोकने का आरोप सच प्रतीत होता है.

पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव में मतदान होने से पहले ही तृणमूल कांग्रेस ने कुल सीटों में से 34.2% सीट निर्विरोध जीत ली हैं. 20,076 ऐसी सीटें है जहां तृणमूल कांग्रेस के अलावा किसी और राजनीतिक दल या स्वतंत्र उम्मीदवार ने नामांकन भी नहीं भरा है. पश्चिम बंगाल के इतिहास में पंचायत चुनाव में पहले कभी इतनी बड़ी संख्या में निर्विरोध जीत हासिल नहीं हुई है. 2003 में 6800 सीटें (11%), 2008 में 2845 सीटें (5.6%), 2013 में 6274 सीटें (10.7%) निर्विरोध जीती गई थी.

इतनी बड़ी संख्या में निर्विरोध जीत का क्या मतलब है? क्या तृणमूल कांग्रेस के सभी राजनीतिक प्रतिद्वंदियों ने पश्चिम बंगाल में सन्यास ले लिया है? क्या तृणमूल कांग्रेस के सभी राजनीतिक प्रतिद्वंदियों ने यह मान लिया है कि तृणमूल कांग्रेस के पास ऐसे 20,076 अद्वितीय उम्मीदवार हैं जिनके विरुद्ध चुनाव में लड़ने का कोई लाभ नहीं?

पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र खतरे में है

यह आंकडें चीख चीख कर बोल रहे हैं कि पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र खतरे में है. तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं पर हिंसा और बाहुबल प्रयोग कर अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को चुनाव लड़ने से रोकने का आरोप सच प्रतीत होता है. खुले आम राजनीतिक दलों को नामांकन प्रक्रिया में भाग लेने से रोका जा रहा है.

कलकत्ता उच्च न्यायालय ने भी हिंसा और अव्यवस्था को देखते हुए चुनाव आयोग को नामांकन की नई तारीखों की घोषणा करने के लिए कहा, लेकिन इसके बावजूद 34.2% सीटों पर तृणमूल कांग्रेस के अलावा कोई और नामांकन नहीं कर सका. जिन राजनीतिक प्रतिद्वंदियों ने साहस कर नामांकन कर दिया उन पर नामांकन वापिस लेने का दबाव डाला जा...

पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव में मतदान होने से पहले ही तृणमूल कांग्रेस ने कुल सीटों में से 34.2% सीट निर्विरोध जीत ली हैं. 20,076 ऐसी सीटें है जहां तृणमूल कांग्रेस के अलावा किसी और राजनीतिक दल या स्वतंत्र उम्मीदवार ने नामांकन भी नहीं भरा है. पश्चिम बंगाल के इतिहास में पंचायत चुनाव में पहले कभी इतनी बड़ी संख्या में निर्विरोध जीत हासिल नहीं हुई है. 2003 में 6800 सीटें (11%), 2008 में 2845 सीटें (5.6%), 2013 में 6274 सीटें (10.7%) निर्विरोध जीती गई थी.

इतनी बड़ी संख्या में निर्विरोध जीत का क्या मतलब है? क्या तृणमूल कांग्रेस के सभी राजनीतिक प्रतिद्वंदियों ने पश्चिम बंगाल में सन्यास ले लिया है? क्या तृणमूल कांग्रेस के सभी राजनीतिक प्रतिद्वंदियों ने यह मान लिया है कि तृणमूल कांग्रेस के पास ऐसे 20,076 अद्वितीय उम्मीदवार हैं जिनके विरुद्ध चुनाव में लड़ने का कोई लाभ नहीं?

पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र खतरे में है

यह आंकडें चीख चीख कर बोल रहे हैं कि पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र खतरे में है. तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं पर हिंसा और बाहुबल प्रयोग कर अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को चुनाव लड़ने से रोकने का आरोप सच प्रतीत होता है. खुले आम राजनीतिक दलों को नामांकन प्रक्रिया में भाग लेने से रोका जा रहा है.

कलकत्ता उच्च न्यायालय ने भी हिंसा और अव्यवस्था को देखते हुए चुनाव आयोग को नामांकन की नई तारीखों की घोषणा करने के लिए कहा, लेकिन इसके बावजूद 34.2% सीटों पर तृणमूल कांग्रेस के अलावा कोई और नामांकन नहीं कर सका. जिन राजनीतिक प्रतिद्वंदियों ने साहस कर नामांकन कर दिया उन पर नामांकन वापिस लेने का दबाव डाला जा रहा है. नामांकन वापिस लेने का दबाव बलात्कार के माध्यम से भी लगाया जा रहा है.

पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार बनने से पहले दशकों तक वाम दलों का साशन था. उस समय भी वाम दलों के कार्यकर्ताओं पर चुनावी हिंसा, मारना, धमकाना, मतदान के समय हेराफेरी ऐसे अनेक आरोप लगते थे. वर्तमान में उपरोक्त सारे आरोप तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं पर लगते है. पश्चिम बंगाल में चुनावी व्यवस्था पहले वाम दलों के तथाकथित गुण्डों के कारण जर-जर थी. अब वह तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के कारण दयनीय है. चुनावी अव्यवस्था जस की तस है, सिर्फ राजनीतिक दल बदल गए.

प्रधानमंत्री मोदी पर लोकतांत्रिक नियमों को तोड़ने का आरोप लगाने वाली ममता बनर्जी खुद क्या कर रही हैं?

पिछले चार साल में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार पर लोकतंत्र की हत्या करने, संविधान के मूल्यों का अपमान करने का आरोप कई बार लगाया होगा. कई बार प्रधानमंत्री मोदी पर लोकतांत्रिक नियमों को तोड़ने का आरोप लगाया है. इसके विपरीत जब उनपर पश्चिम बंगाल में मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति अपनाने के आरोप लगते हैं तो वह चुप्पी साध लेती हैं. स्कूल में सरस्वती पूजा का मामला हो, दुर्गा पूजा विसर्जन की तारीख का मामला हो, प्रदेश में घटित असंख्य संप्रदायिक हिंसा की घटनाएं हों, ममता बनर्जी एक पक्ष के साथ ही खड़ी दिखाई देती हैं. उस समय किसी को धर्म निरपेक्षता, कानून का राज और राज धर्म जैसे शब्द याद नहीं आते.

हैरानी की बात तो यह है कि ममता बनर्जी धर्म निरपेक्षता और संविधान की रक्षा के लिए प्रधानमंत्री को कोसने का कोई मौका नहीं छोड़तीं. 2019 आम चुनावों में इन मुद्दों को लेकर मोदी विरोधी जमात का नेतृत्व करना चाहती हैं, पर अपने राज्य में हो रहे पापों का कोई हिसाब देने को तैयार नहीं हैं. शायद धर्म निरपेक्षता के नाम पर सभी अन्य पाप माफ हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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