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इस मौत के पहाड़ से हमे बचाओ !

    • प्रभुनाथ शुक्ल
    • Updated: 02 सितम्बर, 2017 06:32 PM
  • 02 सितम्बर, 2017 06:32 PM
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भारत में प्लास्टिक का उपयोग लगभग 60 के दशक में शुरू हुआ. इन 70 सालों में यह पहाड़ की शक्ल ले चुका है.आधुनिक जीवन शैली और गायब होती झोला संस्कृति इसका सबसे बड़ा कारक है.

आर्थिक उदारीकरण और उपभोक्तावाद की संस्कृति ने महानगरों से निकले वाले अपशिष्ट को पहाड़ के ढ़ेर में बदल दिया है. मानव सभ्यता के लिए यह खतरे की घंटी है. अभी तक बारिश और भूस्खलन की वजह से पहाड़ों का खीसकना और यातायाता का प्रभावित होना आम बात मानी जाती थी. भूस्खलन की घटनाओं में काफी संख्या में लोग मारे जाते रहे हैं. हाल में अभी इस तरह की कई घटनाएं हुई हैं. कुछ साल पहले महाराष्ट्र में भूस्खलन की वजह से एक पूरे गांव का अस्तित्व मिट गया था. उत्तराखंड के पहाड़ों में अधिक बर्षा या दबाब के कारण पहाड़ों का नीचे आना सामान्य बात है. लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में पहली बार यह घटना सामने आई. जिसमें पहले तो कचरे ने पहाड़ का शक्ल ले लिया और अब इस पहाड़ के गिरने की खबर आई. जिसके कारण पूर्वी दिल्ली के गाजीपुर इलाके में तीन लोगों की मौत हो गई. यह लोग पहाड़ के पास मौजूद कोंडली नहर में नहा रहे थे. काफी लोग पहाड़ के करिब से गुजरने वाली सड़क से भी आवाजाही कर रहे थे. यह हादसा दिल्ली और गाजियावाद बार्डर के करीब हुआ.

दिल्ली सरकार और नगर निगम का कीक गेम

प्रदूषण के मामले में दिल्ली दुनिया के प्रमुख शहरों में शुमार हैं. पिछले साल तो वातावरण में इतना धुंध हो गया था कि लोगों की जान पर बन आई थी. इसके बाद मामले में अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ा. जब सारे प्रदेश में प्रदूषण को लेकर हाहाकार मचने लगा तो दिल्ली सरकार को एहतियातन आड-इवेन फार्मूला लाना पड़ा. दिल्ली की घटना हमारे लिए खतरे की घंटी है.

गाजीपूर में कूड़े का पहाड़

महानगरों से निकलता प्लास्टिक कचरा पर्यावरण का गला घोंटने पर उतारु हैं. इसके कारण इंसानी सभ्यता और जीवन खतरे में पड़ता जा रहा है. हमारी संसद और राजनीति के लिए प्रदूषण कभी भी बहस का हिस्सा नहीं बन पाया. और ना ही यह मुद्दा जनांदोलन...

आर्थिक उदारीकरण और उपभोक्तावाद की संस्कृति ने महानगरों से निकले वाले अपशिष्ट को पहाड़ के ढ़ेर में बदल दिया है. मानव सभ्यता के लिए यह खतरे की घंटी है. अभी तक बारिश और भूस्खलन की वजह से पहाड़ों का खीसकना और यातायाता का प्रभावित होना आम बात मानी जाती थी. भूस्खलन की घटनाओं में काफी संख्या में लोग मारे जाते रहे हैं. हाल में अभी इस तरह की कई घटनाएं हुई हैं. कुछ साल पहले महाराष्ट्र में भूस्खलन की वजह से एक पूरे गांव का अस्तित्व मिट गया था. उत्तराखंड के पहाड़ों में अधिक बर्षा या दबाब के कारण पहाड़ों का नीचे आना सामान्य बात है. लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में पहली बार यह घटना सामने आई. जिसमें पहले तो कचरे ने पहाड़ का शक्ल ले लिया और अब इस पहाड़ के गिरने की खबर आई. जिसके कारण पूर्वी दिल्ली के गाजीपुर इलाके में तीन लोगों की मौत हो गई. यह लोग पहाड़ के पास मौजूद कोंडली नहर में नहा रहे थे. काफी लोग पहाड़ के करिब से गुजरने वाली सड़क से भी आवाजाही कर रहे थे. यह हादसा दिल्ली और गाजियावाद बार्डर के करीब हुआ.

