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कर्नल निरंजन की शहादत पर सवाल का जवाब

    • आईचौक
    • Updated: 11 जनवरी, 2016 04:12 PM
  • 11 जनवरी, 2016 04:12 PM
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अभी हाल में एक अखबार में छपे संपादकीय में कर्नल निरंजन कुमार की शहादत पर सवाल उठाए गए और उनके कदम को मूर्खतापूर्ण बताया गया. अब मेजर नवदीप ने इसका जवाब अपने ब्लॉग के जरिए दिया है. किसी सैनिक की शहादत पर सवाल उठाने वालों को इसे एक बार जरूर पढ़ना चाहिए.

मेजर नवदीप सिंह का ब्लॉग

डिफेंस सर्विसेस के बारे में जब कभी कोई नकारात्मक लेख या विचार छपते हैं, तो मैं एकदम से भावुक नहीं हो जाता. ईमानदारी से कहूं तो मुझे लगता है कि सैन्य बलों को इतना पवित्र भी नहीं माना जाना चाहिए कि हमारे ही शहरी हमें ही आईना न दिखाएं. लेकिन निश्चित तौर पर वह आईना शर्मिंदा करने के मकसद से नहीं दिखाया जाना चाहिए. दरअसल, बहस आत्मविश्लेषण के लिए और इस पर होना चाहिए कि हम दोनों के लिए अच्छा क्या है. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि दूसरे संस्थानों की तरह सेना भी इस देश के लोगों के प्रति उत्तरदायी है.

अखबार 'द टेलीग्राफ' के संपादकीय में 7 जनवरी, 2015 को 'शहीद के अंतिम संस्कार' के शीर्षक से छपे लेख ने मुझे आहत किया.

इसे जरूर पढ़े- पठानकोट हमले में लेफ्टिनेंट कर्नल निरंजन की शहादत साहस या दुस्साहस..

इसके अलावा कि राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (NSG) के लेफ्टिनेंट कर्नल निरंजन ने अपनी जान अपनी ही 'मूर्खता' (हां..यही शब्द इस्तेमाल हुआ) से गंवाई, कई और गलतियां भी इस लेख में हैं. सबसे पहले तो जंग कोई गणित का विषय नहीं है. न ही ये कोई वैज्ञानिक फॉर्मूला है. जंग उदास करने वाली एक तस्वीर है. जंग अस्पष्ट है. जंग एक बुरी चीज है. ऐसा लगता है कि कर्नल निरंजन की मौत के बाद जरूरी कोर्ट ऑफ इंक्वायरी की भी जरूरत नहीं है क्योंकि अखबार की संपादकीय टीम पहले ही सारे निष्कर्षों पर पहुंच चुकी है. संपादकीय टीम ने उनके कार्यों और चूक का विस्तृत हवाला देते हुए यह निष्कर्ष निकाल दिया कि गलती निरंजन की ही थी. यह भी बता दिया गया कि भारतीय सेना के अनुशासन और सुरक्षा के स्तर में गिरावट आई है. यही नहीं, संपादकीय ने यह भी फैसला दे दिया कि आतंकियों ने जो जाल बिछाया था, उसे समझना बहुत 'आसान'...

मेजर नवदीप सिंह का ब्लॉग

डिफेंस सर्विसेस के बारे में जब कभी कोई नकारात्मक लेख या विचार छपते हैं, तो मैं एकदम से भावुक नहीं हो जाता. ईमानदारी से कहूं तो मुझे लगता है कि सैन्य बलों को इतना पवित्र भी नहीं माना जाना चाहिए कि हमारे ही शहरी हमें ही आईना न दिखाएं. लेकिन निश्चित तौर पर वह आईना शर्मिंदा करने के मकसद से नहीं दिखाया जाना चाहिए. दरअसल, बहस आत्मविश्लेषण के लिए और इस पर होना चाहिए कि हम दोनों के लिए अच्छा क्या है. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि दूसरे संस्थानों की तरह सेना भी इस देश के लोगों के प्रति उत्तरदायी है.

अखबार 'द टेलीग्राफ' के संपादकीय में 7 जनवरी, 2015 को 'शहीद के अंतिम संस्कार' के शीर्षक से छपे लेख ने मुझे आहत किया.

इसे जरूर पढ़े- पठानकोट हमले में लेफ्टिनेंट कर्नल निरंजन की शहादत साहस या दुस्साहस..

इसके अलावा कि राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (NSG) के लेफ्टिनेंट कर्नल निरंजन ने अपनी जान अपनी ही 'मूर्खता' (हां..यही शब्द इस्तेमाल हुआ) से गंवाई, कई और गलतियां भी इस लेख में हैं. सबसे पहले तो जंग कोई गणित का विषय नहीं है. न ही ये कोई वैज्ञानिक फॉर्मूला है. जंग उदास करने वाली एक तस्वीर है. जंग अस्पष्ट है. जंग एक बुरी चीज है. ऐसा लगता है कि कर्नल निरंजन की मौत के बाद जरूरी कोर्ट ऑफ इंक्वायरी की भी जरूरत नहीं है क्योंकि अखबार की संपादकीय टीम पहले ही सारे निष्कर्षों पर पहुंच चुकी है. संपादकीय टीम ने उनके कार्यों और चूक का विस्तृत हवाला देते हुए यह निष्कर्ष निकाल दिया कि गलती निरंजन की ही थी. यह भी बता दिया गया कि भारतीय सेना के अनुशासन और सुरक्षा के स्तर में गिरावट आई है. यही नहीं, संपादकीय ने यह भी फैसला दे दिया कि आतंकियों ने जो जाल बिछाया था, उसे समझना बहुत 'आसान' था.

