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मालदा, मुस्लिम और पठानकोटः एक बहस की गुंजाइश

    • आर.के.सिन्हा
    • Updated: 10 जनवरी, 2016 01:01 PM
  • 10 जनवरी, 2016 01:01 PM
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असहिष्णुता के सवाल पर बीते दिनों अपने पुरस्कार लौटा चुके लेखक मालदा और पूर्णिया की घटनाओं पर चुप हैं, अब उन्हें असहिष्णुता नजर नहीं आ रही है? ये घटनाएं तब हुईं हैं जब पठानकोट में हुए आतंकी हमले से देश सहमा हुआ है.

दो घटनाएं, मालदा में लाखों मुसलमानों की भीड़ का उपद्रव करना, दूसरा, पंजाब के पठानकोट में फिदायीन हमला. इन दोनों घटनाओं से देश सहमा हुआ है. कायदे से देश को पठानकोट की घटना के वक्त एकजुट होकर सामने आना चाहिए था. लेकिन, मालदा के बाद बिहार के पूर्णिया में भी शुक्रवार को एक नया उपद्रव हो गया.

मालदा और पूर्णिया में लाखों मुसलमानों ने बीते दिनों उपद्रव किया. पुलिस स्टेशन पर हमला बोला. जमकर तोड़फोड़ की आखिरकार, क्यों? सड़कों पर आकर बवाल करने वालों की मांग है कि कमलेश तिवारी नाम के उस शख्स को फांसी दो जिसने उनके नबी की शान में गुस्ताखी की. ये मांग तब हो रही है जब तिवारी को रासुका लगाकर जेल में डाल दिया गया है. उस पर कई कठोर धाराएं लगा दी गई हैं. मालूम नहीं कि फांसी की मांग करने वालों को ये पता है कि नहीं कि तिवारी ने जो अपराध किया है, उसकी सजा फांसी नहीं हो सकती. सबसे चिंता की बात ये है कि तिवारी की गिरफ्तारी को लेकर ये जोर-आजमाइश तब हो रही है, जब सारा देश और देश की सेनाएं पठानकोट में फिदायीन हमले से अभी-अभी बाहर निकला है.

इसके साथ ही यह भी तो गौर फरमाने योग्य है कि कोलकाता के एक मदरसे के हेडमास्टर काजी मासूम अख्तर को सिर्फ इसलिए बेरहमी से पीटा जाता है, क्योंकि; उसने अपने छात्रों को राष्ट्रगान सिखाने की कोशिश की थी. अब ये सवाल अहम हो गया है कि क्या भारत में राष्ट्रगान गाना समाज के एक वर्ग के लिए जरूरी नहीं है? और एक लंबी डरावनी चुप्पी सामने आ रही है उन कथित लेखकों की तरफ से जो असहिष्णुता के सवाल पर बीते दिनों अपने पुरस्कार लौटा चुके हैं.

यकीन नहीं हो रहा कि जो लेखक बीफ विवाद के चलते देश में बढ़ती असहिष्णुता को देख रहे थे, उन्हें उस बेचारे मदरसे के हेडमास्टर के साथ कोई सहानुभूति नहीं है. सरकारी सम्मानों-पुरस्कारों को वापस करने वाले उदय प्रकाश, नयनतारा सहगल, सराह जोसेफ, अशोक वाजपेयी वगैरह से पूछा जाना चाहिए कि क्या उन्हें मदरसे के अध्यापक के राष्ट्रगान सिखाने पर जूतों की पिटाई खाने में कुछ भी गलत या असहिष्णुता नजर नहीं आ रही...

दो घटनाएं, मालदा में लाखों मुसलमानों की भीड़ का उपद्रव करना, दूसरा, पंजाब के पठानकोट में फिदायीन हमला. इन दोनों घटनाओं से देश सहमा हुआ है. कायदे से देश को पठानकोट की घटना के वक्त एकजुट होकर सामने आना चाहिए था. लेकिन, मालदा के बाद बिहार के पूर्णिया में भी शुक्रवार को एक नया उपद्रव हो गया.

