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नीतीश को महागठबंधन में लौटने का न्योता, उनकी मंजूरी कब मिलेगी ?

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 02 अप्रिल, 2018 07:53 PM
  • 02 अप्रिल, 2018 07:53 PM
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एनडीए ज्वाइन करने के बाद नीतीश कुमार ने कहा महागठबंधन सरकार में काम करना मुश्किल हो रहा था. एक बार फिर नीतीश के सामने वैसे ही हालात हैं और महागठबंधन से न्योता मिलने लगा है.

बिहार की तरह दंगे तो पश्चिम बंगाल में भी हुए हैं, लेकिन ममता बनर्जी से कहीं ज्यादा परेशान नीतीश कुमार हैं. वादे के मुताबिक नीतीश कुमार ने राजधर्म निभाया तो जरूर, लेकिन आगे की राह काफी मुश्किल लगती है. खासकर, एनडीए में बने रहने में. 'चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग' जैसी स्थिति एक बार फिर नीतीश कुमार को महसूस होने लगी है, ऐसा प्रतीत होता है.

बावजूद मुश्किलों के नीतीश कुमार के दोनों हाथों में एक बार फिर लड्डू आ गये हैं. बीजेपी की साथ वो सरकार तो चला ही रहे हैं, महागठबंधन में शामिल होने का उनको फिर से न्योता मिलने लगा है.

व्यक्ति बदले परिस्थितियां वही

कहते हैं व्यक्ति बदल जाते हैं, परिस्थितियां वही रहती हैं. नीतीश कुमार के साथ तो बिलकुल ऐसा ही हो रहा है. सरकार में साझीदार गठबंधन के साथियों के नाम जरूर बदल गये हैं, लेकिन नीतीश कुमार के सामने एक बार फिर वैसी ही चुनौतियां खड़ी हो गयी हैं जैसी महागठबंधन के दौर में बतायी जाती रहीं. कुछ किस्से औपचारिक भी और कुछ अनौपचारिक रूप से भी.

एनडीए में कब तक?

जब नीतीश कुमार महागठबंधन में थे तब बीजेपी कानून व्यवस्था को लेकर खूब शोर मचाती रही. चाहे वो गया का आदित्य सचदेवा मर्डर केस हो या फिर बाहुबली आरजेडी नेता शहाबुद्दीन का जमानत पर छूट कर जेल से बाहर आना हो.

नीतीश कुमार के लिए अर्जित शाश्वत का केस भी बिलकुल वैसा ही अनुभव रहा. पहले के दो मामलों में नीतीश के हाथ पुराने साझीदार के चलते बंधे हुए थे तो अर्जित केस में सत्ता के नये साथी के कारण. अर्जित, दरअसल, बीजेपी नेता और केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के बेटे हैं जिन्हें बीजेपी ने 2015 में भागलपुर से उम्मीदवार भी बनाया था.

गया मर्डर केस में उम्रकैद की सजा पा चुके रॉकी यादव की मां मनोरमा देवी तब...

बिहार की तरह दंगे तो पश्चिम बंगाल में भी हुए हैं, लेकिन ममता बनर्जी से कहीं ज्यादा परेशान नीतीश कुमार हैं. वादे के मुताबिक नीतीश कुमार ने राजधर्म निभाया तो जरूर, लेकिन आगे की राह काफी मुश्किल लगती है. खासकर, एनडीए में बने रहने में. 'चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग' जैसी स्थिति एक बार फिर नीतीश कुमार को महसूस होने लगी है, ऐसा प्रतीत होता है.

बावजूद मुश्किलों के नीतीश कुमार के दोनों हाथों में एक बार फिर लड्डू आ गये हैं. बीजेपी की साथ वो सरकार तो चला ही रहे हैं, महागठबंधन में शामिल होने का उनको फिर से न्योता मिलने लगा है.

