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नोटबंदी पर ममता की मुहिम फायदेमंद तो है लेकिन काफी रिस्की भी

    • आईचौक
    • Updated: 24 नवम्बर, 2016 08:17 PM
  • 24 नवम्बर, 2016 08:17 PM
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ममता ने सबसे पहले नोटबंदी के मुद्दे पर इतना कड़ा स्टैंड लिया है, खुद ही राष्ट्रपति भवन तक मार्च की भी अगुवाई की है - और अब 28 नवंबर को 'आक्रोश दिवस' का ऐलान किया है.

पूरे दस साल तक अपनी खामोशी के लिए मशहूर रहे मनमोहन सिंह ने नोटबंदी पर संसद में अपनी बात जोरदार तरीके से रखी - यहां तक कि उसे 'संगठित लूट' और 'कानूनी चूक' तक करार दिया. नोटबंदी के मसले पर केंद्र सरकार का कड़ा विरोध हो रहा है. विपक्ष लामबंद हो चुका है, लेकिन कोई भी 'नोटबंदी' के विरोध में उस तरह नहीं खड़ा हुआ है जिस तरह ममता बनर्जी आगे आई हैं. हर कोई उसके तरीके पर आपत्ति जता रहा है जबकि ममता बनर्जी उसे वापस लेने के लिए दबाव बना रही हैं. हां, अरविंद केजरीवाल ने भी ममता की तरह रोल बैक की मांग की है. इस बीच कई लोग नोटबंदी के खिलाफ कोर्ट का दरवाजा भी खटखटा चुके हैं लेकिन उन्हें बैरंग लौटना पड़ा.

ममता बनर्जी शुरू से जनता की आवाज बनी रही हैं - और जनता के हित के नाम पर यूपीए सरकार से नाता भी तोड़ चुकी हैं, लेकिन इस बार उन्होंने बड़ा रिस्क लिया है.

मिशन 2019!

वैसे भी ममता संसद से ज्यादा सड़क पर ही सक्रिय रही हैं. ममता की मांग है कि मोदी सरकार नोटबंदी का फरमान जनहित में वापस ले. केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू कह रहे हैं कि कड़े फैसले वापस लेना मोदी के खून में नहीं है. ये बात अलग है कि वेंकैया लैंड डील का मामला भूल जा रहे हैं जिस पर मोदी सरकार को मजबूर पीछे हटना पड़ा - और आखिरकार वापस लेना पड़ा.

नोटबंदी के विरोध में ममता बनर्जी के इस कदर सड़क पर उतर आने की असल वजह आखिर क्या है?

2019 में मोदी अपनी सरकार के अगले कार्यकाल के लिए मैदान में उतरेंगे तो राहुल गांधी सत्ता में वापसी के लिए उन्हें चैलेंज करेंगे.

इसे भी पढ़ें: क्या नीतीश और मोदी के बीच की दूरियां मिट रही हैं?

वैसे अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की जो रेस है उसमें नीतीश कुमार, अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी सबसे आगे हैं. ये बात अलग है कि कुछ लोग...

पूरे दस साल तक अपनी खामोशी के लिए मशहूर रहे मनमोहन सिंह ने नोटबंदी पर संसद में अपनी बात जोरदार तरीके से रखी - यहां तक कि उसे 'संगठित लूट' और 'कानूनी चूक' तक करार दिया. नोटबंदी के मसले पर केंद्र सरकार का कड़ा विरोध हो रहा है. विपक्ष लामबंद हो चुका है, लेकिन कोई भी 'नोटबंदी' के विरोध में उस तरह नहीं खड़ा हुआ है जिस तरह ममता बनर्जी आगे आई हैं. हर कोई उसके तरीके पर आपत्ति जता रहा है जबकि ममता बनर्जी उसे वापस लेने के लिए दबाव बना रही हैं. हां, अरविंद केजरीवाल ने भी ममता की तरह रोल बैक की मांग की है. इस बीच कई लोग नोटबंदी के खिलाफ कोर्ट का दरवाजा भी खटखटा चुके हैं लेकिन उन्हें बैरंग लौटना पड़ा.

ममता बनर्जी शुरू से जनता की आवाज बनी रही हैं - और जनता के हित के नाम पर यूपीए सरकार से नाता भी तोड़ चुकी हैं, लेकिन इस बार उन्होंने बड़ा रिस्क लिया है.

मिशन 2019!

वैसे भी ममता संसद से ज्यादा सड़क पर ही सक्रिय रही हैं. ममता की मांग है कि मोदी सरकार नोटबंदी का फरमान जनहित में वापस ले. केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू कह रहे हैं कि कड़े फैसले वापस लेना मोदी के खून में नहीं है. ये बात अलग है कि वेंकैया लैंड डील का मामला भूल जा रहे हैं जिस पर मोदी सरकार को मजबूर पीछे हटना पड़ा - और आखिरकार वापस लेना पड़ा.

नोटबंदी के विरोध में ममता बनर्जी के इस कदर सड़क पर उतर आने की असल वजह आखिर क्या है?

2019 में मोदी अपनी सरकार के अगले कार्यकाल के लिए मैदान में उतरेंगे तो राहुल गांधी सत्ता में वापसी के लिए उन्हें चैलेंज करेंगे.

इसे भी पढ़ें: क्या नीतीश और मोदी के बीच की दूरियां मिट रही हैं?

वैसे अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की जो रेस है उसमें नीतीश कुमार, अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी सबसे आगे हैं. ये बात अलग है कि कुछ लोग मुलायम सिंह को फिर से ऐसे सपने दिखाने लगे हैं!

