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कासगंज थाने में अल्ताफ की मौत ने योगी सरकार का 'मॉडल' बेनकाब कर दिया

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 12 नवम्बर, 2021 05:50 PM
  • 12 नवम्बर, 2021 05:47 PM
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कासगंज कस्टोडियल डेथ (Kasganj Custodial Death) किसी केस स्टडी जैसा ही मामला है. अगर सारे आयाम देखें तो योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) सरकार और उनकी पुलिस (UP Police) और प्रशासनिक अफसरों के कार्यशैली का लेटेस्ट नमूना है - और इसके जरिये बाकी बातें भी समझी जा सकती हैं.

यूपी पुलिस को लेकर बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बेबी रानी मौर्य के बयान में कुछ लोगों ने उनकी महत्वाकांक्षा की झलक भले देखी हो, लेकिन यूपी पुलिस (P Police) उनकी बातें सही साबित करने लगी है. वाराणसी में एक कार्यक्रम में बेबी रानी मौर्य ने महिलाओं को शाम पांच बजे के बाद पुलिस के पास न जाने की सलाह दी थी. साफ साफ समझाने की कोशिश रही कि अगर बहुत जरूरी हो तो अगले दिन महिलाएं घर के किसी पुरुष सदस्य के साथ ही थाने जाकर पुलिस वालों से मिलें - बयान के पीछे की राजनीति जो भी हो, लेकिन यूपी पुलिस को लेकर ये तो मैसेज दे ही रहा है कि वो महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं है.

कासगंज में हुई हिरासत में मौत (Kasganj Custodial Death) या उससे पहले आगरा का वाकया और गोरखपुर में पुलिस की पिटाई से हुई मनीष गुप्ता की मौत - और सभी मामलों में यूपी पुलिस की एक जैसी भूमिका क्या बेबी रानी मौर्य की बातों की पुष्टि नहीं करती - सिर्फ महिलाओं की बात कौन करे, ये तो पुरुषों के लिए भी सुरक्षित नहीं है.

कासगंज केस में अल्ताफ के पिता का कहना है कि बेटे को पुलिस के हवाले कर दिया क्योंकि यकीन था कि वो गलत नहीं है. बाद में जब बेटे से मिलने की कोशिश की तो पुलिसवालों ने भगा दिया - और अंत में पुलिसवालों ने बता दिया कि अल्ताफ ने फांसी लगा ली.

और तभी कासगंज के एसपी रोहन प्रमोद बोत्रे ने अल्ताफ के फांसी लगा लेने का जो किस्सा सुनाया, हर किसी का एक ही सवाल है - दो फीट की टोंटी से साढ़े पांच फीट के अल्ताफ ने भला कैसे फांसी लगायी होगी?

पूर्व आइएएस अधिकारी सूर्य प्रताप सिंह भी पूछते हैं, 'आगरा में अरुण वाल्मीकि की पुलिस कस्टडी में मौत हुई थी, तो यही स्क्रिप्ट - कोई पद्मश्री बची है,क्या?'

हर बात में हिंदू-मुस्लिम की नौबत क्यों?

चाहे वो हिरासत में मौत का...

यूपी पुलिस को लेकर बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बेबी रानी मौर्य के बयान में कुछ लोगों ने उनकी महत्वाकांक्षा की झलक भले देखी हो, लेकिन यूपी पुलिस (P Police) उनकी बातें सही साबित करने लगी है. वाराणसी में एक कार्यक्रम में बेबी रानी मौर्य ने महिलाओं को शाम पांच बजे के बाद पुलिस के पास न जाने की सलाह दी थी. साफ साफ समझाने की कोशिश रही कि अगर बहुत जरूरी हो तो अगले दिन महिलाएं घर के किसी पुरुष सदस्य के साथ ही थाने जाकर पुलिस वालों से मिलें - बयान के पीछे की राजनीति जो भी हो, लेकिन यूपी पुलिस को लेकर ये तो मैसेज दे ही रहा है कि वो महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं है.

