• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
सियासत

मायावती का हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड चुनाव में गेम प्लान

    • आईचौक
    • Updated: 15 सितम्बर, 2019 06:49 PM
  • 15 सितम्बर, 2019 06:49 PM
offline
आम चुनाव के दौरान यूपी में कांग्रेस की भूमिका को वोटकटवा के रूप में देखा गया था - जिसका सबसे ज्यादा नुकसान बीएसपी को हुआ. जिन तीन राज्यों में चुनाव होने हैं कहीं मायावती उसी का बदला तो नहीं लेना चाहती हैं?

मायावती एक बार फिर 'एकला चलो रे...' को फॉलो करने जा रही हैं. मायावती ऐसा इसलिए नहीं कर रही हैं क्योंकि कोई उनके साथ चलने को तैयार नहीं है. बल्कि बीएसपी नेता ऐसा इसलिए कर रही हैं - क्योंकि किसी का भी साथ रास नहीं आ रहा है. यूपी में समाजवादी पार्टी के साथ चुनाव लड़ने के बाद जब हार मिली तो मायावती ने गठबंधन ही खत्म कर दिया. अब तो मायावती यूपी में उपचुनाव भी अकेले लड़ने जा रही हैं. बीएसपी की ओर से उपचुनावों के लिए उम्मीदवारों की सूची भी जारी कर दी गयी है.

ऐसा भी नहीं है कि बीएसपी और कांग्रेस के बीच चुनावी गठबंधन को लेकर कोई बात नहीं होती. हाल फिलहा ही दिल्ली में एक मीटिंग हुई थी, लेकिन बीएसपी ने कांग्रेस के साथ भी किसी तरह के गठबंधन से साफ तौर पर इंकार किया है. अपडेट ये है कि मायावती की पार्टी BSP महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड तीनों ही राज्यों में अकेले दम पर चुनाव लड़ने जा रही हैं.

सवाल ये है कि मायावती के इस फैसले से सबसे ज्यादा किसे फायदा होने वाला है - निश्चित तौर पर BSP को या प्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस को या परोक्ष रूप में बीजेपी को?

BSP के हिस्से में क्या आएगा?

बीएसपी नेतृत्व की सबसे बड़ी चिंता घटता जनाधार है. मुश्किल भी सबसे बड़ी यही है कि बीएसपी की अपने इलाके उत्तर प्रदेश में ही हालत खराब हो चुकी है. राहत की बात ये है कि अखिलेश यादव के साथ हाथ मिला कर मायावती ने 2017 के मुकाबले 2019 में बीएसपी की स्थिति बेहतर कर डाली है. लगातार हार के कारण बीएसपी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा खोने का डर सताने लगा है. बीएसपी के अलावा देश में फिलहाल बीजेपी, कांग्रेस, TMC, CPI, CPM, NCP और नेशनल पीपल्स पार्टी ऑफ मेघायल को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिला हुआ है.

किसी राजनीतिक दल को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा तभी मिलता है जब उसके उम्मीदवार लोकसभा या विधानसभा चुनाव में चार या अधिक राज्यों में कम से कम 6 फीसदी वोट हासिल करें. ऐसी पार्टी के लोकसभा में भी कम से कम चार सांसद होने जरूरी हैं. साथ ही, कुल लोकसभा सीटों की कम...

मायावती एक बार फिर 'एकला चलो रे...' को फॉलो करने जा रही हैं. मायावती ऐसा इसलिए नहीं कर रही हैं क्योंकि कोई उनके साथ चलने को तैयार नहीं है. बल्कि बीएसपी नेता ऐसा इसलिए कर रही हैं - क्योंकि किसी का भी साथ रास नहीं आ रहा है. यूपी में समाजवादी पार्टी के साथ चुनाव लड़ने के बाद जब हार मिली तो मायावती ने गठबंधन ही खत्म कर दिया. अब तो मायावती यूपी में उपचुनाव भी अकेले लड़ने जा रही हैं. बीएसपी की ओर से उपचुनावों के लिए उम्मीदवारों की सूची भी जारी कर दी गयी है.

ऐसा भी नहीं है कि बीएसपी और कांग्रेस के बीच चुनावी गठबंधन को लेकर कोई बात नहीं होती. हाल फिलहा ही दिल्ली में एक मीटिंग हुई थी, लेकिन बीएसपी ने कांग्रेस के साथ भी किसी तरह के गठबंधन से साफ तौर पर इंकार किया है. अपडेट ये है कि मायावती की पार्टी BSP महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड तीनों ही राज्यों में अकेले दम पर चुनाव लड़ने जा रही हैं.

सवाल ये है कि मायावती के इस फैसले से सबसे ज्यादा किसे फायदा होने वाला है - निश्चित तौर पर BSP को या प्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस को या परोक्ष रूप में बीजेपी को?

BSP के हिस्से में क्या आएगा?

