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मोदी से मुकाबले में नीतीश को लालू का ही आसरा, लेकिन शर्तें भी लागू हैं

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 18 सितम्बर, 2021 11:00 PM
  • 18 सितम्बर, 2021 10:58 PM
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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को चैलेंज करना मुश्किल होता जा रहा है. आखिरी उम्मीद लालू यादव (Lalu Prasad Yadav) ही हैं, लेकिन मदद का एक्सचेंज ऑफर अंदर तक चूस लेने वाला है.

नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की छटपटाहट स्वाभाविक है. जेडीयू नेताओं के बीच PM मैटीरियल समझे जाने के बावजूद नीतीश कुमार अपनी हदों की हकीकत भी समझते हैं - और हालात को बदलने की कोशिश में कोई कसर भी बाकी नहीं रखते, लेकिन राजनीतिक विरोधियों से बुरी तरह घिरे होने की वजह से होता ये है कि जैसे ही एक कदम आगे बढ़ाते हैं, कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है कि फौरन ही दो कदम पीछे हटना पड़ता है.

जातीय जनगणना के मुद्दे पर अरसा बाद नीतीश कुमार को मौका मिला था और पूरा फायदा भी उठाये. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से वक्त लेकर उन नेताओं के साथ मिल भी आये जो बिहार की राजनीति दूसरी छोर से करते हैं. बड़े दिनों बाद नीतीश कुमार के लिए एक ऐसे मुद्दे की तलाश पूरी हो सकी थी जिसकी बदौलत प्रधानमंत्री मोदी के साथ आमने सामने बैठ कर थोड़ा मोल-भाव कर सकें.

जल्दी ही अगला मौका हरियाणा के बुजुर्ग जाट नेता ओम प्रकाश चौटाला ने मुहैया करा दिया. एक प्रस्तावित नये विपक्षी मोर्चे को लीड करने का ऑफर भी दे डाला. चौधरी देवीलाल की स्मृति में 25 सितंबर को आयोजित विपक्षी जमघट में मौजूद रहने की हामी भी भर चुके थे, लेकिन ऐन वक्त पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के एक कदम से ऐसा दबाव बना कि बैकफुट पर आना पड़ा.

जातीय जनगणना पर बिहार के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने का प्रस्ताव नीतीश कुमार ने काफी सोच समझ कर स्वीकार किया था. ये फैसला भी मौजूदा राजनीतिक समीकरणों के बीच काफी जोखिमभरा रहा, लेकिन नीतीश कुमार ने नतीजों पर भी विचार किया ही होगा.

बेशक जातीय जनगणना की राजनीति में बीजेपी नेतृत्व के खिलाफ जाना नीतीश कुमार की राजनीतिक सेहत के लिए खतरनाक है, लेकिन इसी बहाने लालू यादव से नजदीकियां बढ़ाने का स्कोप भी तो बढ़ जाता है - एनडीए के मझधार में फंसे नीतीश कुमार...

नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की छटपटाहट स्वाभाविक है. जेडीयू नेताओं के बीच PM मैटीरियल समझे जाने के बावजूद नीतीश कुमार अपनी हदों की हकीकत भी समझते हैं - और हालात को बदलने की कोशिश में कोई कसर भी बाकी नहीं रखते, लेकिन राजनीतिक विरोधियों से बुरी तरह घिरे होने की वजह से होता ये है कि जैसे ही एक कदम आगे बढ़ाते हैं, कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है कि फौरन ही दो कदम पीछे हटना पड़ता है.

जातीय जनगणना के मुद्दे पर अरसा बाद नीतीश कुमार को मौका मिला था और पूरा फायदा भी उठाये. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से वक्त लेकर उन नेताओं के साथ मिल भी आये जो बिहार की राजनीति दूसरी छोर से करते हैं. बड़े दिनों बाद नीतीश कुमार के लिए एक ऐसे मुद्दे की तलाश पूरी हो सकी थी जिसकी बदौलत प्रधानमंत्री मोदी के साथ आमने सामने बैठ कर थोड़ा मोल-भाव कर सकें.

जल्दी ही अगला मौका हरियाणा के बुजुर्ग जाट नेता ओम प्रकाश चौटाला ने मुहैया करा दिया. एक प्रस्तावित नये विपक्षी मोर्चे को लीड करने का ऑफर भी दे डाला. चौधरी देवीलाल की स्मृति में 25 सितंबर को आयोजित विपक्षी जमघट में मौजूद रहने की हामी भी भर चुके थे, लेकिन ऐन वक्त पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के एक कदम से ऐसा दबाव बना कि बैकफुट पर आना पड़ा.