व्यक्ति बदले परिस्थितियां वही

कहते हैं व्यक्ति बदल जाते हैं, परिस्थितियां वही रहती हैं. नीतीश कुमार के साथ तो बिलकुल ऐसा ही हो रहा है. सरकार में साझीदार गठबंधन के साथियों के नाम जरूर बदल गये हैं, लेकिन नीतीश कुमार के सामने एक बार फिर वैसी ही चुनौतियां खड़ी हो गयी हैं जैसी महागठबंधन के दौर में बतायी जाती रहीं. कुछ किस्से औपचारिक भी और कुछ अनौपचारिक रूप से भी.

एनडीए में कब तक?

जब नीतीश कुमार महागठबंधन में थे तब बीजेपी कानून व्यवस्था को लेकर खूब शोर मचाती रही. चाहे वो गया का आदित्य सचदेवा मर्डर केस हो या फिर बाहुबली आरजेडी नेता शहाबुद्दीन का जमानत पर छूट कर जेल से बाहर आना हो.

नीतीश कुमार के लिए अर्जित शाश्वत का केस भी बिलकुल वैसा ही अनुभव रहा. पहले के दो मामलों में नीतीश के हाथ पुराने साझीदार के चलते बंधे हुए थे तो अर्जित केस में सत्ता के नये साथी के कारण. अर्जित, दरअसल, बीजेपी नेता और केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के बेटे हैं जिन्हें बीजेपी ने 2015 में भागलपुर से उम्मीदवार भी बनाया था.

गया मर्डर केस में उम्रकैद की सजा पा चुके रॉकी यादव की मां मनोरमा देवी तब जेडीयू की ही एमएलसी रहीं और पिता बिंदेश्वरी उर्फ बिंदी यादव आरजेडी नेता रह चुके हैं. हत्या के बाद जब रॉकी यादव फरार था तो नीतीश कुमार का कहना रहा कि कानून के हाथ लंबे होते हैं - और कानून से बच कर कोई कहां तक जाएगा. कुछ ही दिन बाद बिहार पुलिस ने रॉकी यादव को गिरफ्तार कर लिया. शहाबुद्दीन के जमानत पर छूट कर आने के बाद भी खूब बवाल हुआ. नीतीश सरकार पर शहाबुद्दीन के खिलाफ मामलों में पैरवी में कोताही का आरोप लगा.

जेल से रिहा होते ही शहाबुद्दीन ने कहा कि नीतीश कुमार को परिस्थितियों के चलते मुख्यमंत्री बनाया गया है - और उसके नेता लालू प्रसाद हैं. बाद में जब प्रशांत भूषण ने पीड़ित परिवारों की ओर से सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दायर की तो नीतीश सरकार के वकील भी कोर्ट पहुंचे. नीतीश सरकार को कोर्ट की फटकार भी झेलनी पड़ी थी.

सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में बिहार

17 मार्च को भागलपुर से शुरू हुई सांप्रदायिक हिंसा की लपटों ने देखते ही देखते बिहार के औरंगाबाद, नालंदा, मुंगेर, समस्तीपुर और नवादा तक को अपनी चपेट में ले लिया. भागलपुर में हिंदू नववर्ष के मौके पर एक जुलूस निकाला गया था जिसका नेतृत्व अर्जित पटेल कर रहे थे. बताते हैं कि स्थानीय प्रशासन ने जुलूस की इजाजत नहीं दी फिर भी अर्जित ने तय कार्यक्रम के अनुसार जुलूस निकाला. इस केस में सरेंडर और गिरफ्तारी के ड्रामे के बाद अर्जित को 14 दिन की न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया गया है. सरकारी वकील के अनुसार जुलूस के दौरान अर्जित ने डीजे को एक चिप देकर प्ले करने को कहा. जब प्ले हुआ तो उत्तेजक नारे लगने लगे. माहौल खराब होते देर न लगी और पूरे इलाके में तनाव फैल गया.

