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कर्नाटक की गठबंधन सरकारों का नाटकीय दुर्भाग्‍य

    • अरविंद मिश्रा
    • Updated: 10 जुलाई, 2019 02:52 PM
  • 10 जुलाई, 2019 02:52 PM
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इस बात की पूरी संभावना है कि कर्नाटक में ये गठबंधन की सरकार जा सकती है या फिर किसी तरह बच भी गई तो ज़्यादा दिनों तक चल नहीं पाएगी. लेकिन यह कर्नाटक में पहली बार नहीं होगा जब गठबंधन अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायेगा.

मई 2018 में जब कर्नाटक में विधानसभा चुनाव परिणाम आया और किसी भी राजनीतिक पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, तब से वहां सियासी नाटक चालू है. भाजपा संख्या बल के हिसाब से सबसे बड़ी पार्टी (104 सीटें) के रूप में उभरी थी लेकिन सरकार बनाने के लिए जरूरी संख्या से पीछे रह गयी थी. इसके बाद कांग्रेस जो दूसरे पायदान पर (78 सीटें) सीटें जीती थी, उसने जनता दल (एस) (37 सीटें) के साथ गठबंधन करते हुए कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री पद सौंप दिया और खुद पिछली सीट पर बैठ गई. जबकि इन दोनों पार्टियों ने राज्य में एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा था. मतलब साफ था- यह गठजोड़ जनादेश के खिलाफ था. और तभी से ये कयास लगाए जाने लगे थे कि यह बेमेल व्यवस्था ज्यादा समय तक जिन्दा नहीं रह सकती. इस बीच दोनों दलों के घाव कभी भरे नहीं और समय-समय पर एक दूसरे के खिलाफ तनातनी जनता के बीच देखने को मिली. यहां तक कि एक समय मुख्यमंत्री कुमारस्वामी ने कहा था कि वो भगवान विषकंठ (नीलकंठ) की तरह जहर पी रहे हैं.

लोकसभा 2019 के परिणाम ने इस गठबंधन को और भी कमज़ोर कर दिया जब प्रदेश के 28 सीटों में से इस गठबंधन को मात्र दो सीटें ही मिल पाईं. कांग्रेस को एक और जनता दल (एस) को एक और बाकी 26 सीटें भाजपा के खाते में गयीं. खुद भूतपूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा लोकसभा चुनाव हार गए. यहां कर्नाटक के जनता का संदेश साफ था- जनादेश के खिलाफ सरकार का गठबंधन उसे मंजूर नहीं था.

मुख्यमंत्री कुमारस्वामी नेखुद  कहा था कि वो भगवान नीलकंठ की तरह जहर पी रहे हैं.

और अब करीब तेरह महीने बीत चुके हैं लेकिन अब ऐसा लगता है जैसे इस गठबंधन का अंत होने वाला है. ऐसा इसलिए क्योंकि कांग्रेस के साथ-साथ जनता दल (एस) के भी करीब एक दर्जन से ज़्यादा विधायक एवं मंत्री इस्तीफा दे चुके हैं और भाजपा के सम्पर्क...

मई 2018 में जब कर्नाटक में विधानसभा चुनाव परिणाम आया और किसी भी राजनीतिक पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, तब से वहां सियासी नाटक चालू है. भाजपा संख्या बल के हिसाब से सबसे बड़ी पार्टी (104 सीटें) के रूप में उभरी थी लेकिन सरकार बनाने के लिए जरूरी संख्या से पीछे रह गयी थी. इसके बाद कांग्रेस जो दूसरे पायदान पर (78 सीटें) सीटें जीती थी, उसने जनता दल (एस) (37 सीटें) के साथ गठबंधन करते हुए कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री पद सौंप दिया और खुद पिछली सीट पर बैठ गई. जबकि इन दोनों पार्टियों ने राज्य में एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा था. मतलब साफ था- यह गठजोड़ जनादेश के खिलाफ था. और तभी से ये कयास लगाए जाने लगे थे कि यह बेमेल व्यवस्था ज्यादा समय तक जिन्दा नहीं रह सकती. इस बीच दोनों दलों के घाव कभी भरे नहीं और समय-समय पर एक दूसरे के खिलाफ तनातनी जनता के बीच देखने को मिली. यहां तक कि एक समय मुख्यमंत्री कुमारस्वामी ने कहा था कि वो भगवान विषकंठ (नीलकंठ) की तरह जहर पी रहे हैं.

