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नीतीश कुमार ने कोविंद को समर्थन देकर निशाना कहीं और लगाया है

    • कुमार शक्ति शेखर
    • Updated: 23 जून, 2017 11:24 PM
  • 23 जून, 2017 11:24 PM
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आखिर 27 मई के बाद ऐसा क्या हुआ कि नीतीश कुमार ने अचानक अपना पाला बदल लिया और विपक्ष का दामन छोड़ सरकार से हाथ मिला लिया? इसका जवाब नीचे के घटनाक्रमों से साबित होता है-

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 21 जून को एनडीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को समर्थन की घोषणा कर दी. नीतीश कुमार के इस अप्रत्याशित कदम ने उनके प्रतिद्वंद्वियों और समर्थकों दोनों को आश्चर्यचकित कर दिया है. बिहार के मुख्यमंत्री के पाला बदलने पर कयास इसलिए लगाए जा रहे हैं क्योंकि खुद नीतीश कुमार ने ही वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के दूसरे टर्म के लिए विपक्ष को एकजुट करना शुरू किया था.

विपक्ष और नीतीश का साथ

राष्ट्रपति चुनाव के दौरान होने वाले विपक्षी पार्टियों की बैठक से गायब रहने के एक दिन बाद यानी 27 मई को नीतीश कुमार ने कहा था कि इस मुद्दे पर विपक्ष की एकता बरकरार है. हालांकि नीतीश कुमार ने ये बात प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की मेजबानी में दिए गए लंच से निकलने बाद कही थी.

आखिर 27 मई के बाद ऐसा क्या हुआ कि नीतीश कुमार ने अचानक अपना पाला बदल लिया और विपक्ष का दामन छोड़ सरकार से हाथ मिला लिया? इसका जवाब नीचे के घटनाक्रमों से साबित होता है-

नीतीश का पाला बदलना

उस समय तक प्रणब मुखर्जी ने संकेत दे दिया था कि दूसरे कार्यकाल में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है. नीतीश कुमार के लिए ये बड़ा झटका था. हालांकि, फिर भी उन्होंने प्रणब दा के मन को बदलने का इंतजार करते रहे. लेकिन बाद में यह साफ हो गया कि प्रणब मुखर्जी दूसरा कार्यकाल नहीं चाहते. इसके बाद नीतीश कुमार की उम्मीदें सोनिया गांधी की अध्यक्षता में विपक्ष द्वारा उम्मीदवार के चयन पर टिकी थी. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में विपक्ष ने 14 जून को मुलाकात की लेकिन हाथ फिर भी खाली ही रहे.

लेकिन पांच दिनों के बाद बीजेपी ने ऐसा धमाका कर दिया जिसने नीतीश कुमार सहित विपक्षी नेताओं को हक्का-बक्का कर दिया. एक तरफ जहां विपक्ष अभी तक राष्ट्रपति पद के लिए एक अदद उम्मीदवार खोजने में व्यस्त थी जबकि बीजेपी संसदीय बोर्ड ने 19 जून को बैठक करके बिहार के राज्यपाल और दलित नेता रामनाथ कोविंद को एनडीए की तरफ से...

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 21 जून को एनडीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को समर्थन की घोषणा कर दी. नीतीश कुमार के इस अप्रत्याशित कदम ने उनके प्रतिद्वंद्वियों और समर्थकों दोनों को आश्चर्यचकित कर दिया है. बिहार के मुख्यमंत्री के पाला बदलने पर कयास इसलिए लगाए जा रहे हैं क्योंकि खुद नीतीश कुमार ने ही वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के दूसरे टर्म के लिए विपक्ष को एकजुट करना शुरू किया था.

विपक्ष और नीतीश का साथ

राष्ट्रपति चुनाव के दौरान होने वाले विपक्षी पार्टियों की बैठक से गायब रहने के एक दिन बाद यानी 27 मई को नीतीश कुमार ने कहा था कि इस मुद्दे पर विपक्ष की एकता बरकरार है. हालांकि नीतीश कुमार ने ये बात प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की मेजबानी में दिए गए लंच से निकलने बाद कही थी.

आखिर 27 मई के बाद ऐसा क्या हुआ कि नीतीश कुमार ने अचानक अपना पाला बदल लिया और विपक्ष का दामन छोड़ सरकार से हाथ मिला लिया? इसका जवाब नीचे के घटनाक्रमों से साबित होता है-

नीतीश का पाला बदलना

उस समय तक प्रणब मुखर्जी ने संकेत दे दिया था कि दूसरे कार्यकाल में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है. नीतीश कुमार के लिए ये बड़ा झटका था. हालांकि, फिर भी उन्होंने प्रणब दा के मन को बदलने का इंतजार करते रहे. लेकिन बाद में यह साफ हो गया कि प्रणब मुखर्जी दूसरा कार्यकाल नहीं चाहते. इसके बाद नीतीश कुमार की उम्मीदें सोनिया गांधी की अध्यक्षता में विपक्ष द्वारा उम्मीदवार के चयन पर टिकी थी. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में विपक्ष ने 14 जून को मुलाकात की लेकिन हाथ फिर भी खाली ही रहे.

