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ममता और केजरीवाल के पास भी अब नीतीश की तरह ऑप्शन नहीं है

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 29 मई, 2019 03:22 PM
  • 29 मई, 2019 03:22 PM
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नरेंद्र मोदी 30 मई को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने जा रहे हैं. लेकिन ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल की हालत 23 मई के बाद तकरीबन एक जैसी हो गयी है. करीब करीब वैसी ही जैसी नीतीश कुमार की काफी पहले से है.

बीजेपी ने शिवसेना की तर्ज पर पहले जेडीयू सहित नीतीश कुमार को घेर डाला. कुछ दिन बीता और नीतीश कुमार भी बीजेपी के फंदे में पूरी तरह फंस गये - आम चुनाव से पहले थोड़ा फड़फड़ा जरूर रहे थे, लेकिन फौरन ही शांत भी हो गये. चुनाव से पहले शिवसेना ने जितना भी शोर मचाया हो, सीटों के बंटवारे का मौका आया तो नीतीश कुमार और उद्धव ठाकरे दोनों को कृपा पात्र बने रहना पड़ा. हालांकि, दोनों के दम न घुट जाये इसका भी ख्याल बीजेपी नेतृत्व को ही रखना था - और रखा भी गया.

23 मई के बाद ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल का भी हाल लगभग नीतीश कुमार जैसा ही हो चुका है. नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री नहीं मानने वाली ममता बनर्जी पहले तो शपथग्रहण की चश्मदीद बनने जा रही थीं, लेकिन बाद में मना भी कर दिया. अरविंद केजरीवाल को भी बीजेपी नेतृत्व से 'हत्या' का डर भले सताता रहा हो, लेकिन वो भी नीतीश और ममता की कतार में बैठने को राजी हैं - वैसे किसी के पास कोई ऑप्शन भी तो नहीं बचा है.

बीजेपी की बंगाल में एंट्री दिल्ली पर दोबारा कब्जा

आम चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को 43.3 फीसदी वोट मिले हैं और बीजेपी को 40.3 फीसदी - वोट शेयर के मामले में दोनों के बीच फासला अब महज 3.0 फीसदी का ही बचा है. पश्चिम बंगाल में 2021 में विधानसभा के लिए चुनाव होने वाले हैं - और ऐसे में ये फर्क बीजेपी को पीछे नहीं बल्कि उसकी संभावित बढ़ता की ओर साफ इशारा करता है.

आम चुनाव में बीजेपी ने ममता बनर्जी के पश्चिम बंगाल में सेंध नहीं लगाई है, बल्कि किले के काफी अंदर तक कब्जा जमा लिया है. सेंध तो बीजेपी ममता बनर्जी की पार्टी में लगा चुकी है. टीएमसी के दो विधायक और करीब 50 पार्षद मुकुल रॉय को गुरू मानते हुए भगवा ओढ़ चुके हैं. मुकुल रॉय को भी मोदी लहर का शुक्रिया कहना चाहिये वरना, अब तक तो वो फेल ही साबित होते जा रहे थे. वैसे अब बीजेपी की ओर से कहा जाने लगा है कि जिस तरह बंगाल में सात चरणों में चुनाव हुए, उसी तरह सात बार में टीएमसी छोड़ने वाले विधायक बीजेपी का दामन थाम लेंगे. प्रधानमंत्री...

बीजेपी ने शिवसेना की तर्ज पर पहले जेडीयू सहित नीतीश कुमार को घेर डाला. कुछ दिन बीता और नीतीश कुमार भी बीजेपी के फंदे में पूरी तरह फंस गये - आम चुनाव से पहले थोड़ा फड़फड़ा जरूर रहे थे, लेकिन फौरन ही शांत भी हो गये. चुनाव से पहले शिवसेना ने जितना भी शोर मचाया हो, सीटों के बंटवारे का मौका आया तो नीतीश कुमार और उद्धव ठाकरे दोनों को कृपा पात्र बने रहना पड़ा. हालांकि, दोनों के दम न घुट जाये इसका भी ख्याल बीजेपी नेतृत्व को ही रखना था - और रखा भी गया.

23 मई के बाद ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल का भी हाल लगभग नीतीश कुमार जैसा ही हो चुका है. नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री नहीं मानने वाली ममता बनर्जी पहले तो शपथग्रहण की चश्मदीद बनने जा रही थीं, लेकिन बाद में मना भी कर दिया. अरविंद केजरीवाल को भी बीजेपी नेतृत्व से 'हत्या' का डर भले सताता रहा हो, लेकिन वो भी नीतीश और ममता की कतार में बैठने को राजी हैं - वैसे किसी के पास कोई ऑप्शन भी तो नहीं बचा है.