बीएसपी नेतृत्व की सबसे बड़ी चिंता घटता जनाधार है. मुश्किल भी सबसे बड़ी यही है कि बीएसपी की अपने इलाके उत्तर प्रदेश में ही हालत खराब हो चुकी है. राहत की बात ये है कि अखिलेश यादव के साथ हाथ मिला कर मायावती ने 2017 के मुकाबले 2019 में बीएसपी की स्थिति बेहतर कर डाली है. लगातार हार के कारण बीएसपी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा खोने का डर सताने लगा है. बीएसपी के अलावा देश में फिलहाल बीजेपी, कांग्रेस, TMC, CPI, CPM, NCP और नेशनल पीपल्स पार्टी ऑफ मेघायल को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिला हुआ है.

किसी राजनीतिक दल को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा तभी मिलता है जब उसके उम्मीदवार लोकसभा या विधानसभा चुनाव में चार या अधिक राज्यों में कम से कम 6 फीसदी वोट हासिल करें. ऐसी पार्टी के लोकसभा में भी कम से कम चार सांसद होने जरूरी हैं. साथ ही, कुल लोकसभा सीटों की कम से कम दो फीसदी सीट होनी चाहिए - और पार्टी के प्रतिनिधि भी कम से कम तीन राज्यों से आने चाहिए. जून, 2019 में चुनाव आयोग ने टीएमसी, सीपीआई और एनसीपी को इस सिलसिले में नोटिस दे चुका है - जाहिर है बीएसपी को भी ये चिंता निश्चित रूप से खाये जा रही होगी.

मायावती अब भी दलितों की राष्ट्रीय आवाज बनी हुई हैं. मायावती के अलावा रामविलास पासवान, रामदास अठावले और उदित राज भी दलित राजनीति करते रहे हैं, लेकिन उनका प्रभाव अपने अपने इलाकों तक ही सीमित रहा है. मायावती को युवा दलित नेताओं से थोड़ी चुनौती जरूर मिली थी, लेकिन वे जहां तहां बिखरने लगे हैं - यूपी की भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद रावण तो अब तक संभल कर कहीं खड़े भी नहीं हो पाये. चंद्रशेखर से कुछ बेहतर स्थिति जिग्नेश मेवाणी की जरूर है लेकिन काफी दौड़-धूप के बाद भी गुजरात से बाहर उनकी आवाज उतनी ही देर सुनायी देती है जब वो टीवी पर लाइव होते हैं.

महाराष्ट्र के विदर्भ में बीएसपी का खासा जनाधार रहा है, लेकिन वहां भी कड़ी टक्कर मिलने लगी है. महाराष्ट्र को लेकर असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM और प्रकाश अंबेडकर की वंचित बहुजन अघाड़ी के साथ मायावती की टीम ने विचार विमर्श किया था लेकिन बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ सकी. हरियाणा में भी वही हाल हुआ और बीएसपी को अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा करनी पड़ी है.

मायावती की राजनीति में न रक्षाबंधन टिकाऊ होता है, न गठबंधन

महाराष्ट्र की जिम्मेदारी मायावती ने बीएसपी के राज्य सभा सदस्य अशोक सिद्धार्थ और रामअचल राजभर को सौंपी है जो स्थानीय कार्यकर्ताओं के साथ मिल कर काम कर रहे हैं. हरियाणा में ये काम बीएसपी महासचिव सतीशचंद्र मिश्रा देख रहे हैं और अभी तो पूरे सूबे में उनका तूफानी दौरा चल रहा है. मायावती ने पहले अभय चौटाला को राखी बांधी थी लेकिन कुछ दिन बाद रक्षाबंधन पीछे छूट गया, फिर दुष्यंत चौटाला के साथ गठबंधन की बात हुई - जब JJP ने BSP को 90 में से 40 सीटों का ऑफर दिया तो मायावती ने अकेले लड़ने का फैसला कर लिया.

हरियाणा को लेकर मायावती और भूपिंदर सिंह हुड्डा के बीच करीब आधे घंटे की मीटिंग हुई थी और उसके बाद कयास लगाये जा रहे थे कि तमाम धक्के खाने के बाद दोनों दल शायद हाथ मिलाकर कर बीजेपी को टक्कर देने के बारे में सोच रहे हों - लेकिन हर बार कि तरह एक बार फिर वैसा कुछ नहीं हो सका. बताते हैं कि इस महत्वपूर्ण मीटिंग में हरियाणा कांग्रेस की नयी नवेली अध्यक्ष कुमार शैलजा भी मौजूद थीं.

चुनावी गठबंधन को लेकर बीएसपी के दावे और उसके राजनीतिक फैसले कभी भी स्पष्ट नहीं लगते - हमेशा ही बीएसपी की ओर से कहा कुछ और जाता है और नजर कुछ और आता है -

1. क्या वाकई मायावती ये चुनाव बीएसपी का जनाधार बढ़ाने के लिए लड़ रही हैं?

