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मायावती कहीं ब्राह्मणों के समर्थन पाने के चक्कर में दलित वोट न गवां बैठें

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 25 सितम्बर, 2021 01:24 PM
  • 25 सितम्बर, 2021 01:24 PM
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दलित राजनीति (Dalit Politics) के गढ़ उत्तर प्रदेश (UP Election 2022) की जगह मायावती (Mayawati) पंजाब में प्रयोग कर रही थीं तभी कांग्रेस ने बाजी मार ली - और बीएसपी के ब्राह्मण सम्मेलन के मुकाबले बीजेपी दलित सम्मेलन से चुनौती देने की तैयारी कर रही है.

पंजाब से अचानक दलित राजनीति (Dalit Politics) की नयी बयार बही है - चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना कर कांग्रेस फिर से दलितों के दिलों में पैठ बनाने की कोशिश कर रही है. पंजाब में पहली बार दलित राजनीति के चलते थोड़ी बहुत हलचल देखी जा रही है.

कांग्रेस भले ही पंजाब को पहला दलित मुख्यमंत्री देने का श्रेय ले रही हो, लेकिन असल बात तो ये है कि पंजाब में ये पहल बीजेपी की तरफ से हुई है, उसके बाद ही अकाली दल और बीएसपी के बीच गठबंधन हो सका है - और ये ऐलान भी कि गठबंधन के सत्ता में आने पर सूबे में डिप्टी सीएम की कुर्सी दलित नेता के लिए ही सुरक्षित रहेगी.

पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह से पीछा छुड़ाने की कोशिश में ही सही, लेकिन ये तो मानना ही पड़ेगा कि कांग्रेस ने बीजेपी और अकाली दल को राजनीतिक तौर पर पीछे छोड़ दिया है. पंजाब में दलित राजनीति के नाम पर चुनावी गठबंधन करने वाली मायावती यूपी में अकेले दम पर चुनाव मैदान में उतर चुकी हैं.

अब तक तो यही समझ में आ सका है कि मायावती (Mayawati) को किसी राजनीतिक दल से चुनावी गठबंधन से ज्यादा अपने पुराने प्रयोग सोशल इंजीनियरिंग पर भरोसा बना है. 2007 में ब्राह्मणों के साथ दलितों का गठजोड़ कर उत्तर प्रदेश (P Election 2022) की मुख्यमंत्री बन चुकीं मायावती और उनके साथी बीएसपी महासचिव बार बार डेढ़ दशक पुरानी यादें शेयर कर रहे हैं - और अचानक से ब्राह्मणों को शोषक की जगह शोषित के तौर पर प्रोजक्ट किया जाने लगा है. विडम्बना ये कि ब्राह्मण समुदाय के साथ नाइंसाफी को लेकर मिसाल भी विकास दुबे जैसे क्रिमिनल के एनकाउंटर से आ रही है.

बीएसपी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ब्राह्मण सम्मेलन की शुरुआत अयोध्या से करते हैं और फिर खुशी दुबे को इंसाफ दिलाने की बातें करने लगते हैं. बेशक खुशी दुबे...

पंजाब से अचानक दलित राजनीति (Dalit Politics) की नयी बयार बही है - चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना कर कांग्रेस फिर से दलितों के दिलों में पैठ बनाने की कोशिश कर रही है. पंजाब में पहली बार दलित राजनीति के चलते थोड़ी बहुत हलचल देखी जा रही है.

कांग्रेस भले ही पंजाब को पहला दलित मुख्यमंत्री देने का श्रेय ले रही हो, लेकिन असल बात तो ये है कि पंजाब में ये पहल बीजेपी की तरफ से हुई है, उसके बाद ही अकाली दल और बीएसपी के बीच गठबंधन हो सका है - और ये ऐलान भी कि गठबंधन के सत्ता में आने पर सूबे में डिप्टी सीएम की कुर्सी दलित नेता के लिए ही सुरक्षित रहेगी.

पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह से पीछा छुड़ाने की कोशिश में ही सही, लेकिन ये तो मानना ही पड़ेगा कि कांग्रेस ने बीजेपी और अकाली दल को राजनीतिक तौर पर पीछे छोड़ दिया है. पंजाब में दलित राजनीति के नाम पर चुनावी गठबंधन करने वाली मायावती यूपी में अकेले दम पर चुनाव मैदान में उतर चुकी हैं.

अब तक तो यही समझ में आ सका है कि मायावती (Mayawati) को किसी राजनीतिक दल से चुनावी गठबंधन से ज्यादा अपने पुराने प्रयोग सोशल इंजीनियरिंग पर भरोसा बना है. 2007 में ब्राह्मणों के साथ दलितों का गठजोड़ कर उत्तर प्रदेश (P Election 2022) की मुख्यमंत्री बन चुकीं मायावती और उनके साथी बीएसपी महासचिव बार बार डेढ़ दशक पुरानी यादें शेयर कर रहे हैं - और अचानक से ब्राह्मणों को शोषक की जगह शोषित के तौर पर प्रोजक्ट किया जाने लगा है. विडम्बना ये कि ब्राह्मण समुदाय के साथ नाइंसाफी को लेकर मिसाल भी विकास दुबे जैसे क्रिमिनल के एनकाउंटर से आ रही है.

बीएसपी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ब्राह्मण सम्मेलन की शुरुआत अयोध्या से करते हैं और फिर खुशी दुबे को इंसाफ दिलाने की बातें करने लगते हैं. बेशक खुशी दुबे एनकाउंटर में मारे गये एक अपराधी की पत्नी हैं जो विकास दुबे के गैंग में शामिल था - और इंसाफ पाना उनका हक है, लेकिन क्या वो ब्राह्मण की जगह दलित समुदाय से होतीं तो उनके अधिकार अलग हो जाते?

ऐसा लगता है जैसे मायावती जब तक ब्राह्मण वोट के चक्कर में पड़ी हैं और बीजेपी उनके दलित वोट पर ही हाथ साफ करने में जुट गयी है - मायावती की राजनीतिक स्टाइल से ऊबे उनके करीबी साथ छोड़ते जा रहे हैं और अब तो युवा दलित नेता चंद्रशेखर आजाद रावण भी असदुद्दीन ओवैसी के साथ मिल कर बीएसपी के ही वोट काटने की तैयारी में जुटे लगते हैं - कहीं ब्राह्मण वोटों के चक्कर में मायावती अपना दलित सपोर्ट बेस ही तो नहीं गंवाने जा रही हैं?

दलित राजनीति से साइकिल की सवारी की ओर

उत्तर प्रदेश में सत्ता में वापसी के लिए जोर मार रहीं मायावती के दो करीबी साथियों की साइकिल की सवारी सुर्खियों में छायी हुई है - और पूर्व मुख्यमंत्री समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव ने लालजी वर्मा जी और राम अचल राजभर से मुलाकात की तस्वीर को खुद ही ट्विटर पर शेयर करके मायावती तक अपना संदेश भी पहुंचा दिया है.

यूपी में बीजेपी ने बीएसपी की हालत न 'माया' मिले न राम जैसी कर दी है.

अखिलेश यादव ने दोनों नेताओं के साथ हुई मुलाकात को शिष्टाचार की कैटेगरी में ही रखा है, बताने की जरूरत नहीं कि राजनीति में शिष्टाचार वाली मुलाकातें कितनी खतरनाक होती हैं.

हालांकि, लालजी वर्मा और राम अचल राजभर दोनों ही नेताओं को मायावती ने बीएसपी से पहले ही निष्कासित कर दिया था, जब उन तक दोनों नेताओं के अखिलेश यादव से गुपचुप मुलाकात की खुफिया जानकारी पहुंच गयी थी.