दिल्ली सरकार और नगर निगम का कीक गेम

प्रदूषण के मामले में दिल्ली दुनिया के प्रमुख शहरों में शुमार हैं. पिछले साल तो वातावरण में इतना धुंध हो गया था कि लोगों की जान पर बन आई थी. इसके बाद मामले में अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ा. जब सारे प्रदेश में प्रदूषण को लेकर हाहाकार मचने लगा तो दिल्ली सरकार को एहतियातन आड-इवेन फार्मूला लाना पड़ा. दिल्ली की घटना हमारे लिए खतरे की घंटी है.

गाजीपूर में कूड़े का पहाड़

महानगरों से निकलता प्लास्टिक कचरा पर्यावरण का गला घोंटने पर उतारु हैं. इसके कारण इंसानी सभ्यता और जीवन खतरे में पड़ता जा रहा है. हमारी संसद और राजनीति के लिए प्रदूषण कभी भी बहस का हिस्सा नहीं बन पाया. और ना ही यह मुद्दा जनांदोलन का रूप ले पाया. प्रदूषण के खिलाफ एक जंग जरूर छिड़ी है, लेकिन इसे अभी तक जमींन नहीं मिल पायी है. वह मंचीय और भाषण बाजी तक सीमटकर रह गया है. दिल्ली में बढ़ते प्लास्टिक कचरे का निदान कैसे होगा, इस पर विचार करने के बजाय दिल्ली सरकार और नगर निगम एक दूसरे के खिलाफ किक गेम खेलते दिख रहे हैं. इस समस्या के निदान के बजाय इस पर राजनीति हो रही है. राज्यों की अदालतों और सरकारों की तरफ से प्लास्टिक संस्कृति पर विराम लगाने के लिए कई फैसले और दिशा निर्देश आए. लेकिन जमीनी स्तर पर इसका कोई फायदा होता नहीं दिख रहा है.

99% प्लस्टिक समुद्री जीवों के पेट में और समुद्र तल पर

भारत में प्लास्टिक का उपयोग लगभग 60 के दशक में शुरू हुआ. इन 70 सालों में यह पहाड़ की शक्ल ले चुका है. दो साल पूर्व भारत में अकेले ऑटोमोइल क्षेत्र में इसका उपयोग सलाना पांच हजार टन था. संभावना यह जताई गयी है कि अगर इसी तरह उपयोग बढ़ता रहा तो जल्द ही यह आकड़ा 22 हजार टन तक पहुंच जाएगा. भारत में जिन इकाईयों के पास यह दोबारा रिसाइकल के लिए जाता है वहां प्रतिदिन 1,000 टन प्लास्टिक कचरा जमा होता है. जिसमें से 75 फीसदी प्लास्टिक सस्ते चप्पलों के निर्माण में खपता है. 1991 में भारत में इसका उत्पादन नौ लाख टन था. आर्थिक उदारीकरण की वजह से प्लास्टिक को अधिक बढ़ावा मिल रहा है. वही दूसरी तरफ आधुनिक जीवन शैली और गायब होती झोला संस्कृति इसका सबसे बड़ा कारक है. 2014 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार समुद्र में प्लास्टि कचरे के 5,000 अरब टुकड़े तैर रहे हैं. अधिक वक्त बीतने के बाद यह टुकड़े माइक्रो प्लास्टिक में तब्दील हो जाते है. जीव विज्ञानियों के अनुसार समुद्र तल पर तैरने वाला यह भाग कुल प्लास्टिक का सिर्फ एक फीसदी है. जबकि 99 फीसदी समुद्री जीवों के पेट में है या फिर समुद्र तल में छुपा है. एक अनुमान के मुताबित 2050 तक समुद्र में मछलियों से अधिक प्लास्टिक होगी.

प्लास्टिक बैग

हाल ही में अफ्रीकी देश केन्या ने भी प्लास्टिक पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है. इस प्रतिबंध के बाद वह दुनिया के 40 देशों के उन समूह में शामिल हो गया है जहां प्लास्टिक पर पूर्णरुप से प्रतिबंध है. यही नहीं केन्या सरकार ने देश में प्लास्टिक के प्रयोग पर कठोर दंड का भी प्राविधान किया है. प्लास्टिक बैग के इस्तेमाल या इसके उपयोग को बढ़ावा देने पर 4 साल की कैद और 40 हजार डॉलर का जुर्माना हो सकता है. जिन देशों में प्लास्टिक पूर्ण प्रतिबंध है उसमें फ्रांस, चीन, इटली और रवांडा जैसे मुल्क शामिल हैं. लेकिन भारत में अब भी इस मामले में सराकार का लचीला रुख दिखा है.