पुलिस का दावा है कि हालात काबू में हैं और मीडिया रिपोर्ट भी बताती हैं कि नीतीश ने अफसरों और पुलिस को काम करने की छूट न दी होती तो बवाल और ज्यादा होता. मगर, साथ ही साथ सवाल भी उठ रहे हैं. आखिर खुफिया तंत्र क्या कर रहा था जब लोग इतनी बड़ी मात्रा में हथियार जमा कर रहे थे. नीतीश कुमार ने जिस अफसर को सूबे की पुलिस की कमान सौंपी है उसी के कार्यकाल में 1989 में भागलपुर का दंगा हुआ था.

महागठबंधन से न्योता

2015 में चुनाव जीतने के बाद नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद की पार्टी आरजेडी और कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार बनायी, लेकिन जुलाई 2017 आते आते हालात ऐसे हुए कि उन्हें महागठबंधन छोड़ना पड़ा. तब नीतीश ने तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के मामले में एफआईआर होने के बाद इस्तीफा न देने से नीतीश नाराज हुए और इस्तीफा दे दिया. इस्तीफे के बाद नीतीश कुमार का कहना था कि काम करना मुश्किल हो रहा था. 24 घंटे के भीतर ही नीतीश कुमार बीजेपी के समर्थन से दावा पेश कर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली.

एक बार फिर नीतीश कुमार के सामने वैसे ही हालात हुए लगते हैं. नीतीश कुमार को लगता है कि बिहार में फैली सांप्रदायिक हिंसा साजिश का हिस्सा है. 22 मार्च को बिहार दिवस के मौके पर नीतीश कुमार ने पटना के गांधी मैदान में कहा भी, ''कुछ लोग गड़बड़ी फैलाने की कोशिश कर रहे हैं... लोगों को सतर्क रहने की जरूरत है. मैं हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता हूं कि झगड़ा लगाने वालों के जाल में न फंसे.''

नीतीश कुमार किसी का नाम तो नहीं ले रहे हैं, लेकिन सवालों के जवाब में इशारों में ही सब कुछ समझाने की कोशिश करते हैं. एक सवाल के जबाव में हाल में नीतीश ने मीडिया से कहा - 'आप लोग जानते ही हैं हम किस पृष्ठभूमि के लोग हैं.' इस दौरान नीतीश ने सफाई दी कि उनके स्टैंड में कोई बदलाव नहीं आया है. नीतीश के इस बयान में मुस्लिम वोट बैंक को लेकर सतर्कता और बीजेपी से हो रही ऊब की झलक साफ पढ़ी जा सकती है. बाद में बीजेपी नेता और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के सामने भी सवाल उठा. गिरिराज सिंह का कहना रहा कि वो नीतीश कुमार के सांप्रदायिकता को स्वीकार न करने के बयान का स्वागत करते हैं, लेकिन ये भी पूछ लिया कि आखिर सांप्रदायिकता की परिभाषा क्या है.

केंद्रीय मंत्री और लोक जनशक्ति पार्टी नेता राम विलास पासवान ने जब एनडीए को आत्ममंथन की सलाह दी तो नीतीश कुमार ने आगे बढ़ कर स्वागत किया. पासवान भी साथ साथ सुर में सुर मिलाते देखे गये. एक तरफ नीतीश कुमार बीजेपी नेताओं पर गुमनाम हमले कर नेतृत्व को आगाह करने की कोशिश कर रहे हैं तो दूसरी तरफ उन्हें फिर से महागठबंधन में शामिल होने का न्योता भी मिलने लगा है. न्योता देने वालों में कांग्रेस नेताओं के साथ साथ आरजेडी से ताजा ताजा हाथ मिलाने वाले नीतीश के ही पुराने साथी जीतनराम मांझी भी हैं. मगर, अभी तेजस्वी यादव की सहमति सामने नहीं आयी है. तेजस्वी का तो कहना है कि सबको साथ ले लेंगे लेकिन बिहार की जनता से धोखा करने वाले नीतीश को नहीं.

एनडीए ज्वाइन करने के बाद नीतीश कुमार ने मीडिया के बीच आकर बयान दिया था - '2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने कोई नहीं टिक सकता.' देखना यह है नीतीश कुमार के बयान और तेजस्वी यादव के गुस्से की वैलिडिटी कब तक कायम रहती है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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