बीजेपी की बंगाल में एंट्री दिल्ली पर दोबारा कब्जा

आम चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को 43.3 फीसदी वोट मिले हैं और बीजेपी को 40.3 फीसदी - वोट शेयर के मामले में दोनों के बीच फासला अब महज 3.0 फीसदी का ही बचा है. पश्चिम बंगाल में 2021 में विधानसभा के लिए चुनाव होने वाले हैं - और ऐसे में ये फर्क बीजेपी को पीछे नहीं बल्कि उसकी संभावित बढ़ता की ओर साफ इशारा करता है.

आम चुनाव में बीजेपी ने ममता बनर्जी के पश्चिम बंगाल में सेंध नहीं लगाई है, बल्कि किले के काफी अंदर तक कब्जा जमा लिया है. सेंध तो बीजेपी ममता बनर्जी की पार्टी में लगा चुकी है. टीएमसी के दो विधायक और करीब 50 पार्षद मुकुल रॉय को गुरू मानते हुए भगवा ओढ़ चुके हैं. मुकुल रॉय को भी मोदी लहर का शुक्रिया कहना चाहिये वरना, अब तक तो वो फेल ही साबित होते जा रहे थे. वैसे अब बीजेपी की ओर से कहा जाने लगा है कि जिस तरह बंगाल में सात चरणों में चुनाव हुए, उसी तरह सात बार में टीएमसी छोड़ने वाले विधायक बीजेपी का दामन थाम लेंगे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसे विधायकों की संख्या चुनावों के दौरान ही 40 बतायी थी.

वैसे ममता बनर्जी ने जाहिर तौर पर टीएमसी नेताओं के बीजेपी ज्वाइन करने को कमतर करके बताया है. कुछ वैसे ही जैसे राहुल गांधी ने सोनिया गांधी के करीबी माने जाने वाले टॉम वडक्कन को बड़ा नेता मानने से इंकार कर दिया था. ममता बनर्जी कुछ भी कहें हाल तो यही है कि लोगो से कांग्रेस हटाने के बाद भी टीएमसी अंदर तक हिल गयी है. पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में दो साल का वक्त बचा है - और ये बहुत भारी पड़ने वाला है.

ममता-केजरीवाल अकेले नहीं हैं - कमलनाथ, अशोक गहलोत और कुमारस्वामी का हाल एक जैसा ही है

सिर्फ ममता बनर्जी ही नहीं, राज्य सरकारें तो मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक की भी हिलोरे ले रही हैं - कोई भी कुछ भी होने की संभावना से इंकार नहीं कर पा रहा है.

दिल्ली में आम आदमी पार्टी का हाल तो और भी बुरा है. कहां कांग्रेस से गठबंधन न होने के बाद भी अरविंद केजरीवाल सातों सीटों पर बीजेपी को हराने के दावे कर रहे थे - और कहां, कांग्रेस के बाद वोट शेयर के मामले में तीसरे स्थान पर लुढ़क गये.

जिस सूबे में पार्टी की पैदाइश हुई हो, जिस सूबे में लगातार दो चुनावों में पार्टी सरकार बनाने में कामयाब रही हो, जिस सूबे पार्टी 70 में से सिर्फ तीन सीटें हारी हो - उसी सूबे में उसे वोटों की हिस्सेदारी के हिसाब से तीसरे नंबर पर और तीन महीने के चुनाव प्रचार के बावजूद अपने तीन उम्मीदवारों की जमानत तक गंवानी पड़ीं हो, उसका भविष्य कैसा देखा जाना चाहिये. अगले चुनाव की संभावित तारीख के साल भर से कम पहले जिस पार्टी को जनता ने सीधे सीधे नकार दिया हो - उसका भविष्य भला कैसा होने की उम्मीद लगती है?

दिल्ली विधानसभा में विधायक के तौर पर अपना कार्यकाल खत्म होने के बाद आम आदमी पार्टी छोड़ने की घोषणा कर चुकीं अलका लांबा बीबीसी को बताती हैं, 'एक व्हाट्सऐप ग्रुप है जिसमें विधायक अपने-अपने क्षेत्र की समस्याएं मुख्यमंत्री के सामने रखते हैं लेकिन उन पर कोई सुनवाई नहीं हुई. इसके बाद जब 23 मई को नतीजे सामने आये तो मैंने इसी ग्रुप में इन विधायकों की बात दोहराई तो मुझे ग्रुप से बाहर निकाल दिया गया.'

अलका लांबा की शिकायत अपनी जगह सही है, लेकिन उन्हें ऐसी उम्मीद ही क्यों थी? जिस पार्टी ने अपने संस्थापक सदस्यों को दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंका, जिस पार्टी के लिए आशीष खेतान ने डेल्ही डायलॉग के जरिये 70 में से 67 सीटें आप को दिलाने में मदद की, जिस पार्टी की राजनीति को सही साबित करने के लिए आशुतोष को लाइव टीवी पर फफक-फफक कर रोना पड़ा - वे भी दम घुटने पर निकल लिए तो अलका लांबा को तो एक व्हाट्सऐप ग्रुप से ही निकाला गया है. ये एक्शन अजीब कहां से माना जा सकता है.

