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Rakesh Tikait का नाम लेकर किसान नेता अपनी राजनीतिक मंशा जाहिर कर रहे हैं

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 10 दिसम्बर, 2021 08:01 PM
  • 10 दिसम्बर, 2021 08:01 PM
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किसान नेता शुरू से ही कृषि कानून विरोधी आंदोलन (Farmers Protest) के गैर-राजनीतिक होने का दावा करते रहे हैं - लेकिन दर्शन पाल सिंह (Darshan Pal singh) ने जो सलाहियत पेश की है वो राकेश टिकैत (Rakesh Tikait) सहित सभी किसान नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की तरफ इशारा है.

गैर राजनीतिक होने का दावा भी एक तरह की राजनीति ही होती है. कुछ वाकयों को छोड़ दें तो किसान आंदोलन (Farmers Protest) भी कभी ऐसा नहीं लगा. किसान नेताओं में मतभेद की वजह भी राजनीतिक ही रही - और एक बार फिर से बिलकुल ऐसा ही लगता है.

भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत (Rakesh Tikait) शुरू से ही कई किसान नेताओं के निशाने पर रहे हैं. किसान आंदोलन के स्थगित होने के बाद भी वही सब देखने सुनने को मिल रहा है जो किसान आंदोलन के विभिन्न पड़ावों पर हर किसी ने महसूस किया है.

ऐसा भी नहीं लगता कि राकेश टिकैत को दूसरे किसान नेता नये सिरे से टारगेट कर रहे हैं. असल बात तो ये है कि किसान नेता दर्शन पाल सिंह (Darshan Pal singh) तो राकेश टिकैत के सांकेतिक हमलों का ही जवाब दे रहे हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के बाद भी राकेश टिकैत ने साफ साफ बोल दिया कि आंदोलन खत्म नहीं होने वाला है, जब तक एमएसपी सहित बाकी मसले पर केंद्र सरकार का रुख साफ नहीं हो जाता - जो कुछ कहा गया वास्तव में उस पर अमल नहीं हो जाता और बाकी चीजों पर सरकार की तरफ से किसानों को लिखित आश्वासन नहीं मिल जाता.

राकेश टिकैत हाल तक कहते रहे कि सरकार की तरफ से किसान नेताओं में फूट डालने की कोशिशें हो रही हैं, जबकि असल बात तो ये रही कि उनमें पहले से ही फूट पड़ी रही. पंजाब से आने वाले किसान नेताओं का दावा रहा कि आंदोलन उनका शुरू किया हुआ है, लेकिन एक ऐसा वक्त आया जब आंखों से आंसू निकल आने के बाद राकेश टिकैत साथियों में बड़े नेता के तौर पर उभर आये. साथियों के लिए ये हजम कर पाना मुश्किल तो होगा ही.

दर्शन पाल सिंह का ये कहना कि जिस किसी की भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा है, संयुक्त किसान मोर्चा से बाहर हो जाये - सच तो ये है कि अगर वास्तव में ऐसा...

गैर राजनीतिक होने का दावा भी एक तरह की राजनीति ही होती है. कुछ वाकयों को छोड़ दें तो किसान आंदोलन (Farmers Protest) भी कभी ऐसा नहीं लगा. किसान नेताओं में मतभेद की वजह भी राजनीतिक ही रही - और एक बार फिर से बिलकुल ऐसा ही लगता है.

भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत (Rakesh Tikait) शुरू से ही कई किसान नेताओं के निशाने पर रहे हैं. किसान आंदोलन के स्थगित होने के बाद भी वही सब देखने सुनने को मिल रहा है जो किसान आंदोलन के विभिन्न पड़ावों पर हर किसी ने महसूस किया है.

ऐसा भी नहीं लगता कि राकेश टिकैत को दूसरे किसान नेता नये सिरे से टारगेट कर रहे हैं. असल बात तो ये है कि किसान नेता दर्शन पाल सिंह (Darshan Pal singh) तो राकेश टिकैत के सांकेतिक हमलों का ही जवाब दे रहे हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के बाद भी राकेश टिकैत ने साफ साफ बोल दिया कि आंदोलन खत्म नहीं होने वाला है, जब तक एमएसपी सहित बाकी मसले पर केंद्र सरकार का रुख साफ नहीं हो जाता - जो कुछ कहा गया वास्तव में उस पर अमल नहीं हो जाता और बाकी चीजों पर सरकार की तरफ से किसानों को लिखित आश्वासन नहीं मिल जाता.

