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जनता के लिए 'नमो' कूल है और विपक्षी नेताओं को मोदी फोबिया है!

    • प्रकाश कुमार जैन
    • Updated: 06 अगस्त, 2023 07:15 PM
  • 06 अगस्त, 2023 07:14 PM
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'मोदी हटाओ' के नारे में I.N.D.I.A का इमोशनल फैक्टर डाल दिया गया है. विपक्ष के लिए गुपचुप नीति बनाने की ज़रूरत है, लेकिन वे तो अपनी किसी भी चाल को गोपनीय नहीं रख पा रहे हैं. 'हम साथ साथ हैं मोदी को हटाने के लिए' जैसी राजनीतिक चाल का भी खुल्लम खुल्ला ढिंढोरा पीट रहे हैं.

शायद इंडिया टीम 26 के लिए सटीक गाना है, फुलौरी बिना चटनी कैसे बनी. न महंगाई न विकास और न ही रोजगार की बात है, बात सिर्फ़ और सिर्फ़ मोदी को बदलने की है, हटाने की है. परंतु जनता बदलना नहीं चाहती, चूंकि बदलते बदलते थक गई है. सिर्फ सरकार की सूरत बदल जाती है सीरत नहीं बदलती. तो एक जो सत्तारूढ़ है, आरूढ़ रहे ना. कुछ कुछ हो ही रहा है ना. दरअसल आज जनता ऐसे ही सोचती है. एक तो असंतुष्टि उस हद तक है ही नहीं कि बदलने की सोच बलवती हो और दूजे मान भी लें बदलने की सोच पनपी है तो बदलाव तब करे ना जब विकल्प जो है वो बीस हो. फिर बदलावों का इतिहास भी तो स्याह ही रहा है. 'इंदिरा हटाओ' वाले विपक्षियों का क्या हश्र हुआ था, पता ही है. दो साल से कुछ अधिक ही समय बीतते बीतते सारे दल बिखर गए और मोरारजी सरकार चली गई थी. आज वही रिप्लीकेट हो रहा है एड ऑन के साथ.

'मोदी हटाओ' के नारे में इमोशनल फैक्टर भी डाल दिया गया है I.N.D.I.A. का. विपक्ष के लिए ज़रूरत है गुपचुप नीति बनाने की लेकिन वे तो अपनी किसी भी चाल को गोपनीय नहीं रख पा रहे हैं. 'हम साथ साथ हैं मोदी को हटाने के लिए' जैसी राजनीतिक चाल का भी खुल्लम खुल्ला ढिंढोरा पीट रहे हैं. कह भी दिया है मोदी को हटाने की मजबूरी ही साथ ले आई है. परंतु अपनी अपनी डफली अपना अपना राग अलापने की फ़ितरत पुनः उभर आएगी, कामयाब हुए तो भी और नाकामयाब हुए तो भी.

चुनाव पूर्व दो दोस्तों ने साइकिल की सवारी साथ साथ की थी. कामयाबी नहीं मिली और दोनों जुदा हो गये थे. और फिर बुआ भतीजा का मिलन और वियोग भी देखा था जनता ने. स्पष्ट हुआ कामयाब हुए तो तब तक साथ रहेंगे जब तक फितरती ईगो लौट कर हावी न होने लगे. हालांकि बदलाव सृष्टि का क्रम है. बदलाव लोकतंत्र का प्राण तत्व है. हर पार्टी बदलाव के सपने दिखाते हुए आती है कि महंगाई ख़त्म कर देंगे, विकास की...

शायद इंडिया टीम 26 के लिए सटीक गाना है, फुलौरी बिना चटनी कैसे बनी. न महंगाई न विकास और न ही रोजगार की बात है, बात सिर्फ़ और सिर्फ़ मोदी को बदलने की है, हटाने की है. परंतु जनता बदलना नहीं चाहती, चूंकि बदलते बदलते थक गई है. सिर्फ सरकार की सूरत बदल जाती है सीरत नहीं बदलती. तो एक जो सत्तारूढ़ है, आरूढ़ रहे ना. कुछ कुछ हो ही रहा है ना. दरअसल आज जनता ऐसे ही सोचती है. एक तो असंतुष्टि उस हद तक है ही नहीं कि बदलने की सोच बलवती हो और दूजे मान भी लें बदलने की सोच पनपी है तो बदलाव तब करे ना जब विकल्प जो है वो बीस हो. फिर बदलावों का इतिहास भी तो स्याह ही रहा है. 'इंदिरा हटाओ' वाले विपक्षियों का क्या हश्र हुआ था, पता ही है. दो साल से कुछ अधिक ही समय बीतते बीतते सारे दल बिखर गए और मोरारजी सरकार चली गई थी. आज वही रिप्लीकेट हो रहा है एड ऑन के साथ.