मालदा और पूर्णिया में लाखों मुसलमानों ने बीते दिनों उपद्रव किया. पुलिस स्टेशन पर हमला बोला. जमकर तोड़फोड़ की आखिरकार, क्यों? सड़कों पर आकर बवाल करने वालों की मांग है कि कमलेश तिवारी नाम के उस शख्स को फांसी दो जिसने उनके नबी की शान में गुस्ताखी की. ये मांग तब हो रही है जब तिवारी को रासुका लगाकर जेल में डाल दिया गया है. उस पर कई कठोर धाराएं लगा दी गई हैं. मालूम नहीं कि फांसी की मांग करने वालों को ये पता है कि नहीं कि तिवारी ने जो अपराध किया है, उसकी सजा फांसी नहीं हो सकती. सबसे चिंता की बात ये है कि तिवारी की गिरफ्तारी को लेकर ये जोर-आजमाइश तब हो रही है, जब सारा देश और देश की सेनाएं पठानकोट में फिदायीन हमले से अभी-अभी बाहर निकला है.

इसके साथ ही यह भी तो गौर फरमाने योग्य है कि कोलकाता के एक मदरसे के हेडमास्टर काजी मासूम अख्तर को सिर्फ इसलिए बेरहमी से पीटा जाता है, क्योंकि; उसने अपने छात्रों को राष्ट्रगान सिखाने की कोशिश की थी. अब ये सवाल अहम हो गया है कि क्या भारत में राष्ट्रगान गाना समाज के एक वर्ग के लिए जरूरी नहीं है? और एक लंबी डरावनी चुप्पी सामने आ रही है उन कथित लेखकों की तरफ से जो असहिष्णुता के सवाल पर बीते दिनों अपने पुरस्कार लौटा चुके हैं.

यकीन नहीं हो रहा कि जो लेखक बीफ विवाद के चलते देश में बढ़ती असहिष्णुता को देख रहे थे, उन्हें उस बेचारे मदरसे के हेडमास्टर के साथ कोई सहानुभूति नहीं है. सरकारी सम्मानों-पुरस्कारों को वापस करने वाले उदय प्रकाश, नयनतारा सहगल, सराह जोसेफ, अशोक वाजपेयी वगैरह से पूछा जाना चाहिए कि क्या उन्हें मदरसे के अध्यापक के राष्ट्रगान सिखाने पर जूतों की पिटाई खाने में कुछ भी गलत या असहिष्णुता नजर नहीं आ रही है? जाहिर है, ये अब नहीं बोलेंगे. ये तो एक एजेंडे के तहत पुरस्कार वापस कर रहे थे. अब भले ही दुनिया जाए जहन्नुम में.

अफसोस इस बात से भी हो रहा है कि मालदा और पूर्णिया की घटनाओं की मुस्लिम उलेमाओं की और मुस्लिम मिडिल क्लास की तरफ से कोई कठोर प्रतिक्रिया नहीं आ रही है. मानो उनकी तरफ से इन दोनों घटनाओं के गुनहगारों को क्लीन चिट मिल गई हो. अब तो आमिर खान और शाहरुख़ खान भी चुप हैं. अभी मालदा और पूर्णिया के साथ-साथ और कौन-कौन से शहर जुड़ेंगे, इसका भी पता चल जाएगा. लेकिन, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि ये घटनाएं थम जाएंगी.