ममता-केजरीवाल का नीतीश जैसा हाल कैसे?

ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल की तुलना नीतीश कुमार से करें तो कॉमन तो बहुत चीजें हैं, एक बड़ा फर्क भी है - 2015 में नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी को चैलेंज करते हुए चुनाव जीते थे. ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल दोनों ने चुनौती तो नीतीश कुमार जितनी या कहें कि उनसे ज्यादा ही दी थी, लेकिन वे चुनाव में हार चुके हैं. ममता बनर्जी तो लड़ते हुए किले का हिस्सा बचा भी लिया, अरविंद केजरीवाल तो लड़ाई में भी नहीं रहे. दिल्ली में लड़ाई में तो कांग्रेस रही, शीला दीक्षित के नेतृत्व में.

पहले तो नीतीश कुमार के पास तो एक मौका भी था फिर से यू-टर्न लेकर आरजेडी से हाथ मिलाकर बीजेपी को चैलेंज करने का, लेकिन ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल के पास तो ये भी नहीं है. नीतीश कुमार के तो सारे रास्ते ही बंद हो चुके हैं, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल के आस पास भी तो कोई हाथ मिलाकर मजबूती देने वाला नहीं है. जो हाल कोलकाता में है, वही स्थिति दिल्ली की है. दिल्ली में न कांग्रेस केजरीवाल की पार्टी से हाथ मिलाएगी और न पश्चिम बंगाल में लेफ्ट या कांग्रेस में से कोई हाथ मिलाने लायक ही बचा है.

TMC और AAP के सामने विकल्प क्या है?

आम चुनाव के आधार पर पश्चिम बंगाल और दिल्ली की विधानसभा चुनावों की बात करें तो मौजूदा सत्तारुढ़ दलों की वापसी हो पाएगी, ऐसा कहना बहुत मुश्किल हो रहा है. ऐसा भी तो नहीं कि बीजेपी आम चुनाव जीतने के बाद अब कुछ दिन आराम से बैठेगी. पश्चिम बंगाल में जिस तरह टीएमसी से टूट कर लोग बीजेपी में जाने लगे हैं - दिल्ली में भी बीजेपी ऐसे मिशन पर जाहिर है काम कर ही रही होगी.

पहला सवाल तो ये है कि क्या बगैर बीजेपी या किसी और के साथ गठबंधन के टीएमसी और आप सत्ता में वापसी कर पाएंगे? मुश्किल है. दूसरा सवाल - क्या आम आदमी पार्टी अबने बूते बहुमत के करीब पहुंच सकती है? या कम से कम इतनी सीटें ला सकती है कि बीजेपी को रोकने के लिए कांग्रेस आप को सपोर्ट कर दे? अभी के हिसाब से तो नामुमकिन है.

दिल्ली में आम चुनाव के नतीजों के विधानसभावार विश्लेषण से मालूम हुआ कि तत्काल चुनाव की स्थित में बीजेपी को 65 सीटें, कांग्रेस को 5 सीटें और आप को 0 सीटें मिल रही हैं. 2015 की शुरुआत में हुए दिल्ली विधानसभा के चुनाव में आप को 67, बीजेपी को तीन और कांग्रेस को 0 सीटें मिली थीं. बाद में बीजेपी ने एक सीट और जीत कर अपनी संख्या सुधार कर 4 कर ली जिससे आप के नंबर घट गये. अभी तो अलका लांबा और कपिल मिश्रा जैसे कई विधायक हैं जो लगातार बागी बने हुए हैं.

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने तो लड़ते हुए अपने किले का करीब आधा हिस्सा बचा लिया है, अरविंद केजरीवाल तो पूरा लुटा बैठे हैं. 2021 सत्ता न सही, लेकिन टीएमसी विपक्ष में बैठने की स्थिति में तो रह ही सकती है. दिल्ली में अगर आम चुनाव के हिसाब से वोट पड़े तो आप की तो विधानसभा में एंट्री होने से रही.

क्या ममता बनर्जी एक बार फिर मां, माटी और मानुष की दुहाई देकर भद्रलोक का आशीर्वाद पा सकती हैं? क्या अरविंद केजरीवाल दिल्लीवालों से एक बार और माफी मांग कर कुछ जमीन बचा सकते हैं? बीजेपी को दिल खोल कर वोट देने वाले पश्चिम बंगाल और दिल्ली के लोगों पर क्या ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल के बातों का कोई असर होगा?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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