• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
सियासत

केजरीवाल का फायदा इसी में है कि विपक्षी गठबंधन में वो अछूत बने रहें

    • आईचौक
    • Updated: 14 जून, 2017 07:06 PM
  • 14 जून, 2017 07:06 PM
offline
क्या केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी के खिलाफ अपनी लड़ाई में केजरीवाल कमजोर पड़ेंगे? या फिर विपक्ष द्वारा उन्हें अछूत मानना उनके लिए वरदान साबित हो सकता है?

26 मई को सोनिया गांधी के भोज में अरविंद केजरीवाल को न्योता न मिलना बड़ा संकेत रहा. साफ हो गया कि केजरीवाल कम से कम उस गठबंधन का हिस्सा तो बनने से रहे जिसमें कांग्रेस की चलती हो.

संभव है गठबंधन का हिस्सा बनने में पहले केजरीवाल की भी दिलचस्पी कम ही रही हो. मगर, बाद की बातों से तो ऐसा लगता है कि केजरीवाल हद से ज्यादा ख्वाहिशमंद हो गये थे - और कांग्रेस ने घास तक न डाली.

क्या इससे केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी के खिलाफ अपनी लड़ाई में केजरीवाल कमजोर पड़ेंगे? या फिर विपक्ष द्वारा उन्हें अछूत मानना उनके लिए वरदान साबित हो सकता है?

केजरीवाल की नो एंट्री क्यों?

केजरीवाल के रामलीला आंदोलन के दौरान कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए का शासन रहा. केजरीवाल ने कांग्रेस नेताओं को जी भर कोसा, वैसे उन्होंने छोड़ा तो किसी को भी नहीं. यहां तक कि रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ सार्वजनिक रूप से किसी ने कुछ कहा तो वो केजरीवाल ही रहे. लेकिन ये दलील तो पहले ही खारिज हो जाती है कि कांग्रेस उन बातों को गांठ बांध कर अब भी बैठी हुई है. अगर ऐसा वास्तव में होता तो दिल्ली में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस केजरीवाल को समर्थन भला क्यों देती?

केजरीवाल को लेकर कांग्रेस की ताजा बेरुखी की एक अन्य वजह भी मानी जा रही है. इस थ्योरी के अनुसार कांग्रेस को लगता है कि आम आदमी पार्टी के विपक्ष के साथ आ जाने से भी कोई खास फायदा नहीं होने वाला. इस थ्योरी के पीछे तर्क है कि आप के चार में से तीन सांसद पहले ही केजरीवाल के खिलाफ मोर्चा खोल रखे हैं. पंजाब, गोवा और दिल्ली में एमसीडी चुनावों में हार के बाद आप में अंदरूनी कलह चरम पर है. फिलहाल बाहर से इस बात का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है कि पंजाब और दिल्ली के कितने विधायक आप के स्टैंड को सपोर्ट करने में यकीन रखते हैं. खासकर कपिल मिश्रा के हुड़दंग के बाद जो स्थिति बनी हुई है उसमें तो और भी घालमेल हो गया है.

26 मई को सोनिया गांधी के भोज में अरविंद केजरीवाल को न्योता न मिलना बड़ा संकेत रहा. साफ हो गया कि केजरीवाल कम से कम उस गठबंधन का हिस्सा तो बनने से रहे जिसमें कांग्रेस की चलती हो.

संभव है गठबंधन का हिस्सा बनने में पहले केजरीवाल की भी दिलचस्पी कम ही रही हो. मगर, बाद की बातों से तो ऐसा लगता है कि केजरीवाल हद से ज्यादा ख्वाहिशमंद हो गये थे - और कांग्रेस ने घास तक न डाली.

क्या इससे केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी के खिलाफ अपनी लड़ाई में केजरीवाल कमजोर पड़ेंगे? या फिर विपक्ष द्वारा उन्हें अछूत मानना उनके लिए वरदान साबित हो सकता है?

केजरीवाल की नो एंट्री क्यों?

केजरीवाल के रामलीला आंदोलन के दौरान कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए का शासन रहा. केजरीवाल ने कांग्रेस नेताओं को जी भर कोसा, वैसे उन्होंने छोड़ा तो किसी को भी नहीं. यहां तक कि रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ सार्वजनिक रूप से किसी ने कुछ कहा तो वो केजरीवाल ही रहे. लेकिन ये दलील तो पहले ही खारिज हो जाती है कि कांग्रेस उन बातों को गांठ बांध कर अब भी बैठी हुई है. अगर ऐसा वास्तव में होता तो दिल्ली में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस केजरीवाल को समर्थन भला क्यों देती?

केजरीवाल को लेकर कांग्रेस की ताजा बेरुखी की एक अन्य वजह भी मानी जा रही है. इस थ्योरी के अनुसार कांग्रेस को लगता है कि आम आदमी पार्टी के विपक्ष के साथ आ जाने से भी कोई खास फायदा नहीं होने वाला. इस थ्योरी के पीछे तर्क है कि आप के चार में से तीन सांसद पहले ही केजरीवाल के खिलाफ मोर्चा खोल रखे हैं. पंजाब, गोवा और दिल्ली में एमसीडी चुनावों में हार के बाद आप में अंदरूनी कलह चरम पर है. फिलहाल बाहर से इस बात का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है कि पंजाब और दिल्ली के कितने विधायक आप के स्टैंड को सपोर्ट करने में यकीन रखते हैं. खासकर कपिल मिश्रा के हुड़दंग के बाद जो स्थिति बनी हुई है उसमें तो और भी घालमेल हो गया है.

महागठबंधन में नो एंट्री!