2. ऐसा तो नहीं कि मायावती 2018 का बदला 2019 में कांग्रेस से दोबारा लेना चाहती हैं? कांग्रेस ने बीएसपी को मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पांव नहीं जमाने का मौका नहीं दिया - मजबूरन बीएसपी को कांग्रेस सरकारों के सपोर्ट का फैसला करना पड़ा - ताकि वो सार्वजनिक तौर पर दावा कर सके कि बीएसपी की लड़ाई बीजेपी के खिलाफ है और वो इसे आगे भी जारी रखेगी.

3. कहीं ऐसा तो नहीं कि अनजाने में मायावती कांग्रेस को नुकसान पहुंचा कर बीजेपी को सीधा फायदा पहुंचा दे रही हैं?

मायावती किसके खिलाफ हैं - कांग्रेस या बीजेपी के?

मायावती का दावा तो यही रहता है कि उनका स्टैंड बीजेपी के खिलाफ है - लेकिन हाल में कर्नाटक विधानसभा में विश्वास मत के दौरान जो हुआ उससे तो यही लगा कि बीएसपी परदे के पीछे से बीजेपी की ही मददगार बन रही है.

कर्नाटक में मायावती ने जेडीएस के साथ मिल कर चुनाव लड़ा था और जब जेडीएस ने कांग्रेस के साथ मिल कर गठबंधन की सरकार बनायी तो बीएसपी विधायक को मंत्री भी बनाया गया था. बाद में बीएसपी विधायक ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, ये कहते हुए कि वो सरकार में शामिल रहने की जगह पार्टी को मजबूत करने में पूरा वक्त लगाना चाहते हैं. विश्वास मत के वक्त बीएसपी विधायक विधानसभा से गैरहाजिर रहा जिसका सीधा फायदा बीजेपी को मिलना तय था. बीएसपी विधायक ने बयान भी दिया कि वो आलाकमान की हिदायत के अनुसार अपने इलाके में है. जब जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी विश्वासमत हार गये और बीजेपी के सरकार बनाने का रास्ता साफ हो गया तो मायावती ने ट्विटर पर अपने विधायक को पार्टी से ही बाहर कर दिया.

क्या मायावती कांग्रेस से कोई बदला ले रही हैं? या फिर कर्नाटक की तरह हरियाणा चुनाव में भी जाने-अनजाने कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने के चक्कर में बीजेपी की मददगार साबित होने जा रही हैं?

मायावती की कांग्रेस से नाराजगी तो समझ में आती है. यूपी में कांग्रेस महासचिव फिर से चुनावी तैयारियों में जुट चुकी हैं - वो 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस को तैयार कर रही हैं. कहा ये भी जा रहा है कि 2022 में प्रियंका गांधी वाड्रा कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार भी हो सकती हैं. मायावती को इस हिसाब से कोई संदेह न है न होना चाहिये कि कांग्रेस यूपी में बीजेपी नहीं बल्कि बीएसपी और समाजवादी पार्टी की ही मुश्किल बढ़ाने वाली है.

मायावती के लिए 2022 कितना अहम है ये तो उनके अखिलेश यादव से गठबंधन तोड़ देने से ही जाहिर होता है. अखिलेश यादव के साथ तय हुआ था कि वो मायावती को 2019 में प्रधानमंत्री बनवाएंगे और बदले में मायावती समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष को 2022 में मुख्यमंत्री बनने में मदद करेंगी. आम चुनाव में अखिलेश यादव से डबल सीटें जीतने के बावजूद मायावती ने इसीलिए गठबंधन तोड़ लिया कि 2022 के लिए झंझट न रहे. जब प्रधानमंत्री का चांस लगा तो आजमा लिया लेकिन मिशन फेल रहा तो मुख्यमंत्री का मौका गंवा देना कोई राजनीतिक बुद्धिमानी तो है नहीं.

कांग्रेस नेताओं की तरफ से 2018 में विधानसभा चुनावों के दौरान मायावती पर बीजेपी के दबाव में गठबंधन से पीछे हटने का इल्जाम लगाया गया था - हो सकता है महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड चुनावों के बीच एक बार फिर मायावती को कांग्रेस की ओर से ऐसे आरोपों के घेरे में लाने की कोशिश हो.

इन्हें भी पढ़ें :

BSP विधायक का टिकट के लिए पैसे का आरोप पूरा सही नहीं है

कांशीराम के ख्वाब पर माया का मोह हावी!

सब माया है : मायावती के भतीजे ही उनके वारिस हैं, इसमें इतना क्या घबराना ?



इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    अब चीन से मिलने वाली मदद से भी महरूम न हो जाए पाकिस्तान?
  • offline
    भारत की आर्थिक छलांग के लिए उत्तर प्रदेश महत्वपूर्ण क्यों है?
  • offline
    अखिलेश यादव के PDA में क्षत्रियों का क्या काम है?
  • offline
    मिशन 2023 में भाजपा का गढ़ ग्वालियर - चम्बल ही भाजपा के लिए बना मुसीबत!
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