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2019 चुनावों पर असर डालने वाले टॉप 5 मुद्दे

    • श्रुति दीक्षित
    • Updated: 24 मार्च, 2019 04:19 PM
  • 24 मार्च, 2019 03:12 PM
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अगर हम बात करें चुनावी मुद्दों की तो उन्हें समझने से पहले वोटरों को समझना बहुत जरूरी है. हिंदुस्तान के वोटर दो भागों में विभाजित किए जा सकते हैं. पहला भाग है राइट विंग वोटरों का और दूसरा लेफ्ट विंग का.

लोकसभा चुनाव 2019 अब करीब आ गए हैं और चुनाव आयोग ने वो तारीख भी तय कर दी है जब भारत के अगले प्रधानमंत्री का फैसला होगा. 23 मई का इंतजार तो शायद हर भारतीय को होगा, लेकिन उससे पहले ये देखने लायक होगा कि आखिर आचार संहिता लगने के बाद भी राजनीतिक पार्टियां कैसे अपने चुनाव के मुद्दों को उठाती हैं. इस बार का चुनाव कई मामलों में बहुत अलग है क्योंकि इस बार न सिर्फ चुनाव में पाकिस्तान के साथ लगभग युद्ध की स्थिति को घसीटा जाएगा बल्कि इस बार का चुनाव काफी हद तक सोशल मीडिया के सहारे लड़ा जाएगा.

इलेक्शन कमीशन के अनुसार लगभग 1.5 करोड़ वोटर इस बार पहली बार अपने वोट का इस्तेमाल करेंगे. ये सोचने वाली बात है कि जिस देश में इतना बड़ा वोटिंग बेस है वहां मुद्दे किस तरह से चुनाव की शक्ल बदल सकते हैं. पिछले कुछ दिनों से राष्ट्रीय सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा बनकर सामने आया है और इसका असर कट्टर हिंदुत्ववादी वोटर से लेकर लिबरल समाज तक सभी पर पड़ा है.

अगर हम बात करें चुनावी मुद्दों की तो उन्हें समझने से पहले वोटरों को समझना बहुत जरूरी है. हिंदुस्तान के वोटर दो भागों में विभाजित किए जा सकते हैं. पहला भाग है राइट विंग वोटरों का और दूसरा लेफ्ट विंग का.

चुनावी मुद्दे जो 2019 की राजनीतिक जमीन तैयार कर चुके हैं.

1. राइट विंग-

भाजपा के लिए हमेशा से हिंदुत्व का मुद्दा सबसे बड़ा रहा है, लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को भी खुद को जनेऊ धारी ब्राह्मण साबित करना पड़ रहा है. ये पहली बार है जब चुनाव की स्थिति पूरी तरह से हिंदुत्ववादी हो गई है. कर्नाटक में लिंगायत समाज को लेकर वोट मांगे गए थे. यूपी में मुस्लिम नामों को बदला गया था और राम मंदिर में सुप्रीम कोर्ट ने लंबे समय के बाद आखिर मध्यस्थता का फैसला...

लोकसभा चुनाव 2019 अब करीब आ गए हैं और चुनाव आयोग ने वो तारीख भी तय कर दी है जब भारत के अगले प्रधानमंत्री का फैसला होगा. 23 मई का इंतजार तो शायद हर भारतीय को होगा, लेकिन उससे पहले ये देखने लायक होगा कि आखिर आचार संहिता लगने के बाद भी राजनीतिक पार्टियां कैसे अपने चुनाव के मुद्दों को उठाती हैं. इस बार का चुनाव कई मामलों में बहुत अलग है क्योंकि इस बार न सिर्फ चुनाव में पाकिस्तान के साथ लगभग युद्ध की स्थिति को घसीटा जाएगा बल्कि इस बार का चुनाव काफी हद तक सोशल मीडिया के सहारे लड़ा जाएगा.

इलेक्शन कमीशन के अनुसार लगभग 1.5 करोड़ वोटर इस बार पहली बार अपने वोट का इस्तेमाल करेंगे. ये सोचने वाली बात है कि जिस देश में इतना बड़ा वोटिंग बेस है वहां मुद्दे किस तरह से चुनाव की शक्ल बदल सकते हैं. पिछले कुछ दिनों से राष्ट्रीय सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा बनकर सामने आया है और इसका असर कट्टर हिंदुत्ववादी वोटर से लेकर लिबरल समाज तक सभी पर पड़ा है.

अगर हम बात करें चुनावी मुद्दों की तो उन्हें समझने से पहले वोटरों को समझना बहुत जरूरी है. हिंदुस्तान के वोटर दो भागों में विभाजित किए जा सकते हैं. पहला भाग है राइट विंग वोटरों का और दूसरा लेफ्ट विंग का.

चुनावी मुद्दे जो 2019 की राजनीतिक जमीन तैयार कर चुके हैं.