राकेश टिकैत हाल तक कहते रहे कि सरकार की तरफ से किसान नेताओं में फूट डालने की कोशिशें हो रही हैं, जबकि असल बात तो ये रही कि उनमें पहले से ही फूट पड़ी रही. पंजाब से आने वाले किसान नेताओं का दावा रहा कि आंदोलन उनका शुरू किया हुआ है, लेकिन एक ऐसा वक्त आया जब आंखों से आंसू निकल आने के बाद राकेश टिकैत साथियों में बड़े नेता के तौर पर उभर आये. साथियों के लिए ये हजम कर पाना मुश्किल तो होगा ही.

दर्शन पाल सिंह का ये कहना कि जिस किसी की भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा है, संयुक्त किसान मोर्चा से बाहर हो जाये - सच तो ये है कि अगर वास्तव में ऐसा होने लगे तो किसान आंदोलन से उभर कर सामने आया एक भी चेहरा नहीं बचेगा.

किसान आंदोलन कभी गैर राजनीतिक तो नहीं लगा

पश्चिम यूपी से आने वाले राकेश टिकैत की ही तरह, पंजाब में किसान नेता दर्शन पाल सिंह, बलवीर सिंह राजेवाल और जोगिंदर सिंह उगराहां मुख्य चेहरा रहे हैं - और कृषि कानूनों की वापसी के बाद से ही किसान नेताओं के संभावित राजनीतिक कनेक्शन की झलक मिलने लगी थी.

दर्शन पाल सिंह ने राकेश टिकैत पर हमला बोल कर किसान आंदोलन के गैर राजनीतिक होने पर ही सवाल खड़ा कर दिया है

कुछ तो एकतरफा समझ में आया, लेकिन कुछ म्युचुअल भी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा के फौरन बाद राकेश टिकैत के आंदोलन न खत्म करने के पीछे वही मकसद लगा, जो तत्काल प्रभाव से आंदोलन को खत्म करने के पक्षधर रहे. दोनों ही पक्षों का अपना अपना राजनीतिक जुड़ाव रहा है, लेकिन वे बातें अलग अलग तरीके से निकल कर सामने आ रही हैं.

जो किसान नेता खुल कर आंदोलन जारी रखने की जिद पर अड़े रहे, वे भी और जो बैकडोर से सरकार के प्रतिनिधियों से बातचीत करने लगे थे - वे भी तो अपने को भविष्य के लिए राजनीतिक तौर पर तैयार ही कर रहे थे. बस इतनी सी बात किसान नेताओं की राजनीतिक मंशा को साफ कर देती है.

किसान नेता दर्शन पाल सिंह का जो भी स्टैंड हो, लेकिन उनका बयान महत्वपूर्ण तो है ही, '15 जनवरी की बैठक में ये भी चर्चा होगी कि संयुक्त किसान मोर्चा के राष्ट्रीय स्वरूप को कैसे पेश किया जाये... जो किसान नेता राजनीति में जाना चाहते हैं उनको SKM छोड़ देना चाहिये - एसकेएम गैर राजनीतिक रहेगा.'

1. किसान आंदोलन को कांग्रेस का समर्थन: 26 नवंबर से पहले से ही किसान आंदोलन पंजाब में शुरू हो चुका था - और देखा गया कि कैसे तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह का सपोर्ट हासिल रहा. मुख्यमंत्री रहते ही कैप्टन ने किसानों से शांतिपूर्ण आंदोलन की अपील की थी और ये भी कहा था कि उनके खिलाफ केस नहीं दर्ज किये जाएंगे. हालांकि, लंबे समय तक ये सब संभव नहीं था. लिहाजा कैप्टन ने किसानों को पंजाब की धरती से दिल्ली की सीमा पर पहुंचा देने का फैसला किया और उनकी ये कोशिश सफल भी रही.

