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मोदी जी पाकिस्तान को अकेले करने के चक्कर खुद ना अकेले हो जाएं

    • अशोक के सिंह
    • Updated: 06 जून, 2017 04:11 PM
  • 06 जून, 2017 04:11 PM
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ये समझ आ गया है कि भारत की रणनीतिक तटस्थता उसके लिए एक फायदे का सौदा ही रही है. हाल के विदेश दौरे खासकर रूस के दौरे से इस बात के साफ संदेश मिलते हैं.

पीएम नरेन्द्र मोदी ने आखिर देर से ही सही अपना शोमैन का चोगा उतार फेंक ही दिया. इसके लिए पीएम साहब को बधाई मिलनी चाहिए. पीएम पद की शपथ लेने के ढाई साल तक नरेन्द्र मोदी ने देश और विदेश की भारतीय जनता को अपने मोह में बांध कर रखा हुआ है. बात चाहे मैडिसन स्कावयर की हो, वेंम्बले स्टेडियम, लंदन या फिर टोकियो में ड्रम बजाने का रूप धरना, उन्होंने अपने आप को भारत के बेस्ट शोमैन पॉलिटिशियन के रुप में स्थापित कर लिया था.

लेकिन ये सब तब था, जब मोदी जी का भारत और भारतीय लोगों के साथ हनीमून पूरे जोरों पर था और ये हनीमून थोड़े ज्यादा समय के लिए चले. लेकिन अब जबकि पीएम अपने नेतृत्व के चौथे साल में प्रवेश कर चुके हैं तो ये मानना पड़ेगा कि मोदी जी का बुलबुला फूट रहा है. मोदी जी के शोमैनशीप को अब भुनाने का वक्त गया. ये बात खुद मोदी जी भी जानते हैं कि शोमैन का शो कुछ समय के लिए ही चलता है. विदेश नीति को अनदेखा करके मोदी सरकार ने वैसे ही बहुत समय बर्बाद कर दिया है.

मोदी जी चार देशों के दौरे से लौट चुके हैं. जर्मनी, रूस, स्पेन और फ्रांस की यात्रा यथार्थवाद और व्यवहारिकता पर अधिक टिकी थी. अगर मोदी जी जर्मनी यात्रा और एंजेला मर्केल के साथ बैठक चीनी प्रधानमंत्री के आने के कारण सुर्खियां नहीं बटोर पाईं तो दूसरी तरफ पेरिस की यात्रा के हिस्से भी नए फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैन्यूअल मैक्रॉन के साथ गर्मजोशी से गले मिलने के अलावा कोई और कमाल नहीं दिखा पाई. हालांकि फ्रांस में फिर भी मोदी जी ने पेरिस जलवायु समझौते के प्रति भारत की प्रतिबद्धता के पुनर्मूल्यांकन के लिए दूरदर्शिता और साहस दिखाया. इससे ये हवा जरूर लगती है कि आखिर पीएम साहब के दिमाग में चल क्या रहा है.

मोदी का जादू खत्म हो रहा है

रूस के साथ संबंधों में फिर से गर्मजोशी लाने की कोशिश अमेरिका, रूस और...

पीएम नरेन्द्र मोदी ने आखिर देर से ही सही अपना शोमैन का चोगा उतार फेंक ही दिया. इसके लिए पीएम साहब को बधाई मिलनी चाहिए. पीएम पद की शपथ लेने के ढाई साल तक नरेन्द्र मोदी ने देश और विदेश की भारतीय जनता को अपने मोह में बांध कर रखा हुआ है. बात चाहे मैडिसन स्कावयर की हो, वेंम्बले स्टेडियम, लंदन या फिर टोकियो में ड्रम बजाने का रूप धरना, उन्होंने अपने आप को भारत के बेस्ट शोमैन पॉलिटिशियन के रुप में स्थापित कर लिया था.

लेकिन ये सब तब था, जब मोदी जी का भारत और भारतीय लोगों के साथ हनीमून पूरे जोरों पर था और ये हनीमून थोड़े ज्यादा समय के लिए चले. लेकिन अब जबकि पीएम अपने नेतृत्व के चौथे साल में प्रवेश कर चुके हैं तो ये मानना पड़ेगा कि मोदी जी का बुलबुला फूट रहा है. मोदी जी के शोमैनशीप को अब भुनाने का वक्त गया. ये बात खुद मोदी जी भी जानते हैं कि शोमैन का शो कुछ समय के लिए ही चलता है. विदेश नीति को अनदेखा करके मोदी सरकार ने वैसे ही बहुत समय बर्बाद कर दिया है.

मोदी जी चार देशों के दौरे से लौट चुके हैं. जर्मनी, रूस, स्पेन और फ्रांस की यात्रा यथार्थवाद और व्यवहारिकता पर अधिक टिकी थी. अगर मोदी जी जर्मनी यात्रा और एंजेला मर्केल के साथ बैठक चीनी प्रधानमंत्री के आने के कारण सुर्खियां नहीं बटोर पाईं तो दूसरी तरफ पेरिस की यात्रा के हिस्से भी नए फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैन्यूअल मैक्रॉन के साथ गर्मजोशी से गले मिलने के अलावा कोई और कमाल नहीं दिखा पाई. हालांकि फ्रांस में फिर भी मोदी जी ने पेरिस जलवायु समझौते के प्रति भारत की प्रतिबद्धता के पुनर्मूल्यांकन के लिए दूरदर्शिता और साहस दिखाया. इससे ये हवा जरूर लगती है कि आखिर पीएम साहब के दिमाग में चल क्या रहा है.

