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OROP पर किस मुंह से सियासत कर रहे हैं राहुल गांधी

    • पीयूष द्विवेदी
    • Updated: 03 नवम्बर, 2016 07:39 PM
  • 03 नवम्बर, 2016 07:39 PM
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राहुल गांधी को चाहिए कि मोदी सरकार से सवाल पूछने की बजाय अपनी महान मम्मी से पूछें कि माँ, पापा और दादी ने हमारे जवानों के साथ ऐसा क्यों किया?

वन रैंक वन पेंशन का मामला एक बार फिर गरमाया है. गत दिनों एक पूर्व सैनिक राम किशन ग्रेवाल ने कथित तौर पर वन रैंक वन पेंशन की अनियमितताओं के कारण आत्महत्या कर ली. बस इसके बाद से ही इस मामले पर सियासी महकमे में सरगर्मी पैदा हो गई है.

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल वगैरह तमाम नेता मृतक सैनिक के परिजनों से मिलने के नाम पर संवेदना की सियासत के दांव आजमाने अस्पताल पहुँच गए. लेकिन दिल्ली पुलिस ने इनमें से किसी को भी अंदर नहीं जाने दिया. दोनों को गिरफ्तार कर बाहर ही रखा. इस पर दुनिया भर का हो-हल्ला मचाया गया, मगर विपक्षी दलों की सियासी रोटियाँ नहीं सिक सकीं.  

वैसे इस आत्महत्या को लेकर कई तरह के सवाल हैं. अब जैसा कि राम किशन के साथियों की मानें तो वे वन रैंक वन पेंशन की अनियमितताओं पर एक पत्र लेकर रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर से मिलने जा रहे थे. इस दौरान  रास्ते में ही पार्क में बैठे-बैठे जहर खाकर आत्महत्या कर ली.

अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब वे रक्षा मंत्री से मिलने जा रहे थे, तो अचानक रास्ते में ऐसा क्या हो गया कि उन्हें आत्महत्या जैसा कदम उठाना पड़ा?

क्यों उनके साथियों ने ऐसा करने से उन्हें रोका नहीं? यह भी बात सामने आई है कि उन्होंने आत्महत्या से पहले अपने बेटे को फोन किया था. इसका ऑडियो रिकॉर्ड सामने है, जिसमें  वह बेटे से ज़हर खाने की बात का जिक्र कर रहे हैं.

सवाल यह कि ये कैसा बेटा है जिसने अपने पिता की कॉल रिकॉर्डिंग पर लगाईं और उनके ज़हर खाने की बात जानने पर भी चुपचाप सब सुनता रहा?

इसे भी पढ़ें: क्या मोदी देगें ये #Sandesh2Soldiers?

निश्चित तौर पर ये सभी सवाल न केवल इस मामले में अनेक संशयों को जन्म देते हैं बल्कि किसी गहरी साजिश की तरफ भी इशारा...

वन रैंक वन पेंशन का मामला एक बार फिर गरमाया है. गत दिनों एक पूर्व सैनिक राम किशन ग्रेवाल ने कथित तौर पर वन रैंक वन पेंशन की अनियमितताओं के कारण आत्महत्या कर ली. बस इसके बाद से ही इस मामले पर सियासी महकमे में सरगर्मी पैदा हो गई है.

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल वगैरह तमाम नेता मृतक सैनिक के परिजनों से मिलने के नाम पर संवेदना की सियासत के दांव आजमाने अस्पताल पहुँच गए. लेकिन दिल्ली पुलिस ने इनमें से किसी को भी अंदर नहीं जाने दिया. दोनों को गिरफ्तार कर बाहर ही रखा. इस पर दुनिया भर का हो-हल्ला मचाया गया, मगर विपक्षी दलों की सियासी रोटियाँ नहीं सिक सकीं.  

वैसे इस आत्महत्या को लेकर कई तरह के सवाल हैं. अब जैसा कि राम किशन के साथियों की मानें तो वे वन रैंक वन पेंशन की अनियमितताओं पर एक पत्र लेकर रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर से मिलने जा रहे थे. इस दौरान  रास्ते में ही पार्क में बैठे-बैठे जहर खाकर आत्महत्या कर ली.

अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब वे रक्षा मंत्री से मिलने जा रहे थे, तो अचानक रास्ते में ऐसा क्या हो गया कि उन्हें आत्महत्या जैसा कदम उठाना पड़ा?

क्यों उनके साथियों ने ऐसा करने से उन्हें रोका नहीं? यह भी बात सामने आई है कि उन्होंने आत्महत्या से पहले अपने बेटे को फोन किया था. इसका ऑडियो रिकॉर्ड सामने है, जिसमें  वह बेटे से ज़हर खाने की बात का जिक्र कर रहे हैं.

सवाल यह कि ये कैसा बेटा है जिसने अपने पिता की कॉल रिकॉर्डिंग पर लगाईं और उनके ज़हर खाने की बात जानने पर भी चुपचाप सब सुनता रहा?

इसे भी पढ़ें: क्या मोदी देगें ये #Sandesh2Soldiers?

