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शी जिनपिंग के साथ केमिस्ट्री तो मोदी-ओबामा दोस्ती की याद दिलाने लगी है

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 27 अप्रिल, 2018 09:26 PM
  • 27 अप्रिल, 2018 09:25 PM
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जैसी केमिस्ट्री कभी मोदी और ओबामा के बीच देखने को मिलती रही, तकरीबन वैसी ही गर्मजोशी फिलहाल मोदी और शी जिनपिंग के बीच लग रही है. क्या अपनी नीतियों के कारण ट्रंप पीछे छूट गये हैं या शी इसमें आगे बढ़ आये हैं?

मई 2014 में प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद से नरेंद्र मोदी चार बार चीन की यात्रा कर चुके हैं. अब 9 और 10 जून को भी चीन में होने जा रहे शंघाई सहयोग संगठन में भी हिस्सा लेने की अपेक्षा है.

मोदी अब तक सबसे ज्यादा बार अमेरिका का दौरा कर चुके हैं. जून में भी मोदी चीन जाते हैं तो ये पांचवां दौरा होगा और ये अमेरिका के बराबर होगा. पांच साल के शासन में पांच दौरा कुछ खास मायने तो रखता ही है.

और प्रोटोकॉल टूटते रहे

अतिथि देवो भवः के हिमायती प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मेहमानों के लिए अक्सर प्रोटोकॉल तोड़ते रहे हैं. सितंबर, 2014 में जब शी जिनपिंग तीन दिन के भारत दौरे पर आये तो मोदी उन्हें अपने अहमदाबाद ले गये. महात्मा गांधी के मशहूर साबरमती आश्रम में जिनपिंग ने चरखा चलाया तो साबरमती रिवर फ्रंट पर मोदी के साथ झूला भी झूले. ऐसे वाकये शायद ही कभी कोई भुला पाता है. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को हैदराबाद हाउस में मोदी के हाथ का बना चाय भी खूब याद आता होगा. जब तक ओबामा राष्ट्रपति रहे हर मौके पर मोदी के साथ उनके करीबी रिश्ते की झलक देखने को मिल जाती रही.

ओबामा जैसी केमिस्ट्री...

वैसे शी जिनपिंग ने भी प्रधानमंत्री मोदी के लिए प्रोटोकॉल तो तोड़ ही दिया है. ये पहला मौका है जब शी जिनपिंग किसी राष्ट्राध्यक्ष के लिए दो दिन तक बीजिंग से बाहर हैं. अब तक वो ऐसा तभी करते हैं जब कई मुल्कों के नेता सम्मेलन में हिस्सा लेने आते हैं. ये बातें ही मोदी और शी जिनपिंग की इस मुलाकात को अति महत्वपूर्ण बनाती हैं. न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट में भी इस अहमियत को महसूस किया गया है.

जिस तरह अमेरिका दौरे में मोदी ने अपने पुराने दिनों को याद किया था, शी जिनपिंग से मुलाकात में भी कुछ स्मृतियां साझा कीं,...

मई 2014 में प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद से नरेंद्र मोदी चार बार चीन की यात्रा कर चुके हैं. अब 9 और 10 जून को भी चीन में होने जा रहे शंघाई सहयोग संगठन में भी हिस्सा लेने की अपेक्षा है.

मोदी अब तक सबसे ज्यादा बार अमेरिका का दौरा कर चुके हैं. जून में भी मोदी चीन जाते हैं तो ये पांचवां दौरा होगा और ये अमेरिका के बराबर होगा. पांच साल के शासन में पांच दौरा कुछ खास मायने तो रखता ही है.

और प्रोटोकॉल टूटते रहे

अतिथि देवो भवः के हिमायती प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मेहमानों के लिए अक्सर प्रोटोकॉल तोड़ते रहे हैं. सितंबर, 2014 में जब शी जिनपिंग तीन दिन के भारत दौरे पर आये तो मोदी उन्हें अपने अहमदाबाद ले गये. महात्मा गांधी के मशहूर साबरमती आश्रम में जिनपिंग ने चरखा चलाया तो साबरमती रिवर फ्रंट पर मोदी के साथ झूला भी झूले. ऐसे वाकये शायद ही कभी कोई भुला पाता है. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को हैदराबाद हाउस में मोदी के हाथ का बना चाय भी खूब याद आता होगा. जब तक ओबामा राष्ट्रपति रहे हर मौके पर मोदी के साथ उनके करीबी रिश्ते की झलक देखने को मिल जाती रही.

ओबामा जैसी केमिस्ट्री...

वैसे शी जिनपिंग ने भी प्रधानमंत्री मोदी के लिए प्रोटोकॉल तो तोड़ ही दिया है. ये पहला मौका है जब शी जिनपिंग किसी राष्ट्राध्यक्ष के लिए दो दिन तक बीजिंग से बाहर हैं. अब तक वो ऐसा तभी करते हैं जब कई मुल्कों के नेता सम्मेलन में हिस्सा लेने आते हैं. ये बातें ही मोदी और शी जिनपिंग की इस मुलाकात को अति महत्वपूर्ण बनाती हैं. न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट में भी इस अहमियत को महसूस किया गया है.

