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मायावती और केजरीवाल: गठबंधन की भारतीय राजनीति के दो विपरीत चेहरे

    • आईचौक
    • Updated: 21 मार्च, 2019 07:49 PM
  • 21 मार्च, 2019 07:47 PM
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गठबंधन की भारतीय राजनीति में कांग्रेस एक धुरी बनी हुई है और उसके तार आपस में दो ध्रुवों पर बैठी आम आदमी पार्टी और बीएसपी से जुड़ते-टूटते नजर आ रहे हैं. राहुल गांधी ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहां से वो केजरीवाल को तो झटका दे रहे हैं लेकिन मायावती से खा भी रहे हैं.

गठबंधन की मौजूदा भारतीय राजनीति में दो चेहरे साफ तौर पर उभर कर सामने आ रहे हैं - एक मायावती और दूसरे अरविंद केजरीवाल. दोनों की राजनीतिक शैली बिलकुल अलग है. गठबंधन की राजनीति में दोनों ही दलों में एक कॉमन फैक्टर है - कांग्रेस.

बीएसपी नेता मायावती के पुराने तरीके में यकीन रखती हैं. अभी अभी तो वो ट्विटर पर आई हैं - और अपने भांजे को बीएसपी से युवाओं को जोड़ने का काम थमाया है. मायावती की राजनीति में ये बदलाव भी दलित पॉलिटिक्स में चंद्रशेखर आजाद रावण और जिग्नेश मेवाणी जैसे युवा नेताओं के उभार के चलते आया हुआ लगता है.

आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल नये तरीके की राजनीति करते हैं. फिर भी अचानक यू-टर्न लेकर पुरानी स्टाइल अख्तियार कर लेते हैं. भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाकर राजनीति में आये अरविंद केजरीवाल आखिरकार वही तौर तरीके आजमाने लगे जो बाकी राजनीतिक दलों को रास आता है.

गठबंधन की भारतीय राजनीति में मायावती और अरविंद केजरीवाल अलग अलग ध्रुवों पर खड़े होते हैं - कम से कम कांग्रेस से गठबंधन को लेकर तो ऐसा कहा ही लगता है.

कांग्रेस भी एक के साथ हां तो दूसरे के साथ ना का फॉर्मूला अपनाये हुए है. मायावती के साथ हाथ मिलाने के लिए कांग्रेस अरसे से परेशान है, लेकिन वो हर बार झटका दे देती हैं. दूसरी तरफ आप नेता केजरीवाल कांग्रेस से गठबंधन के लिए इस कदर परेशान हैं कि दिल्ली और पंजाब न सही तो हरियाणा में ही गठबंधन करने की राहुल गांधी से गुहार कर रहे हैं.

मायावती अब कांग्रेस को बख्शने के मूड में नहीं लगतीं

13 मार्च को दोपहर बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में दो मुलाकातें काफी दिलचस्प रहीं. मेरठ में प्रियंका गांधी वाड्रा और भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद रावण की मुलाकात - और लखनऊ में अखिलेश यादव और मायावती की करीब डेढ़ घंटे चली मीटिंग. दोनों मुलाकातों से जो संकेत मिल रहे हैं वे आने वाले दिनों में यूपी की राजनीति के लिए बेहद अहम लगते हैं.

चर्चा है कि प्रियंका गांधी और भीम आर्मी के नेता की मुलाकात से...

गठबंधन की मौजूदा भारतीय राजनीति में दो चेहरे साफ तौर पर उभर कर सामने आ रहे हैं - एक मायावती और दूसरे अरविंद केजरीवाल. दोनों की राजनीतिक शैली बिलकुल अलग है. गठबंधन की राजनीति में दोनों ही दलों में एक कॉमन फैक्टर है - कांग्रेस.

बीएसपी नेता मायावती के पुराने तरीके में यकीन रखती हैं. अभी अभी तो वो ट्विटर पर आई हैं - और अपने भांजे को बीएसपी से युवाओं को जोड़ने का काम थमाया है. मायावती की राजनीति में ये बदलाव भी दलित पॉलिटिक्स में चंद्रशेखर आजाद रावण और जिग्नेश मेवाणी जैसे युवा नेताओं के उभार के चलते आया हुआ लगता है.

आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल नये तरीके की राजनीति करते हैं. फिर भी अचानक यू-टर्न लेकर पुरानी स्टाइल अख्तियार कर लेते हैं. भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाकर राजनीति में आये अरविंद केजरीवाल आखिरकार वही तौर तरीके आजमाने लगे जो बाकी राजनीतिक दलों को रास आता है.

गठबंधन की भारतीय राजनीति में मायावती और अरविंद केजरीवाल अलग अलग ध्रुवों पर खड़े होते हैं - कम से कम कांग्रेस से गठबंधन को लेकर तो ऐसा कहा ही लगता है.

कांग्रेस भी एक के साथ हां तो दूसरे के साथ ना का फॉर्मूला अपनाये हुए है. मायावती के साथ हाथ मिलाने के लिए कांग्रेस अरसे से परेशान है, लेकिन वो हर बार झटका दे देती हैं. दूसरी तरफ आप नेता केजरीवाल कांग्रेस से गठबंधन के लिए इस कदर परेशान हैं कि दिल्ली और पंजाब न सही तो हरियाणा में ही गठबंधन करने की राहुल गांधी से गुहार कर रहे हैं.

मायावती अब कांग्रेस को बख्शने के मूड में नहीं लगतीं

13 मार्च को दोपहर बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में दो मुलाकातें काफी दिलचस्प रहीं. मेरठ में प्रियंका गांधी वाड्रा और भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद रावण की मुलाकात - और लखनऊ में अखिलेश यादव और मायावती की करीब डेढ़ घंटे चली मीटिंग. दोनों मुलाकातों से जो संकेत मिल रहे हैं वे आने वाले दिनों में यूपी की राजनीति के लिए बेहद अहम लगते हैं.

चर्चा है कि प्रियंका गांधी और भीम आर्मी के नेता की मुलाकात से मायावती बेहद खफा हैं. सूत्रों के हवाले से खबर तो यहां तक आ रही है कि गठबंधन की सीटों में फेरबदल बहुत आसन्न है. समझा जाता है कि मायावती ने अखिलेश यादव से सीटों के बंटवारे पर नये सिरे से विचार विमर्श किया है.

मायावती और अखिलेश यादव की मुलाकात के बाद माना जा रहा है कि अमेठी और रायबरेली में भी सपा-बसपा गठबंधन के उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारे जा सकते हैं. पहले गठबंधन की ओर से ये दोनों सीटें राहुल गांधी और सोनिया गांधी के लिए छोड़ दी गयी थीं ताकि विपक्ष की आपसी लड़ाई का फायदा गठबंधन की राजनीतिक विरोधी बीजेपी ने उठा ले. हो सकता है अब ऐसा न हो.

सहारनपुर और आस पास के पश्चिम यूपी के इलाकों में भीम आर्मी के बढ़ते प्रभाव से मायावती काफी समय से परेशान रही हैं. दलित वोटों के बंटवारे की आशंका के चलते ही वो चंद्रशेखर आजाद रावण के बुआ कहने पर भी रिश्ते को सिरे से खारिज कर चुकी हैं. ऐसे में प्रियंका गांधी की मुलाकात के बाद संभावित चुनावी समझौते को मायावती अपने खिलाफ मान कर चल रही हैं.

कांग्रेस को कोई रियायत नहीं देने के पक्ष में मायावती...

इसी हफ्ते मायावती ने कांग्रेस के साथ पूरे देश में कहीं भी गठबंधन न करने का ऐलान किया है. हालांकि, मायावती के इस ऐलान को उनके करीबी आईएएस अधिकारी रहे नेतराम के ठिकानों पर आयकर विभाग के छापों से भी जोड़ कर देखा गया है. नेतराम के लोक सभा चुनाव लड़ने की चर्चा है और गठबंधन से इंकार को कांग्रेस से दूरी बनाये रखने के रूप में लिया गया. कुछ कुछ वैसे ही जैसे अखिलेश यादव और मायावती की पिछली मुलाकात के दौरान खनन घोटाले में हुई छापेमारी.

2018 के विधानसभा चुनावों के दौरान भी मायावती ने ऐसी ही घोषणा की थी, जबकि उसके पहले कांग्रेस और मायावती के मध्य प्रदेश और राजस्थान में गठबंधन की बहुत चर्चा रही. छत्तीसगढ़ में तो मायावती ने अजीत जोगी की पार्टी से पहले से ही हाथ मिला रखा था.