लेकिन पांच दिनों के बाद बीजेपी ने ऐसा धमाका कर दिया जिसने नीतीश कुमार सहित विपक्षी नेताओं को हक्का-बक्का कर दिया. एक तरफ जहां विपक्ष अभी तक राष्ट्रपति पद के लिए एक अदद उम्मीदवार खोजने में व्यस्त थी जबकि बीजेपी संसदीय बोर्ड ने 19 जून को बैठक करके बिहार के राज्यपाल और दलित नेता रामनाथ कोविंद को एनडीए की तरफ से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया.

हालांकि इस फैसले को विपक्ष ने ठुकरा दिया, लेकिन नीतीश कुमार ने निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए दो दिन का समय लिया. दूसरे कार्यकाल के लिए प्रणब मुखर्जी का इंकार करना, भाजपा के तरफ से कोविंद को अपना उम्मीदवार बनाना और विपक्ष का अभी भी राष्ट्रपति पद के लिए एक अदद उम्मीदवार को तरसना, इन सारी बातों के बाद नीतीश कुमार के पास बीजेपी के समर्थन के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था.

दलित पॉलिटिक्स

इस फैसले को लेते समय बिहार के मुख्यमंत्री के दिमाग में दो बातें चल रही होंगी- एक दलित का विरोध नहीं कर सकते, और दो, 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव.

बिहार में दलित राजनीति प्रमुख भूमिका निभाती है. दरअसल नीतीश ने दलितों में से भी महादलित को मथकर निकाला था और एक अलग वोट बैंक बनाया. कोविंद की उम्मीदवारी का विरोध करने का सीधा मतलब है दलितों की इच्छाओं और आकांक्षाओं के खिलाफ जाना. जिससे इस समुदाय की नाराजगी को झेलना होगा. जबकि इसी समुदाय के एक बड़े हिस्से ने 2015 के विधानसभा चुनावों में एनडीए खेमे के राम विलास पासवान और जीतन राम मांझी जैसे दलित नेताओं की मौजूदगी के बावजूद नीतीश कुमार को वोट दिया था. कुमार 2020 विधानसभा चुनावों में भी ये वोट बैंक बनाए रखना चाहते हैं.

2020 पर सारा ध्यान

नीतीश को ये पता है कि उनके लिए 2019 से ज्यादा जरूरी 2020 है. उन्हें अच्छे से पता है कि विपक्ष 2019 लोकसभा चुनावों के लिए शायद ही एकजुट हो और अगर ये एक साथ आ भी गए तो भी उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाएगा इसकी संभावना ना के बराबर है. और अगर ये दोनों बातें हो भी जाती हैं तो भी आज के हालात को देखते हुए मोदी को हराना नामुमकिन है.

दूसरी बात ये कि नीतीश कुमार राज्य सरकार में बीजेपी के समर्थन का विकल्प खुला रखना चाहते हैं. वर्तमान सहयोगी और आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद के साथ उनके संबंधों में फैली खटास से दुनिया वाकिफ है. और लालू के परिवार के सदस्यों के बेनामी सौदों पर आयकर छापे और ईडी कार्यवाही के साथ आने वाले दिनों में दोनों के बीच का रिश्ता और खराब हो सकता है.

मोदी और नीतीश के बीच की दूरी

कोविंद की उम्मीदवारी के समर्थन की घोषणा के बाद ऐसा माना जा रहा है की नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री के सामने हथियार डाल दिए हैं. हालांकि, यह वास्तविकता से बहुत दूर है. अगर ये मामला होता तो नीतीश ने तीसरे अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस का बहिष्कार नहीं किया होता. जबकि दुनिया भर में 180 से अधिक देशों ने और भारत के सभी राज्यों ने इसका जश्न मनाया. लेकिन बिहार ही एकमात्र राज्य था जिसने आधिकारिक रूप से इस दिन का पालन नहीं किया. वहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने न तो इस घटना का समर्थन किया और न ही इसका विरोध किया.

साथ ही नीतीश कुमार पीएम मोदी पर निशाना साधने से भी नहीं चूके. उन्होंने कहा कि- 'मैं भी योगा करता हूं लेकिन मैंने कभी इसका ढिंढोरा नहीं पीटा.' तो भले ही नीतीश कुमार ने विपक्ष के उम्मीदवार का विरोध करने का फैसला किया हो लेकिन वो सत्तारूढ़ भाजपा के पक्ष में भी नहीं हैं. वो दोनों के साथ दूरी बनाकर चल रहे हैं और मामले की गंभीरता को देखने के बाद अपना निर्णय करते हैं. उनके सारे निर्णय 2020 में होने वाले बिहार विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए लिए गए हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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