हाल ही में सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी और जेडीयू नेता शरद यादव ने केजरीवाल से मुलाकात की थी. उससे पहले ममता बनर्जी भी केजरीवाल से मिली थीं. येचुरी राष्ट्रपति चुनाव में सोनिया गांधी के साथ साथ नेताओं से बात कर आम राय बनाने की कोशिश कर रहे हैं. यादव को भी उम्मीदवारी की रेस का हिस्सा माना जाता रहा है.

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक इन मुलाकातों में खुद केजरीवाल और दूसरे आप नेताओं ने विपक्षी गठबंधन में शामिल होने की इच्छा जताई थी. इसके पीछे दलील भी दी गयी कि अगर तृणमूल कांग्रेस-सीपीएम और समाजवादी पार्टी-बीएसपी राज्यों में कट्टर विरोध के बावजूद साथ आ सकते हैं तो आप को लेकर भला किसी को क्यों दिक्कत हो सकती है?

कांग्रेस को शुक्रिया कहें केजरीवाल और...

जो हुआ वो अच्छा हुआ - और जो नहीं हुआ वो और भी अच्छा हुआ. काफी सारे लोग इस धारणा में विश्वास करते हैं. विपक्ष के साथ गठबंधन न हो पाने को अगर केजरीवाल इस लिहाज से सोचें तो, कांग्रेस ने उन्हें नो एंट्री का बोर्ड दिखाकर आम आदमी पार्टी का भला ही किया है.

अगर केजरीवाल प्रस्तावित विपक्षी गठबंधन का हिस्सा बन भी जाते तो कदम कदम पर टकराव तय था. जिस शरद पवार का नाम राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी उम्मीदवार के तौर पर उछल चुका है, उन्हीं के चलते केजरीवाल ने बीजेपी के खिलाफ होने वाली एक मीटिंग में ही जाने से मना कर दिया था. पटना में लालू प्रसाद के साथ गले लगने को लेकर अपनी सफाई में केजरीवाल ने यही जताया था कि वो नहीं बल्कि लालू ही उनके गले पड़ गये. ये दोनों नेता शरद पवार और लालू प्रसाद संभावित गठबंधन के मजबूत किरदार हैं - क्या केजरीवाल की बात पर वो कभी सहमति जताएंगे? क्या उनकी बातें केजरीवाल को कभी पसंद आएंगी?

अब तक केजरीवाल की राजनीति को देख कर तो मालूम होता है कि केजरीवाल किसी भी गठबंधन में शामिल नहीं हो सकते सिवा एक के. वो गठबंधन जिसकी अगुवाई खुद केजरीवाल कर रहे हों, ताकि जब मर्जी हो जिसे चाहें बाहर कर सकें और जिसे चाहें शामिल कर सकें. विपक्ष का मौजूदा गठबंधन तो ऐसा होने से रहा. ऐसा होना नामुमकिन भी नहीं था, लेकिन केजरीवाल वे सारे मौके गंवा चुके हैं. लगातार चुनाव हार कर.

क्या करें केजरीवाल

केजरीवाल के पास अब तक की सारी गलतियों की समीक्षा कर आप को दुरूस्त करने का ये सबसे अच्छा मौका है. कभी बीजेपी पार्टी विद डिफरेंस होने के दावे करती थी. राजनीति में आने से पहले या शुरुआती दौर में केजरीवाल ने भी आप को लेकर कुछ ऐसे ही दावे किये थे. ऐसे में जब केजरीवाल बीजेपी के खिलाफ झंडा बुलंद किये हुए हों - और कांग्रेस भी उन्हें साथ लेने को तैयार न हो केजरीवाल के पास बेहतरीन मौका है - खुद को तराश कर बेस्ट साबित करने का.

केजरीवाल स्वयं नौकरशाही की पृष्ठभूमि से आये हैं. टीएन शेषन और जीआर खैरनार ने भी तो इसी मुल्क में मिसालें कायम की हैं. आखिर उनके पास कितने अधिकार थे? जाहिर है उतने ही होंगे जितने किसी भी आम नौकरशाह के पास. क्या केजरीवाल के पास दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर उन दोनों से भी कम अधिकार हैं? वो चाहें तो यथास्थिति में भी उम्दा प्रदर्शन कर सकते हैं - और बाकियों के लिए उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं. उन्हें तो सरकारी अफसर और मुख्यमंत्री दोनों होने का अनुभव है.

केजरीवाल चाहें तो दिल्ली में अपने सीमित अधिकारों के दायरे में खुद को बाकी मुख्यमंत्रियों से, बाकी राजनीतिक दलों से बेहतर साबित कर सकते हैं - और देश और दुनिया के सामने मिसाल पेश कर सकते हैं. शर्तें यहां भी लागू हैं, अगर वो खुद को बदलने को तैयार हों - और अपनी मौजूदा सियासी स्टाइल को बेअसर समझने लगे हों. वैसे इस बात के संकेत वो दे भी चुके हैं. एमसीडी चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निजी हमले न करने का आप का फैसला इसी ओर इशारा करता है.

इन्हें भी पढ़ें :

नीतीश कुमार आये नहीं, सोनिया ने केजरीवाल को बुलाया नहीं

दिल्ली सरकार के अफसरों पर सीबीआई का खौफ क्यों?

कपिल मिश्रा का नया इल्जाम - सिसोदिया ने पिटवाया, हंस रहे थे केजरीवाल

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    अब चीन से मिलने वाली मदद से भी महरूम न हो जाए पाकिस्तान?
  • offline
    भारत की आर्थिक छलांग के लिए उत्तर प्रदेश महत्वपूर्ण क्यों है?
  • offline
    अखिलेश यादव के PDA में क्षत्रियों का क्या काम है?
  • offline
    मिशन 2023 में भाजपा का गढ़ ग्वालियर - चम्बल ही भाजपा के लिए बना मुसीबत!
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