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गुजरात और हिमाचल से ज्यादा दिलचस्प होगी कर्नाटक की लड़ाई

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 26 दिसम्बर, 2022 01:39 PM
  • 26 दिसम्बर, 2022 01:39 PM
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बीजेपी के खिलाफ अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) अगर कर्नाटक विधानसभा चुनाव भी गुजरात की तरह लड़ते हैं तो के. चंद्रशेखर राव (K. Chandrashekhar Rao) से भी कड़ा मुकाबला करना होगा - और मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) की तो इज्जत ही दांव पर लगी होगी.

कर्नाटक में भी बीजेपी के सामने सत्ता में वापसी की वैसी ही चुनौती है, जैसी गुजरात और हिमाचल प्रदेश में रही. गुजरात में तो बीजेपी ने दबदबा कायम रखा है, लेकिन हिमाचल प्रदेश में सत्ता बीजेपी से फिसल कर कांग्रेस के हाथ में पहुंच गयी है.

गुजरात में बीजेपी ने भले ही बहुमत का रिकॉर्ड बना डाला हो, लेकिन एक फिक्र नेतृत्व को जरूर खाये जा रही होगी - और वो है अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) की आम आदमी पार्टी की घुसपैठ. अव्वल तो बीजेपी नेता अमित शाह की टीम ने अरविंद केजरीवाल को 5 सीटों पर ही रोक दिया, वोट शेयर भी ज्यादा नहीं बढ़ने दिये लेकिन पूरी तरह तो नहीं ही रोक पाये.

जाहिर है कर्नाटक में मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई के सामने बड़ी चुनौती के रूप में कांग्रेस की तरफ से सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार ही होंगे, लेकिन अरविंद केजरीवाल की तरफ से मिलने वाले चैलेंज से भी तो जूझना ही होगा.

ऊपर से तेलंगाना से बाहर निकल कर मुख्यमंत्री केसीआर यानी के. चंद्रशेखर राव (K. Chandrashekhar Rao) भी कर्नाटक के मैदान में कूदने जा रहे हैं - और उनको लड़ाई के लिए मंच मुहैया करा रहे हैं पूर्व मुख्यमंत्री और जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी. पिछली बार कुमार स्वामी ने कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार बनायी थी, लेकिन सवा साल में ही बीजेपी के ऑपरेशन लोटस में उलझे और गच्चा खा गये.

जिस मकसद से अरविंद केजरीवाल गुजरात में चुनाव लड़ रहे थे, केसीआर की भी अपेक्षा वही होगी. केसीआर ने हाल ही में अपनी पार्टी टीआरएस को बीआरएस बना दिया है. बीआरएस यानी भारत राष्ट्र समिति का दिल्ली में दफ्तर भी खुल चुका है - और कर्नाटक की तैयारी का अंदाजा ऐसे लगाया जा सकता है कि दफ्तर के उद्घाटन के मौके पर एचडी कुमारस्वामी भी पहुंचे हुए थे. वैसे तो यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री...

कर्नाटक में भी बीजेपी के सामने सत्ता में वापसी की वैसी ही चुनौती है, जैसी गुजरात और हिमाचल प्रदेश में रही. गुजरात में तो बीजेपी ने दबदबा कायम रखा है, लेकिन हिमाचल प्रदेश में सत्ता बीजेपी से फिसल कर कांग्रेस के हाथ में पहुंच गयी है.

गुजरात में बीजेपी ने भले ही बहुमत का रिकॉर्ड बना डाला हो, लेकिन एक फिक्र नेतृत्व को जरूर खाये जा रही होगी - और वो है अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) की आम आदमी पार्टी की घुसपैठ. अव्वल तो बीजेपी नेता अमित शाह की टीम ने अरविंद केजरीवाल को 5 सीटों पर ही रोक दिया, वोट शेयर भी ज्यादा नहीं बढ़ने दिये लेकिन पूरी तरह तो नहीं ही रोक पाये.

जाहिर है कर्नाटक में मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई के सामने बड़ी चुनौती के रूप में कांग्रेस की तरफ से सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार ही होंगे, लेकिन अरविंद केजरीवाल की तरफ से मिलने वाले चैलेंज से भी तो जूझना ही होगा.

ऊपर से तेलंगाना से बाहर निकल कर मुख्यमंत्री केसीआर यानी के. चंद्रशेखर राव (K. Chandrashekhar Rao) भी कर्नाटक के मैदान में कूदने जा रहे हैं - और उनको लड़ाई के लिए मंच मुहैया करा रहे हैं पूर्व मुख्यमंत्री और जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी. पिछली बार कुमार स्वामी ने कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार बनायी थी, लेकिन सवा साल में ही बीजेपी के ऑपरेशन लोटस में उलझे और गच्चा खा गये.