कासगंज में हुई हिरासत में मौत (Kasganj Custodial Death) या उससे पहले आगरा का वाकया और गोरखपुर में पुलिस की पिटाई से हुई मनीष गुप्ता की मौत - और सभी मामलों में यूपी पुलिस की एक जैसी भूमिका क्या बेबी रानी मौर्य की बातों की पुष्टि नहीं करती - सिर्फ महिलाओं की बात कौन करे, ये तो पुरुषों के लिए भी सुरक्षित नहीं है.

कासगंज केस में अल्ताफ के पिता का कहना है कि बेटे को पुलिस के हवाले कर दिया क्योंकि यकीन था कि वो गलत नहीं है. बाद में जब बेटे से मिलने की कोशिश की तो पुलिसवालों ने भगा दिया - और अंत में पुलिसवालों ने बता दिया कि अल्ताफ ने फांसी लगा ली.

और तभी कासगंज के एसपी रोहन प्रमोद बोत्रे ने अल्ताफ के फांसी लगा लेने का जो किस्सा सुनाया, हर किसी का एक ही सवाल है - दो फीट की टोंटी से साढ़े पांच फीट के अल्ताफ ने भला कैसे फांसी लगायी होगी?

पूर्व आइएएस अधिकारी सूर्य प्रताप सिंह भी पूछते हैं, 'आगरा में अरुण वाल्मीकि की पुलिस कस्टडी में मौत हुई थी, तो यही स्क्रिप्ट - कोई पद्मश्री बची है,क्या?'

हर बात में हिंदू-मुस्लिम की नौबत क्यों?

चाहे वो हिरासत में मौत का मामला हो या फिर यूपी पुलिस का एनकाउंटर या ऑक्सीजन की कमी की बातें या फिर अस्पताल में बच्चों की मौत की घटना - न सिर्फ पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी बल्कि राज्य सरकार के मंत्री और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ही क्यों न हों, हर कोई ऐसे सारे आरोपों को बस सिरे से खारिज करने में ही पूरी एनर्जी झोंक देता है.

और ये कहानी शुरू होती है गोरखपुर में ऑक्सीजन की कमी से बच्चों की मौत के बाद. बात 2017 की ही है जब योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) को मुख्यमंत्री बने छह महीने भी नहीं हुए थे और एंटी रोमियो स्क्वाड के एक्शन पर बवाल भी खूब हो रहे थे.

अस्पताल में बच्चों की मौत को लेकर एक से एक दलीलें दी गयीं और हर बार इस दावे को खारिज किया गया कि मौत की वजह ऑक्सीजन की कमी नहीं थी - और जब लगा कि लोग सरकार की हर सफाई में कुतर्क ही देख रहे हैं, फिर तो एक योगी आदित्यनाथ के ही एक मंत्री ने साफ तौर पर बोल दिया - 'अगस्त में तो बच्चे मरते ही हैं.'

कासगंज केस के साथ ही ये प्रसंग एक बार फिर इसलिए भी ताजा हो गया है क्योंकि योगी आदित्यनाथ सरकार ने आखिरकार डॉक्टर कफील को सेवा से बर्खास्त कर दिया है. कभी ये तो नहीं बताया गया कि जब ऑक्सीजन की कमी नहीं थी तो सप्लायर के पीछे पूरा सरकारी अमला क्यों पड़ गया था, लेकिन लापरवाही का ठीकरा डॉक्टर कफील खान के सिर ही फूटा है. हालांकि, जेल भेजे जाने से पहले तक डॉक्टर कफील खान स्थानीय मीडिया में हीरो बने हुए थे कि कैसे दोस्तों से ऑक्सीजन लेकर बच्चों की जान बचाने में जी जान से जुटे थे.

हो सकता है चुनाव नजदीक आने पर डॉक्टर कफील को लेकर भी सोशल मीडिया पर लोग वैसे ही लिखना शुरू कर दें जैसे अल्ताफ की मौत पर लिख रहे हैं - 'वो लड़का मुसलमान था.'