दिल्ली में राहुल गांधी ने कांग्रेस दफ्तर से राष्ट्रपति भवन तक मार्च का ऐलान किया, लेकिन जब अनुमति नहीं मिली तो प्रियंका गांधी ने गिरफ्तारी दी और राहुल गांधी विपक्षी नेताओं के साथ राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को ज्ञापन सौंप आये. किसान आंदोलन के समर्थन में कांग्रेस के कुछ सांसदों ने काफी दिनों तक जंतर मंतर पर धरना भी दिया था.

2. लोग भी किसान आंदोलन में राजनीति देखते हैं: एक न्यूज चैनल के लिए सर्वे एजेंसी सी-वोटर ने दो दिन का स्नैप पोल कराया था जिसमें किसान आंदोलन पर लोगों की राय जानने की कोशिश की गयी. ये स्नैप पोल कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के ठीक बाद कराया गया जिसमें करीब ढाई हजार लोगों को शामिल किया गया था.

सर्वे में लोगों से पूछा गया - क्या किसान आंदोलन राजनीति से प्रेरित था?

ज्यादातर लोगों ने माना कि किसान आंदोलन राजनीति से प्रेरित था. सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक, 57 फीसदी लोगों का मानना रहा कि किसान आंदोलन राजनीतिक था, जबकि 35 फीसदी लोगों ने इसे गैर-राजनीतिक बताया. हां, 8 फीसदी लोग ऐसे भी रहे जिनका जवाब था - कह नहीं सकते.

3. कैसे किसान आंदोलन को गैर राजनीतिक मान लें: किसान आंदोलन को कांग्रेस के सपोर्ट का ताजा उदाहरण तो पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी की मुआवजे की घोषणा ही है. विधानसभा के विशेष सत्र के बाद चन्नी ने ट्वीट कर बताया था कि सरकार की तरफ से पंजाब के ऐसे 83 लोगों को दो-दो लाख रुपये का मुआवजा दिया जाएगा जिन्हें दिल्ली पुलिस ने 26 जनवरी की हिंसा में आरोपी बनाया है.

राकेश टिकैत की आंखों से आंसू निकल आने के बाद उनके मोबाइल पर नेताओं की कॉल को छोड़ भी दें तो मुजफ्फरनगर की किसान महापंचायत में उनके भाई नरेश टिकैत का पहला बयान ही ये सब समझने के लिए काफी है. नरेश टिकैत ने पिछले चुनावों में अजीत सिंह की पार्टी आरएलडी का साथ छोड़ देने पर खुलेआम अफसोस जताया था. ये अफसोस बीजेपी के सपोर्ट को लेकर रहा - और बाद के दिनों में यूपी की योगी सरकार से लेकर केंद्र की मोदी सरकार तक को उखाड़ फेंकने के राकेश टिकैत के बयानों को कैसे समझा जाये? क्या किसी को पंजाब की कांग्रेस सरकार के खिलाफ भी ऐसी बातें किसी किसान नेता के मुंह से सुनने को मिली हैं?

राकेश टिकैत का मौखिक हलफनामा

किसान नेता दर्शन पाल सिंह और राकेश टिकैत के बीच मतभेद कितने गहरे हो चुके हैं तभी पता चला जब सरकार से बात के लिए संयुक्त किसान मोर्चे की समिति को लेकर सवाल पूछे गये. दर्शन पाल सिंह ने बताया था कि पांच नामों पर सहमति बनाने की कोशिश हो रही है, जबकि राकेश टिकैत का कहना रहा कि उनको तो ऐसी कोई जानकारी है ही नहीं.

तभी दर्शन पाल ने राकेश टिकैत को जिम्मेदारी के साथ बयान देने की सलाह दी थी, ताकि आंदोलन में एकता बनी रहे. संयुक्त मोर्चे में मतभेद को लेकर दर्शन पाल का कहना रहा - किसान नेताओं को मुद्दे पर एकतरफा बयान नहीं देना चाहिये.

पिछले कुछ दिनों से संयुक्त मोर्चा में मतभेद की खबरें आ रही थीं. ये भी खबर आयी कि कुछ किसान नेता सरकार के साथ बैक डोर से बातचीत कर रहे हैं. ऐसा लगा जैसे कुछ नेता हर हाल में आंदोलन खत्म करना चाहते हैं, जबकि कई ऐसा नहीं चाहते. प्रधानमंत्री मोदी के कानूनों की वापसी के बाद तो राकेश टिकैत और दर्शन पाल दोनों ने ही आंदोलन खत्म न होने की बात कही थी.