जिस तरह अमेरिका दौरे में मोदी ने अपने पुराने दिनों को याद किया था, शी जिनपिंग से मुलाकात में भी कुछ स्मृतियां साझा कीं, "जब मैं गुजरात का मुख्यमंत्री था, तब मुझे वुहान आने का गौरव प्राप्त हुआ. मैंने यहां के बांध के बारे में बहुत सुना था. जिस स्पीड से आपने बांध का निर्माण कराया, उसने मुझे प्रेरित किया. मैं एक स्टडी टूर पर आया था और बांध पर एक दिन बिताया." मोदी का यही तो वो अंदाज है जो देश के किसी हिस्से से लेकर दुनिया के किसी कोने में भी उनके ऐसा कहते ही सहज रूप से कनेक्ट कर लेता है.

मोदी और शी जिनपिंग मुलाकात की एक खासियत और भी है कि इसके लिए मध्य चीन के खूबसूरत शहर वुहान को चुना गया है. ये मुलाकात भी अपनी तरह की पहली और अपनेआप में नायाब है. कहने को शिखर वार्ता है लेकिन दुनिया के सारे रस्मोरिवाज और औपचारिकताओं से बिलकुल परे. मुलाकात के अनौपचारिक होने का मतलब न तो कोई लिखित ब्योरा तैयार होगा न ही कोई ज्वाइंट प्रेस कांफ्रेंस या फिर कोई साझा घोषणा पत्र.

ट्रंप पिछड़ गये या शी आगे बढ़ गये

अंतर्राष्ट्रीय रिश्तों का अपना प्रोटोकॉल होता है. कुर्सी पर जो भी शख्स होता है वही रिश्ते को आगे बढ़ाता है. मनमोहन सिंह और मोदी में तुलना करते हुए पूछे गये एक सवाल के जवाब में ओबामा की यही राय रही. भारत और रूस की दोस्ती तो इस बात की बरसों तक मिसाल रही है. नेता भले बदलते गये लेकिन रिश्ता वैसा ही बना रहा. फिर तो होना ये चाहिये था कि बराक ओबामा वाली गर्मजोशी डोनॉल्ड ट्रंप भी मोदी के साथ दिखाते. फिलहाल लग तो ऐसा रहा है जैसे प्रधानमंत्री मोदी की शी जिनपिंग के साथ वैसी ही केमिस्ट्री होती जा रही है जैसी कभी बराक ओबामा के साथ देखी जाती रही.

क्या मोदी और शी जिनपिंग को करीब लाने में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप का भी कोई रोल है?

कुछ दिन पहले अमेरिका ने चीन के सामानों पर आयात शुल्क लगाने की घोषणा की थी. फिर चीन ने भी अपने तरीके से एक्शन लिया. इधर बीच वीजा सहित कुछ मामलों में अमेरिका की नीतियां भारत की परेशानी का सबब बनती नजर आ रही हैं.

जाहिर है चीन को भारतीय बाजार में कारोबारी संभावनाएं नजर आ रही होंगी - और भारत भी चीन से रिश्ते मजबूत कर अमेरिका पर दबाव बनाने की कोशिश में होगा ही. चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता का ये कहना कि भारत और चीन दोनों मुल्कों के साझा हित हैं और चिंताएं भी - क्योंकि दोनों ही उभरते बाजार हैं और ग्लोबलाइजेश को जारी रखने के पक्षधर भी.

भारत के अमेरिका के करीब जाने और डिफेंस डील के कारण पुराने दोस्त रूस से दूरी बढ़ती नजर आ रही है. यहां तक कि रूस से कुछ हथियारों को लेने के लिए भी भारत को अमेरिका की मंजूरी की जरूरत पड़ने लगी है. डोनॉल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिकी नीतियों में भी बहुत बदलाव हो रहे हैं - अमेरिका फर्स्ट. फिर तो यही कहा जा सकता है कि हालात ही ऐसे हैं कि भारत और चीन एक दूसरे के करीब आयें. सीमा विवाद और हथियारों की होड़ अपनी जगह है लेकिन बाकी बातों के लिए कारोबार सर्वोपरि है ताकि एक दूसरे की जरूरत पूरी हो सके. फिलहाल भारत और चीन इसी बात को तरजीह दे रहे हैं.

हिंदी-चीनी भाई भाई!

कुछ तो है. प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार कहा भी था कि इतने बरसों से सीमा विवाद होने के बावजूद दोनों तरफ से एक भी गोली नहीं चली. आखिर कोई खास बात है तभी तो.

फिर भी किसी को कुछ कमी लगती है तो कह सकते हैं मोदी दुनिया भर के नेताओं से गले मिलते हैं लेकिन शी जिनपिंग से सिर्फ हाथ मिलाते हैं - जब तक जवाब न मिले सवाल का भी मजा लेना चाहिये.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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