अब अगर चुनावों के चलते हिंदू-मुसलमान वाला राजनीतिक माहौल बन चुका हो, फिर तो ऐसी बातें भी होंगी ही - लेकिन क्या गोरखपुर में पुलिस की पिटाई से जान गवां देने वाले मनीष गुप्ता को लेकर भी ऐसी बातें की जा सकती हैं? क्या आगरा में अरुण वाल्मीकि की हिरासत में हुई मौत को लेकर भी ऐसी टिप्पणी की जा सकती है?

हाथरस से लेकर उन्नाव तक गैंग रेप हुए - और वे सबके सब अपराध थे. अपराध को दबाने, छिपाने और खारिज करने के लिए पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी चाहें जो भी कहानी सुनाते रहे हों और उनके कुतर्कों को चाहे जैसे राजनीतिक संरक्षण मिलता रहा हो - ये अलग से बहस का मुद्दा हो सकता है.

योगी आदित्यनाथ की पार्टी बीजेपी के नेताओं के पास तो हर आरोप को काउंटर करने के लिए पहले से ही रेडीमेड ऐंगल तैयार होते हैं. ये तो पुलिस की ही थ्योरी है कि टोंटी से अल्ताफ ने फांसी लगा ली, लेकिन जब पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सवाल करते हैं तो बीजेपी की तरफ से जवाब आता है - बड़ा अनुभव है उनको टोंटी को लेकर. सोशल मीडिया पर बीजेपी समर्थक अखिलेश यादव के लिए वैसे ही 'टोंटीचोर' लिखते रहे हैं जैसे उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे के लिए 'बेबी पेग्विन' या राहुल गांधी के लिए 'पप्पू'.

क्या योगी को मालूम है अफसरों की कार्यशैली?

सरकार कोई भी हो. किसी भी राजनीतिक दल का शासन हो - पुलिस एनकाउंटर किसी भी सरकार में निर्विवाद नहीं रहा है. अपवादों की बात और हो सकती है, लेकिन योगी आदित्यनाथ सरकार में हुए पुलिस एनकाउंटर सबसे ज्यादा विवादित रहे हैं. हो सकता है ये सब यूपी पुलिस को मिले योगी आदित्यनाथ के संरक्षण के चलते भी होता हो उसके उलट कोई और भी पहलू हो.

योगी आदित्यनाथ के राजनीतिक विरोधी शुरू से ही उनकी प्रशासनिक क्षमता पर सवालिया निशान लगाते रहे हैं, लेकिन यूपी सरकार के अफसरों और पुलिस की कहानियां सुनने के बाद वे पूरी तरह गलत भी नहीं लगते. ध्यान देने पर कई मामलों में यूपी सरकार के अफसरों के बयान और वे गलत हों या सही मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की तरफ से दी जाने वाली मंजूरी पुष्टि भी करते हैं.

कभी कभी तो लगता है कि सीनियर पुलिस और प्रशासनिक अफसर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अपने मनमाफिक ज्यादातर चीजें समझा बुझा लेते हैं और हां करने के लिए राजी भी कर लेते हैं - और एक बार परमिशन ग्रांट होने के बाद तो जैसे मनमानी पर ही उतर आते हैं.

चूंकि पुलिस की कार्यशैली में अपराधियों के खात्मे के बहाने एनकाउंटर पसंदीदा शगल समझा जाता है, लिहाजा वो राजनीतिक नेतृत्व से भी वैसे ही सपोर्ट की अपेक्षा करते हैं और अगर राजनीतिक नेतृत्व भी नौकरशाही पर हद से ज्यादा ही निर्भर होने लगा तो अफसरों के लिए ये सब बायें हाथ का खेल बन कर रह जाता है.

मालूम नहीं कार्यकाल पूरा करने की तरफ बढ़ रहे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी वास्तव में ऐसी बातों का इल्म है भी या नहीं, लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो मान कर चलना चाहिये कि आगे आने वाला चुनाव उनके लिए बेहद खतरनाक मोड़ होने वाला है.