खबर है कि 10 अक्टूबर को अंबेडकर नगर में समाजवादी पार्टी की रैली होने जा रही है - और उसी दौरान अखिलेश यादव की मौजूदगी में ही लालजी वर्मा और राम अचल राजभर समाजवादी पार्टी की सदस्यता लेने वाले हैं. दोनों नेताओं के लिए ये शक्ति प्रदर्शन का शानदार मौका साबित होने वाला है.

दरअसल, ये दोनों नेता अंबेडकर नगर से ही आते हैं - लालजी वर्मा अंबेडकर नगर की कटेहरी विधानसभा सीट से विधायक हैं जबकि राम अचल राजभर अकबरपुर सीट से विधायक हैं, जिसे मायावती का गढ़ समझा जाता है.

2017 में जब बीजेपी की आंधी में अखिलेश यादव सत्ता से हाथ धो बैठे, मायावती की बीएसपी भी महज 19 सीटों पर सिमट गयी थी, लेकिन वैसी प्रतिकूल परिस्थिति में भी बीएसपी को अंबेडकर नगर की चार विधानसभा सीटों पर जीत मिली थी, जिनमें दो नेता लालजी वर्मा और राम अचल राजभर ही रहे.

लालजी वर्मा और राम अचल राजभर दोनों ही कांशीराम के जमाने के नेता हैं और बीएसपी के संस्थापक सदस्यों में शुमार किये जाते हैं - मायावती के मुख्यमंत्री रहते बीएसपी सरकारों में ज्यादातर महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभाल चुके हैं.

स्वामी प्रसाद मौर्या भी इन दिनों मायावती पर खासे हमलावर नजर आ रहे हैं - खास कर ओबीसी नेताओं और सममुदाय के लोगों के सात मायावती पर उपेक्षा के आरोप लगा कर. खास बात ये है कि लालजी वर्मा और राम अचल राजभर भी ओबीसी समुदाय से ही आते हैं.

मायावती के ही एक और करीबी सहयोगी रहे नसीमुद्दीन सिद्धीकी बीएसपी सरकार के दौरान छोटे मुख्यमंत्री या मिनी सीएम के तौर पर जाने जाते थे, लेकिन फिलहाल वो कांग्रेस में सलमान खुर्शीद के साथ मुस्लिम वोट बैंक को पार्टी से जोड़ने में जुटे हुए हैं. सीएए विरोध प्रदर्शनों के समय से ही मुस्लिम समुदाय के बीच पैठ बनाने की कोशिश में जुटीं कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा के लिए नसीमुद्दीन सिद्धीकी उत्तर प्रदेश में जगह जगह उलेमा सम्मेलन करा रहे थे.

अखिलेश यादव तो मायावती की नाराजगी के शिकार नेताओं को बस शरण दे रहे हैं, बीजेपी तो जैसे बीएसपी की जड़ें खोदने में ही लग गयी है - और मायावती को काउंटर करने के मकसद से बीजेपी यूपी के सभी जिलों में जल्द ही दलित सम्मेलन कराने जा रही है.

ब्राह्मणों के चक्कर में दलित राजनीति भी दांव पर

मायावती को काउंटर करने के लिए बीजेपी ने उत्तराखंड के राज भवन से लाकर बेबी रानी मौर्य को यूपी के चुनाव मैदान में उतार दिया है. ताजा खबर ये आयी है कि बेबी रानी मौर्य को भी कांग्रेस से आये जितिन प्रसाद और निषाद पार्टी के संजय निषाद के साथ विधान परिषद भेजने की तैयारी है.

बेबी रानी मौर्या की दलित राजनीति का एक अन्य पहलू भी है और वो है, योगी आदित्यनाथ पर नकेल कसने की तैयारी. बेबी रानी मौर्य को भी नौकरशाह से नेता बने अरविंद शर्मा की ही तरफ विधान परिषद भेजा जा रहा है. अरविंद शर्मा के केस में दूध से जला बीजेपी नेतृत्व बेबी रानी मौर्य के केस में छाछ भी फूंक फूंक कर पी रहा है, तभी तो एहतियातन बेबी रानी मौर्य को बीजेपी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया गया है. अरविंद शर्मा भी उपाध्यक्ष ही हैं, लेकिन यूपी बीजेपी में.