आमेरिका में कागज बैग बेहद लोकप्रिय

यूरोपीय आयोग ने भी प्लास्टिक के उपयोग को कम करने के लिए प्रस्ताव लाया था. जिससे यूरोप में हर साल प्लास्टिक का उपयोग कम किया जा सके. यूरोपिय समूह के देशों में सालाना आठ लाख टन प्लास्टिक बैग का उपयोग होता है. जबकि इनका उपयोग सिर्फ एक बार किया जाता है. 2010 में यूरोप में प्रति व्यक्ति औसत 191 प्लास्टिक थैले का उपयोग किया. इसमें केवल छह प्रतिशत को दोबारा इस्तेमाल लायक बनाया जाता है. यहां हर साल चार अबर से अधिक प्लास्टिक बैग फेंक दिए जाते हैं. वैज्ञानिकों के विचार में प्लास्टिक का बढ़ता यह कचरा प्रशांत महासागर में प्लास्टिक सूप की शक्ल ले रहा है. प्लास्टिक के प्रयोग को रोकने के लिए आयरलैंड ने प्लास्टिक के हर बैग पर 15 यूरोसेंट का टैक्स 2002 में लगा दिया था. नतीजतन आयरलैंड में प्लास्टिक के प्रयोग में 95 फीसदी की कमी आयी. जबकि साल भर के भीतर 90 फीसदी दुकानदार इको फ्रेंदली बैग का इस्तेमाल करने लगे. साल 2007 में इस पर 22 फीसदी कर दिया गया. इस तरह सरकार ने टैक्स से मिले धन को पर्यावरण कोष में लगा दिया. अमेरिका जैसे विकसित देश में कागज के बैग बेहद लोकप्रिय हैं. वास्तव में प्लास्टिक हमारे लिए उत्पादन से लेकर इस्तेमाल तक की स्थितियों में खतरनाक है.

प्लास्टिक को नष्ट होने में 500 से 1000 साल लगता है

प्लास्टिक का निर्माण पेटोलियम से प्राप्त रसायनों से होता है. पर्यावरणीय लिहाज से यह किसी भी स्थिति में इंसानी सभ्यता के लिए बड़ा खतरा है. यह जल, वायु, मुद्रा प्रदूषण का सबसे बड़ा कारक है. इसका उत्पादन अधिकांश लघु उद्योग में होता है. जहां गुणवत्ता नियमों का पालन नहीं होता है. प्लास्टिक कचरे का दोबारा उत्पादन आसानी से संभव नहीं होता है. क्योंकि इनके जलाने से जहां जहरीली गैस निकलती है. वहीं यह मिट्टी में पहुंच भूमि की उर्वरक शक्ति को भी नष्ट कर देता है. मवेशियों के पेट में प्लास्टिक के चले जाने से कई बार तो उनकी जान भी चली जाती है. वैज्ञानिकों के अनुसार प्लास्टि को नष्ट होने में 500 से 1000 साल तक लग जाते हैं. दुनिया में हर साल 80 से 120 अरब डॉलर का प्लास्टिक बर्बाद होता है. जिसकी वजह से प्लास्टि उद्योग पर रिसाइकल कर पुनः प्लास्टिक तैयार करने का दबाब रहता है. बता दें कि 40 फीसदी प्लास्टिक का उपयोग सिर्फ एक बार के उपयोग के लिए किया जाता है. दिल्ली की घटना से हमें सबक लेना होगा.

प्लास्टिक के उपयोग को प्रतिबंधित करने के लिए कठोर फैसले लेने होंगे. तभी हम महानगरों में बनते प्लास्टिक यानी कचरों के पहाड़ को रोक सकते हैं. दिल्ली तो दुनिया में प्रदूषण को लेकर पहले से बदनाम है. हमारे जीवन में बढ़ता प्लास्टिक का उपयोग इंसानी सभ्यता को निगलने पर आमादा है. सरकारी स्तर पर प्लास्टिक कचरे के निस्तारण के लिए ठोस प्रबंधन की जरुरत है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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