निश्चित तौर पर ये सभी सवाल न केवल इस मामले में अनेक संशयों को जन्म देते हैं बल्कि किसी गहरी साजिश की तरफ भी इशारा करते हैं. क्योंकि, यह यकीन करना मुश्किल है कि हमारी बहादुर भारतीय सेना का कोई जवान ख़ुदकुशी जैसा कायरतापूर्ण  निर्णय लेगा.

वह भी तब जब वन रैंक वन पेंशन लागू है. बस कुछ छोटी-मोटी दिक्कतें हैं जिन्हें बातचीत के जरिये दूर किया जा सकता है. ऐसे में, जरूरत है कि मामले की जांच हो जिससे सच्चाई सामने आए. 

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इसी क्रम में यदि वन रैंक-वन पेंशन मामले को समझने का प्रयत्न करें तो इसका अर्थ यह है कि अलग-अलग समय पर सेवानिवृत हुए एक ही रैंक के जवानों को बराबर पेंशन दी जाय. उनकी पेंशन में अधिक अंतर न रहे.

फिलहाल स्थिति यह है कि जब कोई सेना का अधिकारी या जवान सेवानिवृत होता है, उन्हें पेंशन के तत्कालीन नियमों के हिसाब से पेंशन मिलती है. सेना के पेंशन के नियम कई बार बदले हैं. ब्रिटिश शासन के समय फौजियों की पेंशन उनकी तनख्वाह की 83 प्रतिशत थी.

आज़ादी के बाद सन 1957 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इसे कम कर दिया. इसके मद से सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों जिन्हें तब वेतन का ३३ फीसदी पेंशन मिलता था, की पेंशन को बढ़ा दिया. आगे 1971 की लड़ाई में हमारे सैनिकों की बहादुरी का इनाम इंदिरा गाँधी ने सन 1973 में उनकी 'वन रैंक वन पेंशन' को ख़त्म करके दिया.

एक बार फिर सिविल कर्मियों की पेंशन बढ़ाई गई और इसकी भरपाई सेना की पेंशन काटकर की गई.

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फिर आए इंदिरा-पुत्र राजीव गाँधी जिन्होंने सेना की बेसिक सैलरी में भी कमी कर दी. जिससे सैनिकों की पेंशन और भी कम हो गई. इन्हीं चीजों के बाद हमारे जवानों को आभास हुआ कि ये लोग सिर्फ मुंह के सेना प्रेमी हैं और तभी से वन रैंक वन पेंशन का मामला उठने लगा. इसे कांग्रेस की सरकारें समिति गठन कर टालती रहीं.

सन 1971 में सेना के पेंशन के नियम यूँ थे कि सैनिक को उसके वेतन का 75 प्रतिशत जबकि सैन्य अधिकारियों को 50 प्रतिशत पेंशन मिलती थी. जिसे बाद में तीसरे वेतन आयोग ने घटाकर 50 फीसदी कर दिया. इस तरह सन 1971 में सेवानिवृत हुए फौजियों तथा उसके बाद सेवानिवृत हुए फौजियों की पेंशन में भारी अंतर है.

आगे भी जब-तब पेंशन के नियम बदले और ये अंतर भी आता गया. गौर करें तो सन 2005 और 2006 में सेवानिव्रूत हुए फौजियों की पेंशनों के बीच लगभग 15,000 रुपये तक का अंतर आ गया. स्थिति यह है कि 2006 के बाद सेवानिवृत कर्नल 2006 से पूर्व सेवानिवृत अपने से उच्च रैंक के मेजर जनरल से अधिक पेंशन पाता है.

इन विसंगतियों के मद्देनज़र फौजियों की मांग थी कि सेना में एक रैंक-एक पेंशन की व्यवस्था कर दी जाय जिसके तहत एक रैंक के अलग-अलग समय पर सेवानिवृत दो फौजियों की पेंशनों में कोई अंतर न हो.

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मोदी सरकार ने इसे लागू भी किया है, लेकिन कुछेक बिन्दुओं पर असहमति थी, जिसपर सरकार ने कदम उठाने का आश्वासन दिया था. सरकार को यथाशीघ्र उन असहमतियों को दूर करना चाहिए.

लेकिन, आज जो राहुल गांधी अस्पताल के बाहर नौटंकी कर रहे हैं, उन्हें चाहिए कि मोदी सरकार से सवाल पूछने की बजाय पहले अपनी महान मम्मी जी से जाकर पूछें कि माँ, दादी और पापा ने हमारे जवानों के साथ ऐसा क्यों किया था?

उन्होंने जो किया सो किया, दस साल तो सत्ता में राहुल गांधी और उनकी मम्मी की ही चलती रही, फिर उन्होंने सैनिकों की इस समस्या को क्यों नहीं समझा? आज राम किशन ग्रेवाल की आत्महत्या पर मौजूदा सरकार पर फिजूल आरोप लगाकर निशान साधने वाले कांग्रेसी अगर एकबार अपनी गिरेबान में झांक लें तो शर्म से चेहरा लटक जाएगा.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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