कांग्रेस ने मायावती से गठबंधन की कोशिश 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में भी की थी. जब गठबंधन नहीं हुआ तो कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी का साथ पंसद कर लिया.

मायावती शुरू से ही गठबंधन की राजनीति के खिलाफ रही हैं, खासकर चुनाव पूर्व गठबंधन को लेकर. मायावती ने गठबंधन भी खूब किये हैं और उसके खट्टे-मीठे तमाम अनुभव रहे हैं. सबसे खराब अनुभव गेस्ट हाउस कांड रहा है जिसका जहर पीकर मायावती ने दोबारा समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाया है. मायावती कांग्रेस और बीजेपी दोनों को एक जैसा बताती आ रही हैं - लेकिन अब ये मामला खतरनाक मोड़ पर पहुंचा हुआ लगता है.

दिल्ली में गठबंधन न सही, हरियाणा में ही कर लो जी!

कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन के मामले में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल निराश होते नहीं लगते. आप नेता ने कांग्रेस को अब नया ऑफर दिया है. दलील वही है साझा दुश्मन बीजेपी को शिकस्त देने के लिए.

दिल्ली कांग्रेस के नेताओं की ही तरह पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह ने साफ साफ कह दिया था कि आम आदमी पार्टी से गठबंधन की कतई जरूरत नहीं है. दिल्ली में कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर अरविंद केजरीवाल ने कई बार अपने मन की बात शेयर की है. एक बार तो कह दिया कि समझा समझा कर वो थक चुके हैं. बाद में कांग्रेस नेतृत्व के रूख को देखते हुए अरविंद केजरीवाल कहने लगे हैं कि दिल्ली में आप को कांग्रेस के साथ गठबंधन की जरूरत नहीं है. केजरीवाल का दावा है कि आम आदमी पार्टी अकेले दम पर दिल्ली की सभी सात सीटों पर बीजेपी को हरा देगी. फिलहाल दिल्ली की सभी सीटें बीजेपी के पास ही है.

दिल्ली तो नहीं लेकिन हरियाणा को लेकर अरविंद केजरीवाल ने हार नहीं मानी है. केजरीवाल ने इस बारे में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से एक बार विचार करने की अपील की है.

कांग्रेस में भी लगता है अरविंद केजरीवाल की अपील का असर हो रहा है. अपने शक्ति ऐप के जरिये कांग्रेस अंदरूनी सर्वे करा रही है जिसमें पार्टी नेतृत्व गठबंधन को लेकर जमीनी कार्यकर्ताओं की राय जानना चाहता है. बताते हैं कि कांग्रेस के दिल्ली प्रभारी पीसी चाको ने शक्ति ऐप पर एक ऑडियो क्लिप डाली है, जिसमें वो कहते हैं, 'मैं पीसी चाको दिल्ली कांग्रेस का प्रभारी बोल रहा हूं. बीजेपी को हराने के लिए क्या कांग्रेस पार्टी को आम आदमी पार्टी से गठबंधन करना चाहिए? हां के लिए 1 दबाइये ना के लिए 2 दबाइए.' कांग्रेस में जब कार्यकर्ताओं की राय लेनी होती है तो इन दिनों ऐसे ही सर्वे कराये जाते हैं. 2018 के विधानसभा चुनावों के बाद मुख्यमंत्रियों के चयन के लिए भी कार्यकर्ताओं से ऐसे ही फीडबैक लिये गये थे.

ये गतिविधियां बता रही हैं कि दिल्ली में भी कांग्रेस और आप के बीच गठबंधन की संभावना खत्म नहीं हुई है.

आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन के अपने नफा-नुकसान हो सकते हैं, लेकिन यूपी में मायावती की नाराजगी कांग्रेस की मुश्किल बढ़ाने वाली लगती है. अगर सपा-बसपा गठबंधन ने राहुल गांधी के खिलाफ अमेठी और सोनिया गांधी के खिलाफ रायबरेली में उम्मीदवार उतारे तो कांग्रेस के ही वोट कटेंगे और इसका सीधा फायदा बीजेपी को होगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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