जातीय जनगणना पर बिहार के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने का प्रस्ताव नीतीश कुमार ने काफी सोच समझ कर स्वीकार किया था. ये फैसला भी मौजूदा राजनीतिक समीकरणों के बीच काफी जोखिमभरा रहा, लेकिन नीतीश कुमार ने नतीजों पर भी विचार किया ही होगा.

बेशक जातीय जनगणना की राजनीति में बीजेपी नेतृत्व के खिलाफ जाना नीतीश कुमार की राजनीतिक सेहत के लिए खतरनाक है, लेकिन इसी बहाने लालू यादव से नजदीकियां बढ़ाने का स्कोप भी तो बढ़ जाता है - एनडीए के मझधार में फंसे नीतीश कुमार को उबारने की उम्मीद भी अब सिर्फ लालू यादव से ही बची है.

लेकिन लालू यादव (Lalu Prasad Yadav) की तरफ से नीतीश कुमार को विपक्ष का सपोर्ट सिस्टम उपलब्ध कराने का मसला है उसमें भी बड़े सारे पेंच हैं - और लालू यादव भी अगर पुत्रमोह में कोई नया स्टैंड लेते हैं तो कांग्रेस नेतृत्व का पुत्रमोह ज्यादा भारी पड़ सकता है.

विपक्षी एकजुटता की राजनीति में भी इतने दांव पेच उलझे हुए हैं कि नीतीश कुमार सारी शर्तें मान लें तो भी लालू यादव कितनी मदद कर पाएंगे - ये फैसला भी वो अकेले लेने की स्थिति में नहीं लगते. तब तक तो बीजेपी की बल्ले बल्ले ही समझा जाएगा.

लालू पर टिकी नीतीश की उम्मीदें

2017 के यूपी विधानसभा चुनावों के दौरान नीतीश कुमार शुरू शुरू में खासे एक्टिव थे - और करीब करीब वैसे ही एक बार फिर फ्रंट फुट पर आकर खेलने लगे थे. पांच साल बाद राजनीति इतना बदल चुकी है कि नीतीश कुमार की ताजा सक्रियता उत्तर प्रदेश में अगले साल होने जा रहे विधानसभा चुनावों की वजह से तो नहीं लगती. तब बीजेपी भी बिहार की हार के बाद यूपी में सत्ता हासिल करने के लिए जूझ रही थी और नीतीश कुमार एक अलग मोर्चा खड़ा करने की कोशिश में रहे.

चुनावों से पहले तब नीतीश कुमार ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के आस पास के इलाकों में कई रैलिया की थी. फिर दिल्ली में यूपी के छोटे छोटे दलों की बैठक बुलायी और सभी साथ आने के लिए तैयार भी दिखे. एक मीटिंग में आरएलडी नेता अजीत सिंह ने अपने बेटे जयंत चौधरी के लिए डिप्टी सीएम की शर्त रख दी. वो भी चुनाव से पहले ही घोषणा किये जाने को लेकर - वो आखिरी मीटिंग तो नहीं थी, लेकिन बाद की एक दो बैठकों के बाद नीतीश कुमार थक हार कर पटना में बैठ गये. ये सब तब भी नीतीश कुमार के लिए कोई आसान काम नहीं था.

लालू यादव बेटे तेजस्वी के लिए कुछ भी करेंगे, लेकिन बात सोनिया गांधी का साथ छोड़ पीछे हटने की आयी तो?

नीतीश कुमार की रैलियों को लेकर आरजेडी के तमाम नेता काफी आक्रामक देखे गये. प्रधानमंत्री बनने को लेकर नीतीश कुमार के मन की बात भी पूछी जाने लगी. पहले तो टालने की काफी कोशिश की, लेकिन जब घिर गये तो ऐसे समझाया कि कोई किस्मतवाला ही प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ पाता है. ये किस्मतवाला शब्द भी नीतीश कुमार की बेचारगी तो दिखा ही रहा था, लेकिन इशारा प्रधानमंत्री मोदी की तरफ ही था. उससे पहले तेल की कीमतों को लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने राजनीतिक विरोधियों को टारगेट करते हुए कहा था कि अगर उनकी किस्मत से तेल की कीमतें कम हुईं तो देश का फायदा हो रहा है या नहीं.

नीतीश कुमार के महागठबंधन में होने के चलते लालू प्रसाद यादव के सामने भी वैसे ही सवाल उठे - कुछ इस तरह कि नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री बनने की बात आये तो क्या वो सपोर्ट करेंगे?

लालू यादव तपाक से बोले, 'कोई शक है का?'