जिस मकसद से अरविंद केजरीवाल गुजरात में चुनाव लड़ रहे थे, केसीआर की भी अपेक्षा वही होगी. केसीआर ने हाल ही में अपनी पार्टी टीआरएस को बीआरएस बना दिया है. बीआरएस यानी भारत राष्ट्र समिति का दिल्ली में दफ्तर भी खुल चुका है - और कर्नाटक की तैयारी का अंदाजा ऐसे लगाया जा सकता है कि दफ्तर के उद्घाटन के मौके पर एचडी कुमारस्वामी भी पहुंचे हुए थे. वैसे तो यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री रहे अखिलेश यादव ने भी मौजूदगी दर्ज करायी थी, और वो भी केसीआर के उत्तर भारत में पैन जमाने की कवायद का हिस्सा ही समझा जा रहा है.

अरविंद केजरीवाल की पार्टी गुजरात में क्षेत्रीय पार्टी बनने भर वोट शेयर हासिल कर राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करने के लिए दावेदार बन चुकी है. केसीआर भी तो उसी रास्ते पर चल रहे हैं. कर्नाटक केसीआर के लिए राष्ट्रीय राजनीति में उतरने का प्रवेश द्वार बनने जा रहा है.

अब तक अरविंद केजरीवाल की आपस में दोस्ती ही देखी गयी है, लेकिन आगे तो लगता है केसीआर से आमने सामने का मुकाबला भी हो सकता है. ऐसा होने की एक वजह ये भी है कि दोनों की नजर उन सीटों पर ही होगी जहां बीजेपी कमजोर पड़ रही हो. अब अगर परदे के पीछे अपने अपने इलाके बांट कर चुनाव लड़ने का कोई समझौता होता है तो बात अलग है.

आम आदमी पार्टी ने कर्नाटक की सभी 224 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा पहले से ही कर रखी है. पंजाब चुनाव खत्म होते ही अरविंद केजरीवाल को गुजरात और हिमाचल प्रदेश के साथ साथ कर्नाटक का भी ताबड़तोड़ दौरा करते देखा गया. बाद में गुजरात चुनाव पर ज्यादा ध्यान देने लगे और कर्नाटक अपनी टीम के हवाल कर दिया.

आप की कर्नाटक यूनिट की तरफ से हाल ही में मीडिया को बताया गया था कि जनवरी, 2023 के पहले हफ्ते तक उम्मीदवारों की पहली सूची फाइनल कर ली जाएगी. जाहिर है, ये सब अरविंद केजरीवाल के विपश्यना से लौटने के बाद ही अंतिम रूप दिया जाएगा. विपश्यना के लिए अरविंद केजरीवाल के जाने से पहले आम आदमी पार्टी ने एमसीडी के मेयर पद के लिए शेली ओबेरॉय को उम्मीदवार घोषित कर दिया है - एमसीडी के मेयर का चुनाव 6 जनवरी, 2023 को होने जा रहा है.

केजरीवाल और केसीआर की छिटपुट चुनौतियों के बीच बीजेपी को कर्नाटक में कांग्रेस बड़ा चैलेंज देने वाली है. ऐसा होने की कम से कम दो वजह तो है ही - सबसे बड़ी वजह तो ये है कि हिमाचल प्रदेश में बीजेपी के हाथ से सत्ता छीन लेने के बाद कांग्रेस नेतृत्व का हौसला सातवें आसमान पर पहुंच चुका है.

और दूसरी वजह हैं कांग्रेस के अध्यक्ष बने मल्लिकार्जुन खड़गे. सबने देखा ही कि किस तरह मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) के चुनाव लड़ने के दौरान राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा के साथ कर्नाटक पहुंचे थे - और सोनिया गांधी ने भी कर्नाटक की धरती पर ही एंट्री ली थी.

मल्लिकार्जुन खड़गे के जिम्मे कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद भी कोई ज्यादा वर्कलोड तो है नहीं, क्योंकि सारे काम तो आम सहमति के नाम पर गांधी परिवार से पूछ पूछ कर ही करना है. लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस की सत्ता में वापसी कराने की तो उनकी दिली ख्वाहिश होगी ही - और 2019 के लोक सभा चुनाव की हार का बदला भी तो बीजेपी से लेने का पहला मौका आया है. अध्यक्ष बनने के बाद हिमाचल प्रदेश में मिली जीत से दर्द थोड़ा कम जरूर हुआ होगा, लेकिन तसल्ली तो कर्नाटक की जीत से ही हो पाएगी.

कर्नाटक चुनाव सभी के लिए महत्वपूर्ण है

राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के मैसेज को समझें तो आने वाले लोक सभा चुनाव में कांग्रेस का ज्यादा जोर दक्षिण भारत पर ही होने वाला है - और ये भी नहीं भूलना चाहिये कि बीजेपी की दक्षिण भारतीय चुनावी साधना की तपोभूमि भी कर्नाटक ही रहा है.

ये बीएस येदियुरप्पा ही हैं जो बीजेपी के लिए दक्षिण का द्वार खोलते हुए कर्नाटक में भगवा लहराये थे. येदियुरप्पा ठीक से तो 2008 में ही मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल पाये और लंबी पारी खेल पाये, लेकिन उससे पहले 2007 में भी वो हफ्ते भर के लिए मुख्यमंत्री रह चुके थे.