1. राइट विंग-

भाजपा के लिए हमेशा से हिंदुत्व का मुद्दा सबसे बड़ा रहा है, लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को भी खुद को जनेऊ धारी ब्राह्मण साबित करना पड़ रहा है. ये पहली बार है जब चुनाव की स्थिति पूरी तरह से हिंदुत्ववादी हो गई है. कर्नाटक में लिंगायत समाज को लेकर वोट मांगे गए थे. यूपी में मुस्लिम नामों को बदला गया था और राम मंदिर में सुप्रीम कोर्ट ने लंबे समय के बाद आखिर मध्यस्थता का फैसला दे दिया है.

इस धड़े में एक हिस्सा कट्टर मुस्लिम समाज भी रखा जा सकता है क्योंकि वो अपने धर्म को लेकर नियम कायदे कानून बदलने की कोशिश में नहीं हैं. यहां कांग्रेस के तीन तलाक बिल का विरोध इसी तरह के वोटरों को लुभाने के लिए था. कट्टरता के आधार पर वोट देने वालों के भी दो बड़े मुद्दे हैं.

- राष्ट्रीय सुरक्षा:

जिस तरह 2019 चुनावों के पहले हिंदुस्तान-पाकिस्तान के मामले में फेरबदल हुआ है वैसे ही राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला भी बहुत तेज़ी से ऊपर आया है. राष्ट्रीय सुरक्षा में सेना और कश्मीर अहम हैं. अब सेना की बात कर रहे हैं तो शहीदों की भी गिनती होगी, राफेल के दस्तावेज भी सामने आएंगे और सोशल मीडिया पर पाकिस्तान के साथ परमाणु जंग के हितैशियों की भी बात होगी. पाकिस्तान पर की गई सर्जिकल स्ट्राइक तो पहले से ही मुद्दा बन गया है और कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियां सबूत मांगने पर तुली हुई हैं कि आखिर कितने आतंकी मरे और भाजपा सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला दे रही है. सेना को लेकर राजनीति जोरों पर है.

दूसरी ओर अगर कश्मीर की बात करें तो धारा 35A, पाकिस्तान, आतंकवाद से लेकर अब तो इस मुद्दे में मसूद अजहर और जैश-ए-मोहम्मद भी जुड़ गया है. कश्मीर और कश्मीरियों पर होने वाले हमले भी इस मुद्दे का हिस्सा बन गए हैं. तो कुल मिलाकर ये दो अहम मुद्दे कई छोटे-छोटे मुद्दों को जन्म दे रहे हैं.

- राम मंदिर:

राम मंदिर क्योंकि हिंदुओं की शान का प्रतीक बन गया है इसलिए हर साल की तरह इस साल भी ये चुनावी मुद्दा जरूर है. राम मंदिर का मुद्दा भी कई छोटे-छोटे मुद्दों को अपने साथ समेटे हुए है. राम मंदिर के मुद्दे का एक हिस्सा देश के मुसलमान भी हैं. राम मंदिर विवाद में ऐसा कोई भी फैसला नहीं लिया जा सकता जिससे देश के मुसलमानों को तकलीफ हो.

दूसरी ओर राम मंदिर के साथ ही एक तरह की कट्टरता भी जुड़ी हुई है और ये मुद्दा न सिर्फ बीफ और मॉब लिंचिंग से जुड़ा है बल्कि इसमें गाय और गंगा भी शामिल हैं. हालांकि, गंगा का मुद्दा पिछले इलेक्शन में इससे ज्यादा जोर से उठाया गया था, लेकिन अभी भी ये कम नहीं हैं.

2. लेफ्ट विंग-

जहां एक ओर कट्टर वोटरों के मुद्दे अलग हैं वहीं दूसरी ओर लिबरल वोटर कुछ अलग मुद्दों पर ही बात कर रहे हैं. यहां भी मामला वैसा ही है कि दो बड़े मुद्दों के पीछे अलग-अलग छोटे-छोटे मुद्दे छुपे हुए हैं. लिबरल वोटरों को रिझाने के लिए सवर्ण आरक्षण और एससीएसटी एक्ट भी एक मुद्दा बन गया है. हालांकि, ये कट्टरपंथी वोटरों के लिए भी मुद्दा है, लेकिन इस मामले में लिबरल समाज की बहुत पैनी निगाह है.

लिबरल वोटरों के दो अहम मुद्दे हैं जिन्हें समझना बेहद जरूरी है.