मोदी का जादू खत्म हो रहा है

रूस के साथ संबंधों में फिर से गर्मजोशी लाने की कोशिश अमेरिका, रूस और चीन जैसे सुपरपावर के साथ के बनते- बिगड़ते संबंधों को दिखाता है. हालांकि ये बताना मुश्किल है कि आखिर उंट किस करवट बैठेगा और यह दुनिया के साथ-साथ भारत को किस प्रकार प्रभावित करेगा.

मोदी जी के साथ रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन की मुलाकात, भारत-रूस के 70 सालों के सामरिक सहयोग और रिश्तों को बढ़ावा देना मोदी जी की रूस यात्रा का सबसे सकारात्मक पहलू है. भारत के प्रति पुतिन की सकारात्क सोच और गर्मजोशी से भरे रवैए ने भी सेंट पीटर्सबर्ग में प्रधान मंत्री को पॉजीटिव वाइब्स मिले जिसे वो एन्जवॉय भी कर रहे थे.

हां बस एनबीसी की मेगन केली को छोड़कर. मेगन ने मोदी से पूछना कि- 'क्या वो ट्विटर पर हैं'? हैरानी की बात ये है कि एनबीसी की टॉप पत्रकार हैं और उन्हें ये तक नहीं पता कि मोदी जी ट्विटर पर हैं या नहीं! जबकि मोदी जी ट्रम्प के बाद दुनिया के ट्विटर पर सबसे ज्यादा फॉलोवर (30.2 मिलियन) वाले नेता हैं. मेगन के इस सवाल पर भारत में उन्हें ट्रोल भी किया गया.

पीएम मोदी के हाल के विदेश दौरे खासकर रूस के दौरे से इस बात के साफ संदेश मिलते हैं कि मोदी जी को ये समझ आ गया है कि भारत की रणनीतिक तटस्थता उसके लिए एक फायदे का सौदा ही रही है. वहीं एक या दूसरे सुपर पावर के पक्ष में खड़ा होना भारत के लिए रिस्की और घाटे का सौदा हो सकता है.

भारत के वैश्विक गतिशीलता और सामरिक लक्ष्यों को फिर से जिंदा करने का दबाव आज से पहले कभी नहीं था. ट्रम्प के नेतृत्व में यूरोप से पीछे हटने के बाद, चीन और रूस के साथ ट्रम्प अप्रत्याशित रूप से मजबूत संबंधों का निर्माण कर रहा है. यही गलती मोदी सरकार ने पहले दो वर्षों में किया था. उन्हें उम्मीद थी कि ट्रम्प प्रशासन चीन को संतुलन बनाने के लिए एशिया में भारत को एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में बढ़ने में मदद करेगा. हालांकि ट्रम्प रूस और चीन दोनों को नाराज करने का रिस्क लेंगे इसमें संदेह ही है.

भारत ने रूस की ओर तब तक ध्यान नहीं दिया जब तक कि पुतिन अफगानिस्तान-पाकिस्तान के मामलों में चीन के साथ मिलकर कामयाब नहीं हो गया था. यही भारत के लिए आंखें खोलने वाली घटना थी. वहीं चीन अपने को महाशक्ति बताने के लिए चुपचाप, शांति से अपना काम किए जा रहा है. हालांकि भारत का अपना अस्तित्व जरूर है लेकिन चीन की वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को आगे बढ़ने से रोकने के लिए भारत की कोई अहमियत नहीं है.

ऐसा लगता है कि वैश्विक शक्तियों की बदलती गतिशीलता का आकलन करने में मोदी जी का अनुमान गलत हो गया है. पाकिस्तान और चीन के बारे में उनकी नीति उन धारणाओं पर आधारित थी, जो परिवर्तन और गतिशीलता को ध्यान में रखती. अपने अनिश्चित मान्यताओं के आधार पर ही पठानकोट और उरी में आतंकवादी हमलों और नियंत्रण रेखा (एलओसी) के पाक द्वारा उल्लंघन के कारण उसे अकेला छोड़ देने की रणनीति अपनाई थी.

पाकिस्तान को भले ही दुनिया की डांट-फटकार मिलती रहती है लेकिन साथ ही पाकिस्तान अपने घर में ही आतंकवाद का शिकार होने के कारण इनके संवेदनाओं का बटोरने में कामयाब रहता है. पाकिस्तान को अलग-थलग करने का आइडिया भारत के लिए कोई बहुत अच्छी खबर लेकर नहीं आया. किसी को इस बात भरोसा नहीं है और ना ही मानता है कि भारत, पाकिस्तान को अलग-थलग कर सकता है.

अगर वैश्विक शक्ति की मैट्रिक्स मोदी के लिए उठी है तो क्या वह अपनी पड़ोस नीति को रीसेट कर देगी? क्या वह दुनिया के साथ सक्रिय रूप जुड़ेंगे और जिसका कमान वाशिंगटन के हाथ में आश्रित नहीं रह सकता है?

सक्रिय सहभागिता और नीतियों को रीसेट करने के लिए मोदी को तुरंत ही विदेश मंत्रालय में एक मंत्री नियुक्ती करने की आवश्यकता है. उन्हें एक मंत्री को पूर्णकालिक जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए, जो अंतरराष्ट्रीय राजनीति की वास्तविकताओं के साथ सक्रिय रूप से जुड़ सके.

अगर मोदी "पृथक" और अलगाववादी नीति को ही आगे बढ़ाने की जिद पर अड़े रहते हैं तो वो दिन दूर नहीं जब खुद मोदी खुद को अकेले पाएंगे.

( DailyO से साभार )

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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