इस लेख ने आगे कर्नल की मौत के बाद उन्हें दिए जा रहे सम्मान पर भी सवाल खड़े कर दिए. लेखक यह भूल गए कि इस तरह का सम्मान केवल ऐसी घटनाओं के बाद ही नहीं बल्कि कई मौकों पर दिया जाता है. मसलन, किसी विशेष परिस्थिति में सेवानिवृत अधिकारियों, समाज में उच्च स्थान पाने वाले लोगों और यहां तक कि राजनीतिक शख्सियत भी ऐसे सम्मान के हकदार रहे हैं. इसलिए नम्रतापूर्वक कहूं....तो ये पूछना कि क्या वह इस सम्मान के 'हकदार' थे, घृणा पैदा करने वाला है.

अब मुख्य विषय पर आते हैं जिस पर मैं आम पाठकों की स्पष्टता के लिए बात करना चाहता हूं.

पूरी दुनिया में सैन्य ऑपरेशन के दौरान केवल बुलेट और बम का इस्तेमाल नहीं होता, जैसा कि अक्सर लोग मानते हैं. किसी भी मिलिट्री ऑपरेशन के शुरू से लेकर आखिर तक कई ऐसी चीजें शामिल रहती हैं जो कई बार ऑपरेशन में हिस्सा ले रहे लोगों के लिए भी अस्पष्ट, अस्थिर और हर पल बदलती परिस्थितियों जैसा होता है. यह सवाल करना ही व्यर्थ है कि कर्नल की मौत ऑपरेशनल नुकसान था या नहीं! हां...बिल्कुल था. बहुत सीधे शब्दों में अगर कहूं कि पठानकोट हमला नहीं होता तो क्या फिर भी निरंजन की मौत होती? हाल में हमारे चार जवान दुनिया के सबसे ऊंचे रणक्षेत्र पर हिमस्खलन से मारे गए. क्या यह ऑपरेशनल नुकसान नहीं था? बिल्कुल था. वे वहां पिकनिक के लिए नहीं गए थे. बल्कि हमारी सुरक्षा के लिए तैनात थे. जब आप किसी ऑपरेशन पर होते हैं तो आप बुलेट से मारे जाएं या प्रकृति की किसी आपदा से, यह सवाल महत्वहीन हो जाता है. एक सैनिक के जवाबी कार्यवाई के दौरान प्रेटोलिंग करते समय किसी घाटी में गिर जाने, दुनिया के सबसे ठंडे स्थानों पर नियुक्त किसी अधिकारी के हृदय गति रूक जाने से लेकर सीमा पर किसी सांप के कांट लेने से हुई मौत...यह सब जंग के दौरान हुए नुकसान ही हैं. नियम भी यही कहते हैं. यहां तक कि अगर इसमें लापरवाही के भी तत्व हैं..तो भी आर्थिक मदद देने के मामलों में यह रोड़ा नहीं बन सकता.

इसे 2010 में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के एक केस के उदाहरण से समझा जा सकता है. कोर्ट ने तब कहा था कि युद्ध क्षेत्र में हुए नुकसान के बाद सरकारी मदद हासिल करने के लिए जरूरी नहीं है कि उस व्यक्ति का हाथ जंग के समय ट्रिगर पर हो या उसने दुश्मनों पर बम फेंके हों. ऑपरेशन के समय कोई भी दुर्घटना बैटल कैजुएलिटी के तौर पर मानी जाएगी. 2013 में दिल्ली हाई कोर्ट ने भी यही कहा था. कोर्ट के मुताबिक ऑपरेशन के समय कोई भी अगर युद्ध क्षेत्र में हो, जिसकी मदद जरूरी है और सफलता के लिए उसकी मौजूदगी आवश्यक है. उसके नुकसान की भरपाई 'बैटल कैजुएल्टी' के तहत होनी चाहिए. साहसी व्यक्तियों के लिए निर्भिकता और 'मूर्खता' (जैसा संपादकीय में कहा गया) के बीच एक पतली लाइन होती है जो टूट सकती है. और अपने रूम में लैपटॉप पर लेख लिखते हुए इस पर कमेंट करना भी बहुत आसान है.

शहीद हुए ऑफिसर के अनुशासन में कमी पर कमेंट करने और सेना का मजाक उड़ाने से बेहतर होता कि संपादकीय ने अपनी उर्जा सैनिकों को बेहतर हथियार देने और भविष्य में ऐसा नुकसान न हो, इसे लेकर बेहतर रणनीति तैयार किए जाने की बात करता. अगर हमारे पुरुष और महिला बिना आधारभूत सुविधाओं और सुरक्षा के ही युद्ध क्षेत्र में जा रहे हैं तो उन बड़े मिसाइलों और डराने वाले उपकरणों का क्या मतलब है जिसे वास्तव में हम कभी इस्तेमाल ही नहीं करने जा रहे. इन सबके बावजूद द टेलीग्राफ अखबार ने एक सैनिक की मौत को असंवेदनशील नजरिए से देखा.

अगर एक सैनिक की मौत का ये मतलब निकाला जाता है, तो मैं हैरान हूं कि हम किस ओर जा रहे हैं. लेकिन फिर सोच में एक सांत्वना का भाव भी है कि यह बस एक विचार था.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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