नीतीश कुमार तो प्रधानमंत्री पद को किस्मत कनेक्शन से जोड़ते हुए एक तरीके से अपनी ख्वाइश जाहिर भी कर चुके हैं - और अपने मिशन - शराबमुक्त समाज और संघमुक्त भारत के बूते आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं. पीएम उम्मीदवार के लिए यूपी अहम होता है इसलिए जितना संभव हो सकता है सक्रिय बने रहने की कोशिश भी कर रहे हैं.

रोल बैक से कम मंजूर नहीं...

अरविंद केजरीवाल ने पंजाब से लेकर गुजरात तक वाया गोवा अपना एक्शन प्लान बना कर पूरी शिद्दत से जुटे हुए हैं. यही वजह है कि मोदी और राहुल पर पूरी इमानदारी से बराबर हमले करते रहते हैं.

अब बचीं ममता बनर्जी. डंके की चोट पर पश्चिम बंगाल की सत्ता में वापसी के बावजूद ममता सीन से गायब नजर आ रही थीं. दिल्ली में जब तक एक्टिव होने की कोशिश भी कीं तो मामला कुछ खास बनते नहीं दिखा. बीजेपी और कांग्रेस विरोधी फोरम खड़ा करने की कोशिश भी नाकाम ही रही.

अगर मौके के हिसाब से देखा जाये तो नोटबंदी का मामला माकूल रहा, लेकिन राह उतनी ही मुश्किल है. जिस आम आदमी की राजनीति केजरीवाल और ममता करते हैं मोदी ने एक ही दांव से उनमें से ज्यादातर को फिलहाल अपने पाले में कर लिया है. लोग बैंकों के बाहर लाठी खाकर भी मोदी-मोदी के नारे लगाने से चूक नहीं रहे हैं. खुद केजरीवाल के साथ जब ममता बनर्जी दिल्ली की आजादपुर मंडी पहुंची तो उन्हें ये सिचुएशन फेस करनी पड़ी.

लेकिन रिस्क फैक्टर भी है...

ये सही है कि ममता उसी आम आदमी की आवाज उठा रही हैं जिस पर नोटबंदी की मार सबसे ज्यादा है. खुद की गाढ़ी कमाई की रकम होने के बावजूद वो दस दस रुपये के लिए मोहताज बना हुआ है. फिर भी खबर आ रही है कि नोटबंदी पर प्रधानमंत्री को राय देने वालों में 90 फीसदी लोगों ने समर्थन जताया है.

ऐसे में जब 90 फीसदी लोग नोटबंदी को सही मान रहे हैं, ममता अपने विरोध के पीछे क्या तर्क पेश करेंगी. लोग मान रहे हैं कि मोदी का फैसला गरीबों के हित में है, फिर ममता उन्हीं गरीबों को कैसे समझाएंगी कि नहीं उन्हें गुमराह किया जा रहा है.

किसी और मुद्दे पर मोदी को घेरने की बात और है - लेकिन उस मसले पर जिस पर लोग रोजाना की परेशानियों को भूल कर भी वाह वाह कर रहे हैं - कोई कितना भी लोकप्रिय नेता लोगों को किस बूते समझा सकता है.

ममता का दावा यहां तक है कि कुछ राजनैतिक दल इसलिए ठीक से विरोध नहीं कर पा रहे हैं - क्योंकि ‘प्रधानमंत्री उन्हें धमका रहे हैं.’ ममता कहती हैं, "लेकिन मैं इससे नहीं डरूंगी. मैं प्रदर्शन जारी रखूंगी. वो मुझे जेल में डाल सकते हैं."

एक रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि करोड़ों रुपये के चिटफंड घोटाले में जिन नेताओं का हाथ है, वे उन पर हमला कर रहे हैं क्योंकि नोटबंदी से सबसे ज्यादा आघात उन्हें ही लगा है. मोदी की इस बात को ममता बनर्जी से जोड़ कर देखा गया. हालांकि, इसी साल हुए विधानसभा चुनाव में जनता ने ममता को वोट देकर 'शारदा' और 'नारद' जैसे इल्जामों से बाइज्जत बरी कर दिया.

इसे भी पढ़ें: अगर आप नोटबंदी के खिलाफ हैं तो आप 'देशद्रोही' हैं!

हाल के उपचुनाव में ममता के उम्मीदवारों को भारी जीत मिली है और ममता इस बात से खासी उत्साहित हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल में बीजेपी का वोट प्रतिशत बढ़ाना भी उन्हें नागवार गुजर रहा होगा.

ममता ने सबसे पहले नोटबंदी के मुद्दे पर इतना कड़ा स्टैंड लिया है, खुद ही राष्ट्रपति भवन तक मार्च की भी अगुवाई की है - और अब 28 नवंबर को 'आक्रोश दिवस' का ऐलान किया है.

ममता को साथ तो पूरे विपक्ष का मिल रहा है लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर वो आधा अधूरा है. ममता अब कई राज्यों के दौरे की योजना बना रही हैं जिनमें ज्यादा जोर गुजरात और यूपी में बनारस पर है जिसका प्रधानमंत्री मोदी से सीधा कनेक्शन है.

वैसे तो सब ठीक है लेकिन ममता की बड़ी चुनौती यही है कि उन्हें लोगों को मोदी के नोटबंदी के फैसले को गलत कदम समझाना है - और पश्चिम बंगाल से बाहर ममता की स्वीकार्यता बेहद कम है.

राजनीति में भी क्रिकेट की तरह सब कुछ अनिश्चित और प्यार और जंग की तरह सब जायज होता है. फिर भी क्या नोटबंदी पर रोल बैक की मांग कर ममता ने बड़ा रिस्क नहीं लिया है? खुद ममता इसे बेहतर तरीके से समझ रही होंगी!

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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