बड़ा सवाल ये है कि राष्ट्रगान गाना अपवित्र क्यों हो गया? काजी मासूम अख्तर को क्लीन शेव रहना पसंद है. वे शर्ट और ट्राउजर पहनते हैं. उनके पहनावे की तरह ही उनकी सोच भी आधुनिक है. वह मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा के पक्षधर हैं और साथ ही साथ कोलकाता स्थित तालापुकुर आरा हाई मदरसा के बच्चों को गणतंत्र दिवस के लिए राष्ट्रगान सिखा रहे थे. अख्तर की यही सोच कट्टरपंथियों को रास नहीं आई और उन्होंने उनके ऊपर हमला बोल दिया. इतना ही नहीं अख्तर के खिलाफ फतवा भी जारी कर दिया कि वह मदरसा तो क्या उस इलाके में भी कदम न रखें. फतवा जारी करने वालों का कहना है कि मदरसे में राष्ट्रगान गाना अपवित्र है और तिरंगा फहराना गैर-इस्लामिक. इतनी बड़ी घटनाओं के बाद देश के स्वयंभू सेक्युलरवादियों से लेकर मानवाधिकारवादियों की फौज लगता है कि किसी अज्ञातवास में चली गई है. वे सामने आने से बच रही हैं. उन्हें इन घटनाओं में कुछ भी गलत नजर नहीं आ रहा.

बेशक कोलकाता, मालदा और पूर्णिया की शर्मनाक घटनाओं को अंजाम देने वाले मुसलमानों के सच्चे हिमायती तो नहीं हो सकते. ये तो महज इस्लाम का नाम खराब कर रहे हैं. मुसलमानों को सोचना चाहिए और शिद्दत से सोचना चाहिए कि सुधारवादी और प्रगतिशील कदमों का हमेशा उनके यहां ही विरोध क्यों होता है? तीन तलाक जैसी बुराई को आज तक क्यों खत्म नहीं किया जा सका? वे शिक्षा में इतने पिछड़े क्यों हैं? धर्म के नाम पर जरा-जरा सी बातों पर उन्हें क्यों भड़का लिया जाता है? कहीं लड़कियों के फ़ुटबॉल खेलने के खिलाफ फतवा क्यों जारी हो जाता है? मुसलमान शिक्षा के सवाल पर एकत्र क्यों नहीं होते? ये औरतों को खुदमुख्तार बनाने के मसले पर कदम क्यों नहीं उठाते?

अगर किसी मुसलमान लड़की ने ये कह दिया कि मुसलमानों को शाकाहारी ईद मनाने के संबंध में सोचना चाहिए तो वे इस हद तक नाराज क्यों हो जाते हैं कि उस मुसलमान लड़की को पीट-पीट कर अधमरा कर दिया जाता है. जरा गौर कीजिए कि देश के विभिन्न भागों में मुसलमानों की भीड़ उस वक्त उपद्रव कर रही है जब पंजाब के पठानकोट स्थित एयरफोर्स बेस में हुए आतंकवादी हमले से देश सहमा हुआ है. आतंकियों को धूल में मिलाने के क्रम में शहीद हुए रणभूमि के शूरवीरों के प्रति अपनी कृतज्ञता दिखा रहा है पूरा देश. पठानकोट हमला कई दृष्टियों से खतरनाक संकेत देनेवाला है.

पहली बार ऐसा हुआ है कि आतंकवादियों ने सेना यानी वायुसेना के इतने बड़े अड्डे पर हमला किया. सुरक्षा बलों ने बहादुरी से सामना किया. किंतु, आतंकवादियों का मारा जाना हमारे लिए कोई बड़ी उपलब्धि इसलिए नहीं है, क्योंकि वे फिदायीन आतंकवादी थे. यानी वे आए ही थे मरने. उनका इरादा यह दिखाना था कि हमारे पास इतनी ताकत है कि हम भारत में सेना के अड्डे तक पर हमला करके इतने घंटे मुठभेड़ कर सकते हैं. इसमें वे सफल रहे. हमारे 7 प्रशिक्षित जवानों की बलि चढ़ी.

इतनी बड़ी घटना के वक्त कायदे से देश को एक होना चाहिए था, ताकि देश के दुश्मनों को एक संदेश जाता. लेकिन ये हो न सका. ये देश के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता. मालदा से लेकर पूर्णिया के गुनाहगारों पर राज्य सरकारों को कठोर कदम उठाने होंगे. देश के ऊपर संकट के बादल मंडरा रहे हैं. शत्रु तो यही चाहता कि देश के अंदर अस्थिरता बनी रहे. शत्रु के इरादों पर पानी फेरने के लिए देश को एकजुट होना होगा.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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