- युवा:

लिबरल वोटरों का एक बड़ा वर्ग युवा है. इनमें से कई युवा तो अपनी जिंदगी में पहली बार वोट देंगे. युवा वोटरों की गिनती में दो अहम मुद्दे हैं जो उनकी सोच पर असर डालते हैं. पहला है बेरोजगारी. युवाओं को लेकर बहुत से वादे किए गए थे. 2014 के मुकाबले 2018 में ईज ऑफ डूइंग बिजनेस (आसानी से बिजनेस करने) का इंडेक्ट 184 से 77 तो हो गया, लेकिन क्वालिटी ऑफ लाइफ इंडेक्स, मानव विकास इंडेक्स, भ्रष्टाचार का इंडेक्स कुछ खास बदल नहीं पाया. नरेंद्र मोदी ने करोड़ों नौकरियों का वादा किया था, लेकिन इस वादे को पूरा करने में वो विफल रहे हैं और कांग्रेस ने इस मुद्दे को उठाया है. इतना ही नहीं नए वोटरों के लिए नौकरियों का वादा अभी भी वहीं का वहीं है. कांग्रेस का आरोप है कि मोदी ने 2 करोड़ लोगों को नौकरियां देने का वादा किया था, लेकिन पिछले साल ही 1 करोड़ लोगों ने अपनी नौकरियां गंवा दी. एनएसएसओ के अनुसार 2017-18 में बेरोजगारी दर 6.1% थी, जो 1972-73 के बाद सर्वाधिक है.

दूसरा अहम मुद्दा है अर्थव्यवस्था. लिबरल लोगों के लिए भारत की जीडीपी अहम है. 2014 में ये 7.41% थी जो अब 6.6% हो गई है. इसमें रुपए की कीमत भी आती है. जब मोदी ने शपथ ली थी तब 59.2 रुपए प्रति डॉलर था और 5 सालों में ये बढ़कर 69.88 रुपए हो गया है. साथ ही, इसमें नोटबंदी भी शामिल है जिससे हमारी अर्थव्यवस्था को इतना बड़ा झटका लगा था कि उससे अभी भी देश नहीं उबर पाया है. इतना ही नहीं आर्थिक सुधार के नाम पर लगाया गया जीएसटी भी एक मुद्दा है जो अभी तक हर काउंसिल मीटिंग में बदल जाता है.

- देश:

लिबरल वोटरों के लिए देश भी एक बड़ा मुद्दा है. ये वो वोटर हैं जिन्हें CBI के चीफ के रिश्वत के केस में फंसने से फर्क पड़ता है, ये वो वोटर हैं जिन्हें ये फर्क पड़ता है कि आखिर क्यों सुप्रीम कोर्ट के जजों को एक साथ आकर प्रेस कॉन्फ्रेंस करनी पड़ी. ये वो वोटर हैं जिन्हें उर्जित पटेल के पद छोड़ने को लेकर हुए विवाद से समस्या होती है. ये वो लोग हैं जिन्हें शशिकांत दास के आरबीआई गवर्नर बनने पर असर पड़ता है क्योंकि वो एक इकोनॉमिस्ट नहीं है. काले धन की बात करने वाले यही लोग हैं जो कहते हैं कि नोटबंदी का असर काले धन पर कुछ नहीं हुआ और ये भी एक मुद्दा काले धन को लेकर बना हुआ है.

लिबरल समाज का सबसे बड़ा मुद्दा है असहिष्णुता. वो जिसके कारण आमिर खान और नसीरुद्दीन शाह जैसे दिग्गजों को डर लगता है. वो मुद्दा जिसके कारण परेश रावल जैसे दिग्गज भी अपने साथियों के खिलाफ हो जाते हैं. असहिष्णुता के मुद्दे पर न सिर्फ आज़ादी का मामला सामने आता है बल्कि लव जिहाद औऱ प्रेम विवाह का मुद्दा भी इसमें शामिल है. तमिलनाडु का एक दलित हॉनर किलिंग के लिए मार दिया जाता है और सुप्रीम कोर्ट में हादिया के केस पर इस धड़े के लोगों की नजर थी जिसमें लव जिहाद के नाम पर एक पति-पत्नी को अलग किया जा रहा था.

इस मुद्दे का दूसरा पहलू है सामाजिक कहानियां. लिबरल समाज मेजर विभूति की पत्नी का आखिरी बार आई लव यू कहना पसंद करता है, वीडियो शेयर करता है और सोचता है कि ऐसा नहीं होना था. लिबरल समाज जंतर-मंतर में आंदोलन करने आए किसानों के जख्मी पैर देखकर भी परेशान हो उठता है और ये लिबरल किसान कर्जमाफी और किसानों और सेना के लिए लाई गई स्कीमों के आधार पर भी वोट देने को तैयार है. ये ही वो धड़ा है जो राफेल के विवाद को लेकर सवाल कर रहा है और इसे फर्क पड़ता है कि राफेल विवाद में सेना पर असर पड़ रहा है.

ये सभी मुद्दे 2019 चुनावों के लिए अहम साबित हुए हैं और लिबरल समाज से लेकर कट्टर समाज तक सभी लोगों को आकर्षित कर रहे हैं और यही वो मुद्दे हैं जो चुनावी पार्टियों को इलेक्शन रेस में बनाए हुए हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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