किसानों के आंदोलन को लेकर हरियाणा के ड्यूटी मजिस्ट्रेट की ही तरह यूपी में हुए ब्लॉक प्रमुख चुनावों में अफसरों के कई वीडियो वायरल हुए थे - और सभी एक जैसी ही कहानी सुना रहे थे. चूंकि अफसरों की बातें सरकार के लिए फायदेमंद लग रही थीं, इसलिए उन पर तो कुछ होने जाने से रहा.

अगर कोरोना की पहली लहर में योगी आदित्यनाथ ने तारीफें बटोरीं और नीतीश कुमार जैसे मुख्यमंत्रियों को फूटी आंख नहीं सुहा रहे थे, तो दूसरी लहर में फजीहत भी खूब हुई. अफसरों के कामकाज को लेकर मंत्रियों, विधायकों और बीजेपी नेताओं ने सवाल उठाये. मुख्यमंत्री को चिट्ठियां भी लिखी गयीं.

और जब भी कोई गंभीर घटना होती है, जिले के एसपी-डीएम पीड़ित परिवार को कहीं बैठा लेते हैं और दबाव डालना शुरू कर देते हैं - वो जगह कोई सरकारी दफ्तर भी हो सकता है. वो जगह पीड़ित का घर भी हो सकती है.

हाथरस से लेकर गोरखपुर के मनीष गुप्ता कांड तक समझाने-बुझाने की भी करीब करीब एक जैसी स्टाइल होती है - मसलन, '...अब क्या फायदा जो होना था वो तो हो ही गया... अब केस करने से क्या मिल जाएगा... बेमतलब वक्त जाया होगा... परेशानियां होंगी वो अलग से...'

क्या अफसर योगी आदित्यनाथ को गुमराह करते हैं?

1. अंगूठे के निशान वाला बयान: जैसे कासगंज केस में अल्ताफ के पिता से दबाव डाल कर लिखा लिया गया - बेटा डिप्रेशन में था खुदकुशी कर लिया, पुलिस से कोई शिकायत नहीं है. अंगूठा भी लगवा लिया गया है.

ये बयान तो कोर्ट में पुलिस के पक्ष में ही जाएगा - अगर अल्ताफ के पिता आखिर तक इस बात पर नहीं टिके रहे कि ये सब पुलिस के दबाव में हुआ है.

न्यूज वेबसाइट द प्रिंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, चांद मियां का बयान अल्ताफ के चचेरे भाई मोहम्मद सगीर ने लिखा - और लिखा क्या, जैसा सगीर ने बताया है, एक सिपाही जो जो बोलता गया उसने ने कागज पर लिख दिया. सगीर के हवाले से रिपोर्ट में बताया गया है कि बयान लिखे जाते वक्त चांद मियां, अल्ताफ की मां फातिमा, उसके चाचा शाकिर अली और एक स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता मौजूद थे.

सगीर के मुताबिक, रिपोर्ट कहती है, सामाजिक कार्यकर्ता ने ही पूरे मामले में मध्यस्थ की भूमिका निभायी, जिसमें परिवार को पांच लाख रुपये देने और सरकारी नौकरी का भी वादा किया गया था. सगीर का दावा है कि चांद मियां के अकाउंट में रुपये भी फौरन ट्रांसफर कर दिये गये और बताया गया कि बाकी और रकम सरकारी योजनाओं के तहत मिल जाएगी. कासगंज के सर्किल अफसर दीप कुमार पंत ने सगीर के दावों को झूठा करार दिया है, लेकिन मुआवजा ऑफर किये जाने की बात स्वीकार की है. तरीका अलग भी हो सकता है और इरादा भी.

अब भले अल्ताफ के पिता कहते फिरें कि ये सब जबरन हुआ. पुलिस को एक सबूत चाहिये था कोर्ट में जमा करने के लिए मिल गया. अब अगर अल्ताफ के पिता मीडिया से कहें कि ये सब दबाव में करा लिया गया, फर्क क्या पड़ने वाला है - अगर अदालत में बयान दर्ज होने तक वो टिके रहें तब तो कोई बात भी हो. बयान दर्ज कराने के बाद क्रॉस एग्जामिनेशन भी होगा. तब तक वो टिके रहे तब तो ठीक. वरना, जैसे जैसे समय खिंचता है परिस्थितियां समझौते की तरफ धकेल देती हैं - और कम ही लोग होते हैं जो इंसाफ की लंबी लड़ाई में टिक पाते हैं.