राकेश टिकैत कह रहे थे - जो किसान नेता पहले घर जाएगा, वही पहले जेल जाएगा.

लखीमपुर खीरी हिंसा के बाद तो राकेश टिकैत की भूमिका पर कुछ ज्यादा ही सवाल उठने लगे थे. अक्सर वो कहते रहे, जिन्हें चुनाव भी लड़ना है, उन्हें भी मुकदमे का हलफनामा लगाना पड़ेगा. उनके पर्चे रद्द हो जाएंगे. अपनी पर्ची में मुकदमे के बारे में लिखना होगा.

अपने तरीके से आगाह भी करते रहे, लेकिन निशाने पर तो साथी किसान नेता ही रहे, जो चुनाव लड़ने के लिए ज्यादा हड़बड़ी में है, वो जल्दी जाएगा... वही जेल भी जाएगा. किसान नेताओं के बीच मतभेद पर राकेश टिकैत कहा करते, जब घर में भाई भाई का विचार नहीं मिलता... यहां पर भी अगर विचार नहीं मिल रहे हैं तो उसमें गड़बड़ क्या है?

और फिर जोर देकर अपना मौखिक हलफनामा भी पेश करते, "कुछ लोगों को चुनावी रोग लग जाता है और मैं कहां एफिडेविट दूं कि मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा - मेरी जबान ही मेरा एफिडेविट है. मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा.

राजनीति से परहेज किसे है

निशाने पर भले ही राकेश टिकैत हों, लेकिन किसान आंदोलन के स्थगित होने के बाद पंजाब में राजनीतिक दल किसान नेताओं की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश में जुट गये हैं. बातें तो यहां तक होने लगी हैं कि बलबीर सिंह राजेवाल आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री का चेहरा तक हो सकते हैं - और गुरनाम सिंह चढूनी ने तो पहले से ही पंजाब में चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुके हैं.

राकेश टिकैत का ट्रैक रिकॉर्ड: राकेश टिकैत 2007 में कांग्रेस के समर्थन से खतौली विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ चुके हैं, लेकिन छठे स्थान पर रहे. 2014 के लोक सभा चुनाव में राकेश टिकैत ने आरएलडी के टिकट पर किस्मत आजमायी लेकिन जमानत भी नहीं बचा पाये.

योगेंद्र यादव का संघर्ष जारी है: आम आदमी पार्टी के साथ योगेंद्र यादव ने राजनीतिक पारी शुरू जरूर की थी, लेकिन निकाल दिये जाने के बाद से स्वराज आंदोलन के जरिये किसानों में पैठ बनाने की कोशिश करने लगे. हरियाणा में नेताओं के घरों का घेराव और डिप्टी सीएम दुष्यंत चौटाला पर ताबड़तोड़ हमलों के अलावा, ट्रैक्टर रैली और मीडिया के जरिये किसानों की मजबूत आवाज बने रहे. लखीमपुर खीरी हिंसा के शिकार बीजेपी कार्यकर्ताओं के घर पहुंच कर शोक प्रकट करने वाले अकेले किसान नेता रहे, जिसके लिए सस्पेंड भी कर दिया गया था.

गुरनाम सिंह चढ़ूनी तो चुनाव लड़ेंगे ही: कई मौकों पर देखा गया है कि जब गुरनाम सिंह चढ़ूनी किसानों के राजनीति में आने की वकालत करते रहे हैं. गुरनाम सिंह चढ़ूनी का मानना है कि किसानों के हक की बात रखने के लिए उनके बीच का ही कोई संसद में होना चाहिये. पंजाब में भी चुनाव लड़ने की घोषणा तो वो कर ही चुके हैं.

ये जरूर देखने को मिला है कि किसान नेताओं ने राजनीतिक दलों को कभी अपने मंच का इस्तेमाल नहीं करने दिया, लेकिन ऐसा तो बिलकुल नहीं लगता कि इन किसान नेताओं में से किसी को भी राजनीति से कोई परहेज हो. जब ऐसा है तो कैसे मान लिया जाये कि संयुक्त किसान मोर्चा गैर-राजनीतिक संगठन है - और अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए किसी किसान भी किसान नेता को मोर्चा से अलग होने की जरूरत है?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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