'मोदी हटाओ' के नारे में इमोशनल फैक्टर भी डाल दिया गया है I.N.D.I.A. का. विपक्ष के लिए ज़रूरत है गुपचुप नीति बनाने की लेकिन वे तो अपनी किसी भी चाल को गोपनीय नहीं रख पा रहे हैं. 'हम साथ साथ हैं मोदी को हटाने के लिए' जैसी राजनीतिक चाल का भी खुल्लम खुल्ला ढिंढोरा पीट रहे हैं. कह भी दिया है मोदी को हटाने की मजबूरी ही साथ ले आई है. परंतु अपनी अपनी डफली अपना अपना राग अलापने की फ़ितरत पुनः उभर आएगी, कामयाब हुए तो भी और नाकामयाब हुए तो भी.

चुनाव पूर्व दो दोस्तों ने साइकिल की सवारी साथ साथ की थी. कामयाबी नहीं मिली और दोनों जुदा हो गये थे. और फिर बुआ भतीजा का मिलन और वियोग भी देखा था जनता ने. स्पष्ट हुआ कामयाब हुए तो तब तक साथ रहेंगे जब तक फितरती ईगो लौट कर हावी न होने लगे. हालांकि बदलाव सृष्टि का क्रम है. बदलाव लोकतंत्र का प्राण तत्व है. हर पार्टी बदलाव के सपने दिखाते हुए आती है कि महंगाई ख़त्म कर देंगे, विकास की बुलेट ट्रेन दौड़ा देंगे, रोजगार ही रोजगार होंगे.

अब यह अलग बात है कि दशकों से पांच साल बीतते बीतते ही जनता को एहसास होता आया है ये कहां आ गए हम हाथ मलते मलते. कहने का मतलब है जनता स्वयं को बार बार ठगा सा महसूस करते करते उकता गई है. परंतु विपक्ष है कि जनता की नब्ज पकड़ ही नहीं पा रहा है. उल्टे सब मिलकर झुनझुना बजाने लगे हैं कि मोदी को हटाना है. लेकिन कैसे कनेक्ट बने जनता से जिनके लिए मोदी कूल हैं और उन्हें मोदी फोबिया है?  बदलाव बस इतना होता है कि शिलापट्ट पर नए नाम खुदने लगते हैं, सरकारी कारिंदे नए माननीयों के आगे जी हुजूरी करने लगते हैं. योजनाएं नए अवतार धारण कर नए बोतल में पुरानी शराब की तरह जनता के सामने प्रस्तुत कर दी जाती है. न कार्यशैली बदलती है, न संवादों का अंदाज और न ही जनता के प्रति नजरिया. फ़ाइलें उसी सुस्ती से सरकती है. घोषणाओं का तो ऐसा हैं कि चुनावी पतझड़ में ही झड़ते हैं, वादे, आश्वासन तो यूं किए, दिये जाते हैं कि अमर तू भी, अकबर तू भी और एंथोनी तू भी मेरा अपना है.

आश्चर्य है पार्टियां क्यों इग्नोर कर रही है? देश की आधी से ज्यादा युवा आबादी को जो आज के डिजिटल युग में पूरी दुनिया को देख रहा है और आस पड़ोस ही नहीं, दूर सुदूर के हालातों को समझ भी रहा है. पडोसी पाकिस्तान, श्रीलंका, अफगानिस्तान की दिवालियापन की कहानियां उसे डरा रही है, सुदूर अमेरिका की डांवाडोल अर्थव्यवस्था भी वह महसूस करती है. कहने का मतलब लोकलुभावन वादों और आश्वासनों की हकीकत वह खूब समझ रही है. आखिर पैसा पेड़ पर तो नहीं उगता. कर्ज दर कर्ज लेकर घी खुद भी पिएंगे और पिलाएंगे भी. खुद तो नाकारा है ही, जनता को भी नाकारा बना कर छोड़ देंगे. "विकास" को ना कह देंगे चूंकि पैसा तो है ही न, कर्ज का ब्याज भी नहीं चुकता हो पा रहा है.

हां, बातें लच्छेदार खूब करेंगे चुनावी साल में. शब्दजाल हैं नेताओं के भाषण, बदल देंगे आपका जीवन. पर हकीकत यह है कि सड़क किनारे पड़ा कचरा स्थल भी दशकों से वहीं बना हुआ है. दरअसल वो ज़माना लद गया जब बदलाव की बात लुभाती थी, जनता एक फंतासी में पहुंच जाती थी जिसके साकार होने की गुंजाइश के लिए वह वोट देती थी. कहते हैं ना देर आयद दुरुस्त आयद ! सो जनता भी भली भांति समझ गई है कि बदलाव की नियति कछुए वाली है, खरगोश की नहीं. वह हौले हौले ही आएगा. रातोंरात तो वन नाईट स्टैंड होता है जिसमें चुनाव ख़त्म हुए और बदलाव के तमाम वादे भी हवा हवाई हुए. तो एक मुन्ना भाई को लगा दिया है तो लगे रहने दो उसे.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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