बेबी रानी मौर्य को बीएसपी के खिलाफ मोर्चे पर तैनात किये जाने की बड़ी वजह ये है कि वो भी मायावती के जाटव समुदाय से ही आती हैं. यूपी में 22 फीसदी वोट बैंक के बूते दलितों की बेटी बन कर राजनीति करने वाली मायावती को अपनी जाटव बिरादरी का समर्थन तो मिलता रहा है, लेकिन गैर जाटव वोट गुजरते वक्त के साथ बीएसपी से दूर होता चला गया है. यूपी में 12 फीसदी जाटव वोट है, जबकि गैर-जाटव 10 फीसदी.

बीजेपी नेतृत्व पहले तो गैर-जाटव वोट को पार्टी से जोड़ने की कोशिश में रहा है, लेकिन बेबी रानी मौर्य के कार्यक्रम को देख कर तो यही लग रहा है कि बीजेपी की नजर अब सीधे मायावती के कोर वोट बैंक जाटव समुदाय पर जाकर टिक गयी है.

बताते हैं कि बीजेपी के यूपी चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान ने लखनऊ में पहली ही बैठक में बेबी रानी मौर्य को लेकर अपनी रणनीति तैयार कर ली है. कार्यक्रम कुछ ऐसे बना है कि पहले चरण में बेबी रानी मौर्य का ब्रज, पश्चिम, काशी, गोरखपुर, अवध और कानपुर-बुंदेलखंड क्षेत्रों में सम्मेलन आयोजित कर दलित समुदाय के लोगों से वैसे ही जोड़ने की कोशिश होगी, जैसे बीएसपी ब्राह्मण वोटों से जुड़ने के प्रयास कर रही है. ये प्रोग्राम अक्टूबर में शुरू होकर नवंबर तक चलेगा. दिसंबर से लेकर और चुनाव होने तक यूपी के हर जिले में बीजेपी बेबी रानी मौर्य को आगे कर हर जिले में वैसे ही दलित सम्मेलन कराएगी जैसे अयोध्या से लखनऊ तक बीएसपी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा पूरे परिवार के साथ ब्राह्मण सम्मेलन करते रहे हैं.

बेबी रानी मौर्य के साथ अपने दलित एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए बीजेपी ने प्रदेश महामंत्री प्रियंका रावत को कोऑर्डिनेटर नियुक्त किया है. हाल ही में बीजेपी के ब्लॉक प्रमुख और पंचायत अध्यक्षों के सम्मेलन में भी ऐसे ही नजारे दिखे जिसके निशाने पर मायावती नजर आती हैं. सम्मेलन में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा का स्वागत चित्रकूट जिला पंचायत के अध्यक्ष अशोक जाटव से कराया गया था. सहारनपुर से आयीं एक ब्लॉक प्रमुख सोनिया जाटव को भी जिस तरह महत्व दिया जा रहा था, बीजेपी के इरादे साफ तौर पर समझे जा सकते हैं.

अखिलेश यादव और बीजेपी ही नहीं, मायावती की मुश्किलें भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आजाद रावण अलग से बढ़ाने में लगे हुए हैं. ध्यान देने वाली बात ये भी है कि राजनीति के लिए आजाद समाज पार्टी बना चुके चंद्रशेखर आजाद रावण भी जाटव समुदाय से ही आते हैं - और मायावती की तरफ से लगातार खारिज किये जाने के बाद AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी और बीजेपी विरोध की राजनीति कर रहे ओम प्रकाश राजभर के साथ हाथ मिला कर चुनाव मैदान में उतरने की मंशा जाहिर कर चुके हैं. आगे का जो भी प्लान हो अभी तो ओम प्रकाश राजभर की तरफ से ऐसे ही दावे किये जा रहे हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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