2. मुकदमा लड़ने में वक्त खराब होगा: गोरखपुर में थाने के एसएचओ ने पूरी टीम के साथ एक होटल पर रेड डाली और कानपुर के मनीष गुप्ता को पीट पीट कर मार डाला. पहले तो पुलिस ने आनाकानी की, लेकिन जब दाल नहीं गली तो पुलिसवालों के खिलाफ केस दर्ज किया. फरार होने पर इनाम भी घोषित किया और बाद में गिरफ्तारी भी हुई. सब जेल भेजे गये.

लेकिन पुलिस वालों को बचाने की कोशिशें भी कम नहीं हुईं. मनीष गुप्ता की पत्नी मीनाक्षी गुप्ता को गोरखपुर के डीएम जिले के एसपी की मौजूदगी में समझा रहे थे. समझा क्या रहते थे सीधे सीधे धमका रहे थे. एक वायरल वीडियो में डीएक को कहते सुना गया, बड़ा भाई होने के नाते समझा रहा हूं, मुकदमा मत कीजिये कोर्ट कचहरी के कई कई साल तक चक्कर काटने पड़ते हैं.

3. संबंध बना कर रखना चाहिये: ठीक वैसे ही हाथरस के डीएम के डीएम भी पीड़ित परिवार को धमका रहे थे... ये मीडिया वाले चले जाएंगे तब क्या हाल होगा?

वायरल वीडियो में हाथरस के डीएम समझा रहे थे, 'आप अपनी विश्वसनीयता खत्म मत कीजिये... मीडिया वाले आधे चले गये हैं... कल सुबह आधे निकल जाएंगे... दो-चार बचेंगे कल शाम... हम आपके साथ खड़े हैं... अब आपकी इच्छा है कि आपको बयान बदलना है या नहीं?'

अल्ताफ के परिवार के लोग हिरासत में हुई मौत की सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं. ऐसे मामलों में योगी आदित्यनाथ कहते रहे हैं कि अगर परिवार चाहेगा तो सीबीआई जांच की सिफारिश की जाएगी. हाथरस केस और मनीष गुप्ता कांड में भी सीबीआई जांच कर रही है.

हाथरस गैंगरेप को याद करें तो ऐसा लगा जैसे योगी आदित्यनाथ को उनके सीनियर अफसर सरेआम गुमराह करने की कोशिश करते रहे. यूपी पुलिस के एडीजी लॉ एंड ऑर्डर तो पीड़ित के साथ रेप होने से ही इंकार करते रहे, लेकिन जब सीबीआई ने जांच शुरू की तो पाया कि रेप हुआ था और चार्जशीट भी उन आरोपियों के खिलाफ भी फाइल हुई जिन्हें स्थानीय पुलिस ने गिरफ्तार किया था.

लेकिन पुलिस की झूठी थ्योरी को भी योगी आदित्यनाथ सही ठहराते हैं. लखनऊ में हुए एक कार्यक्रम में जब योगी आदित्यनाथ से ये सवाल पूछा गया तो बोले कि जो पुलिस कह रही थी, सीबीआई ने भी वही माना. मगर तथ्य तो ये बताते हैं कि सीबीआई ने जांच के बाद यूपी पुलिस के दावे को झूठा साबित कर दिया है.

फिर भी अगर योगी आदित्यनाथ अफसरों की बातें ही दोहराते हैं तो क्या समझा जाये - क्या यूपी के सीनियर अफसर वाकई मुख्यमंत्री को गुमराह करते हैं? और बड़ी बात तो ये है कि क्या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ वास्तव में अपने अफसरों की बातों से गुमराह हो भी जाते हैं?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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