लेकिन ये सब बहुत लंबा नहीं चल सका. यूपी में बीजेपी की सरकार बनते ही नीतीश कुमार को बीजेपी के भीतर से ही भनक लगी कि महागठबंधन छोड़ कर एनडीए में नहीं लौटे तो खेल हो जाएगा. फिर क्या था, एक दिन अचानक घर से निकले और राजभवन पहुंच कर इस्तीफा सौंप दिया - और तब तक डटे रहे जब तक नये सिरे से मुख्यमंत्री पद की शपथ नहीं ले लिये.

2020 के चुनाव के बाद भी नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ तो गये, लेकिन बीजेपी ने अपने हिस्से में इतनी ताकत तो बढ़ा ही ली थी कि पूरी मनमानी कर सके. बीजेपी ने कुर्सी पर बिठा तो दिया लेकिन हाथ-पैर बांध कर. अब हाथ पैर बंधे आदमी की छटपटाहट क्या होती है, ये नीतीश कुमार पल पल झेल रहे हैं - और ये भी महसूस कर रहे हैं कि एक बार फिर वो महागठबंधन वाले मुख्यमंत्री जैसे ही हो गये हैं. बल्कि, तब तो इतना ही होता कि लालू यादव के सरकारी कामों में दखल देने को बर्दाश्त करना पड़ता था - अब तो बगैर बीजेपी नेतृत्व से मंजूरी लिये, कोई बड़ा नीतिगत फैसला भी ले पाना संभव नहीं हो रहा.

हाल ही की बात है, चिराग पासवान के प्रति बीजेपी के बदले स्टैंड को देखते हुए नीतीश कुमार ने विपक्षी दलों के उस कार्यक्रम से दूरी बना ली, जिसमें कई दिग्गजों के हिस्सा लेने की अपेक्षा बतायी गयी है. INLD नेता ओम प्रकाश चौटाला की पहल और चौधरी देवीलाल के नाम पर होने जा रहे एक कार्यक्रम में ममता बनर्जी, शरद पवार, प्रकाश सिंह बादल, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, अरविंद केजरीवाल और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा तक को भेजा गया है.

जरूरी नहीं है कि नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैलेंज करने का मकसद 2024 में पीएम की कुर्सी ही हो - क्योंकि बंगाल चुनाव में बीजेपी को शिकस्त देने के बाद ममता बनर्जी अभी तो नीतीश कुमार से आगे निकल चुकी हैं - और हाशिये पर जाते जाते राहुल गांधी एक बार फिर प्रधानमंत्री पद के लिए प्रासंगिक होने में सफल नजर आ रहे हैं.

ऐसे में नीतीश कुमार के सामने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे रहने के जरूरी इंतजाम के साथ राजनीतिक अस्तित्व बचाने की चुनौती खड़ी हो गयी. अब नीतीश कुमार कोई ऐसे वैसे नेता तो हैं नहीं कि प्रधानमंत्री बनने की बात तो दूर, मुख्यमंत्री की कुर्सी भी पहले ही गवां बैठें.

बयानबाजी भी राजनीति में धूप से मिलने वाले विटामिन डी की तरह ही है, जो जिंदा ही नहीं रखती बल्कि कुछ देर तक चुस्त दुरूस्त बनाये रखने में भी काम आती है - और जेडीयू नेताओं चाहे वो उपेंद्र कुशवाहा हों या कोई और नीतीश कुमार को पीएम मैटीरियल बताकर ऐसी ही कोशिश कर रहे है.

लेकिन नीतीश कुमार को ये भी मालूम है कि संकट के बादलों की वजह से विटामिन डी मिलना मुश्किल होता जा रहा है, ऐसे में ताकत के लिए एक बार भी नीतीश कुमार की निगाह लालू परिवार की तरफ जा टिकी है, लेकिन लालू यादव भी हैं कि शर्तों की एक फेहरिस्त ही पेश कर दिये हैं - मानो तो मेवा पाओ.

ये जो शर्तें हैं, बहुत खतरनाक हैं

नीतीश कुमार अभी इतनी ही पहुंच बना पाये हैं कि राष्ट्रीय जनता दल की औपचारिक और अनौपचारिक बैठकों में होने वाली जिक्र में कभी कभी आ जाते हैं, लेकिन नेतृत्व की तरफ से ऐसी कोई भी पहल या सुझाव सीधे सीधे नकार दिया जाता है.