लोकसभा 2019 के परिणाम ने इस गठबंधन को और भी कमज़ोर कर दिया जब प्रदेश के 28 सीटों में से इस गठबंधन को मात्र दो सीटें ही मिल पाईं. कांग्रेस को एक और जनता दल (एस) को एक और बाकी 26 सीटें भाजपा के खाते में गयीं. खुद भूतपूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा लोकसभा चुनाव हार गए. यहां कर्नाटक के जनता का संदेश साफ था- जनादेश के खिलाफ सरकार का गठबंधन उसे मंजूर नहीं था.

मुख्यमंत्री कुमारस्वामी नेखुद  कहा था कि वो भगवान नीलकंठ की तरह जहर पी रहे हैं.

और अब करीब तेरह महीने बीत चुके हैं लेकिन अब ऐसा लगता है जैसे इस गठबंधन का अंत होने वाला है. ऐसा इसलिए क्योंकि कांग्रेस के साथ-साथ जनता दल (एस) के भी करीब एक दर्जन से ज़्यादा विधायक एवं मंत्री इस्तीफा दे चुके हैं और भाजपा के सम्पर्क में रहते हुए एक होटल से दूसरे होटल में मौज-मस्ती कर रहे हैं. और इसकी पूरी संभावना है कि ये गठबंधन की सरकार जा सकती है या फिर किसी तरह बच भी गई तो ज़्यादा दिनों तक चल नहीं पाएगी.

लेकिन यह कर्नाटक में पहली बार नहीं होगा जब गठबंधन अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायेगा

- बात 1983 की है जब राज्य की विधानसभा चुनाव में जनता पार्टी ने भाजपा के बाहरी समर्थन से सरकार बनाई और रामकृष्ण हेगड़े मुख्यमंत्री बने. तब जनता पार्टी को 95 और भाजपा को 18 सीटें मिली थीं. कांग्रेस 82 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर थी. लेकिन अगले साल के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा और हार का नैतिक जिम्मेवारी लेते हुए रामकृष्ण हेगड़े ने सरकार भंग कर दी थी. इस तरह गठबंधन अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया था.

- कर्नाटक में दूसरी बार गठबंधन की सरकार साल 2004 में बनी जब कांग्रेस और जनता दल (एस) एक साथ आए और कांग्रेस के एन. धरम सिंह मुख्यमंत्री बने थे. लेकिन लगभग डेढ़ साल के बाद ही इस गठबंधन का अंत हो गया. राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार इस सरकार के गिराने के पीछे कुमारस्वामी का हाथ था जिन्होंने बाद में भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई थी.

- इस तरह तीसरी बार गठबंधन की सरकार 2006 में बनी जब कुमारस्वामी ने भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री की कमान संभाली. दोनों पार्टियों को 20-20 महीने के लिए मुख्यमंत्री का पद मिलना था, लेकिन ठीक 20 महीने बाद जब भाजपा के येदियुरप्पा का मुख्यमंत्री बनने का समय आया तो जनता दल (एस) ने साथ नहीं दिया. इस तरह इस गठबंधन का अंत भी बगैर कार्यकाल पूरा किये ही खत्म हो गया.

इस तरह कर्नाटक के सियासी रण में तीन बार गठबंधन की सरकारें कभी भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायीं. अब बारी 2018 के कांग्रेस और जनता दल (एस) के बीच के गठबंधन की. वैसे लगता तो नहीं कि ये गठबंधन अपना कार्यकाल पूरा कर पाएगा लेकिन अगर ऐसा होता है तो कर्नाटक के सियासी इतिहास में इसका उल्लेख ज़रूर होगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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