जेल से रिहा होकर दिल्ली पहुंचे लालू यादव से शुरूआती दौर में नीतीश कुमार को लेकर सवाल हुआ तो जैसे बिफर पड़े, '...हरवा दिया.' बाद में जरूर लालू यादव की तरफ से नीतीश कुमार को लेकर टालमटोल वाले रिस्पॉन्स आने लगे - और जातीय जनगणना की राजनीति आगे बढ़ने के साथ ही तेवर थोड़े नरम भी पड़े हैं. तेजस्वी यादव भी अब रोज सुबह ही सुबह ट्विटर पर धावा नहीं बोलते. जाती हुई बरसात के मौसम की तरह रूक रूक कर बरसते हैं.

2014 के बाद लालू यादव ने नीतीश कुमार से इसलिए भी हाथ मिलाया था क्योंकि उनके लिए सबसे बड़ा सपोर्ट सिस्टम कांग्रेस सत्ता से बुरी तरह बाहर हो चुकी थी - और आम चुनाव के बाद के चुनावों में भी बीजेपी की जीत का मशाल धीमा पड़ता भी नहीं दिखायी दे रहा था - अब न नीतीश कुमार में वो दम रह गया है और न ही लालू यादव को नीतीश की उस रूप में जरूरत बची है.

लालू यादव का एकमात्र मिशन अब जितना जल्दी संभव हो सके बेटे तेजस्वी यादव को बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाने का है - और अगर इस मामले में नीतीश कुमार कहीं मददगार बन पाते हैं तो उनकी सहायता से हाथ पीछे खींचने की नौबत नहीं आनी चाहिये.

नीतीश कुमार एक ही सूरत में लालू यादव के लिए मददगार नजर आ सकते हैं जब वो भी तेजस्वी यादव को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने के मिशन में भागीदार बन जायें - और अपना उत्तराधिकार तेजस्वी यादव को सौंपने की सार्वजनिक घोषणा करें.

उत्तराधिकार में भी सिर्फ मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने की राह की मुश्किलें खत्म करने भर से काम नहीं चलने वाला - तेजस्वी को सुशासन का उत्तराधिकार सौंपना होगा, ताकि जंगलराज के जो दाग माफी मांगने से भी नहीं धुल पा रहे हैं वो साफ हो जायें. सफाई और इतना मुकम्मल इंतजाम होना चाहिये कि आगे से कोई तेजस्वी यादव के लिए 'जंगलराज के युवराज' कहने की जरूरत न समझे या समझने के काबिल बचे. 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी रैलियों में तेजस्वी यादव को जंगलराज के युवराज कह कर वैसे ही बुलाते थे जैसे उससे पहले राहुल गांधी को युवराज कह कर.

जब नीतीश कुमार राजपाट सौंप कर बिहार से बाहर निकल जाएंगे और फिर पीछे मुड़ कर न देखने की शर्त भी निभाएंगे - तब कहीं जाकर लालू यादव भी नीतीश कुमार का सपोर्ट कर सकते हैं.

अब अगर नीतीश कुमार, लालू यादव के बेटे तेजस्वी यादव के लिए सब कुछ दांव पर लगाने के लिए तैयार हो जाते हैं तो जाहिर है, बदले में बहुत कुछ मिल सकता है - संभव है लालू यादव नये सिरे से सवालों के जवाब दें और वो 'कोई शक है का,' से आगे की पहल हो. संभव है नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री बनाने के लिए लालू यादव पूरी ताकत झोंक दें.

संभव है लालू यादव जैसे शरद पवार से एक छोटी सी मुलाकात के बाद उनको ममता बनर्जी से दिल्ली में रहते हुए भी न मिलने के लिए राजी कर लिये, ममता बनर्जी को नीतीश कुमार के लिए ही मुलायम सिंह यादव की तरह पलटी मार लें. ये लालू यादव ही हैं जो नोटबंदी के बाद की राजनीति में नीतीश कुमार के खिलाफ रैली कराने के लिए ममता बनर्जी को सारे संसाधन मुहैया कराये थे.

लालू यादव के लिए ऐसी कई चीजें संभव हो सकती हैं, लेकिन तब क्या जवाब देंगे जब ममता बनर्जी की जगह नीतीश कुमार की राह में राहुल गांधी दीवार बन कर खड़े हो जाएंगे - अभी तो वो राहुल गांधी के लिए ही बैटिंग कर रहे हैं.

एक दौर में विदेशी मूल के मुद्दे पर सोनिया गांधी का सपोर्ट करने वाले लालू यादव क्या अपने बेटे के भविष्य के लिए उनके बेटे के भविष्य को बर्बाद होने देंगे? देश में परिवारवाद की राजनीति का असली नमूना तभी देखने को मिलेगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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