बीजैपी और कांग्रेस तो अपनी जगह हैं ही, कर्नाटक की लड़ाई केसीआर और मल्लिकार्जुन खड़गे के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है

ये भी येदियुरप्पा का ही दबदबा रहा है कि 75 साल की उम्र हो जाने के बाद भी वो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज रहे, लेकिन बाद में बीजेपी की अंदरूनी राजनीति के शिकार हो ही गये. येदियुरप्पा के लिए बेटे को राजनीति में स्थापित करने की कोशिश सबसे कमजोर कड़ी साबित हुई. पहले तो उनकी कोशिश बेटे को उत्तराधिकारी ही बनाने की रही, लेकिन आलाकमान तक पहुंची शिकायतों ने खेल कर ही दिया.

फिर भी येदियुरप्पा का असर कम नहीं हो सका है. मुख्यमंत्री बदल कर बसवराज बोम्मई को कुर्सी पर बिठाने के बावजूद बीजेपी को येदियुरप्पा की जरूरत महसूस हुई और उनको पार्टी के संसदीय बोर्ड में लाया गया - और अब भी उनकी भूमिका सिर्फ रणनीति तैयार करने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि सत्ता में वापसी की कोशिश में बीजेपी की यात्रा का भी नेतृत्व करना पड़ रहा है. बीजेपी ने यात्रा भी राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के असर को कम करने के लिए शुरू की है.

बीजेपी के सबसे विध्वंसक राजनीतिक हथियार ऑपरेशन लोटस का इजाद भी येदियुरप्पा का ही किया हुआ है - जिसके अलग अलग वेरिएंट मध्य प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक कहर मचाते देखे जा चुके हैं. 2018 के चुनाव में हार के बाद भी कर्नाटक की सत्ता में बीजेपी की वापसी कराने येदियुरप्पा और उनका ऑपरेशन लोटस ही है.

कांग्रेस झगड़ा भी है, लेकिन टक्कर भी जोरदार देने वाली है: 2021 के आखिर में हुए उपचनावों के नतीजों को देखें तो कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश का रिजल्ट एक जैसा ही रहा - और हैरानी की बात तो ये रही कि कांग्रेस ने वहां भी जीत हासिल कर ली थी जो मुख्यमंत्री बोम्मई का इलाका है.

अगर ये कोई संकेत है तो कांग्रेस को मल्लिकार्जुन खड़गे से उम्मीदें बढ़ना स्वाभाविक है - और वैसे ही बीजेपी नेतृत्व का चिंतित होना भी. बीजेपी के पक्ष में एक ही बात जाती है और वो है कांग्रेस का अंदरूनी झगड़ा, लेकिन जिस तरीके से कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश में खुद को संभाला है और काफी सोच समझ कर सुखविंदर सिंह सुक्खू को मुख्यमंत्री बनाया है, कर्नाटक में भी कोई उसे हल्के में लेता है तो समझदारी नहीं कही जाएगी.

जैसे हिमाचल में वीरभद्र सिंह के परिवार और शुरू से ही उनके विरोधी रहे सुखविंद सिंह सुक्खू के बीच झगड़ा रहा, कर्नाटक में भी पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार को आपस में भी भिड़े देखा जाता रहा है.

2018 के चुनाव में भी राहुल गांधी को कर्नाटक में काफी एक्टिव देखा गया था - और अभी जो दक्षिण भारतीय राजनीति को लेकर जो रंग ढंग देखने को मिल रहा है, वो भी ऐसे ही इशारे कर रहा कि राहुल गांधी कर्नाटक चुनाव भी केरल विधानसभा चुनाव की तरह ही लड़ने जा रहे हैं. ये भी हो सकता है, काफी दिनों से चुनावी राजनीति से दूरी बना कर रह रहीं सोनिया गांधी भी कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए रैली करते देखी जायें.

केजरीवाल तो अपना फॉर्मूला ही आजमाएंगे: अरविंद केजरीवाल का तो सीधा फॉर्मूला है कांग्रेस को जहां भी मौका मिले रिप्लेस करना है. दिल्ली से पंजाब होते हुए गुजरात तक के आम आदमी पार्टी के सफर को देखें तो शिकार तो सबसे ज्यादा कांग्रेस ही हुई है.

हिमाचल प्रदेश में भी मुख्य तौर पर बीजेपी और कांग्रेस के बीच मुकाबला था, और गुजरात में भी - और उसी सीधी लड़ाई में अरविंद केजरीवाल खुद को आजमा रहे थे. देखा जाये तो केजरीवाल की वजह से नुकसान तो कांग्रेस को ही सबसे ज्यादा हुआ. कांग्रेस की ही कई सीटें जीत कर बीजेपी ने सबसे बड़ी जीत हासिल कर ली और अरविंद केजरीवाल ने भी झोली पांच सीटें रख ली.

कर्नाटक में बीजेपी को एक साथ कई मोर्चों पर जूझना पड़ सकता है - और जरूरी नहीं कि हर बार विपक्ष के बिखरे होने का फायदा ही मिले, अगर बिखरा विपक्ष अपने अपने पॉकेट में मजबूती से लड़े और एक दूसरे की टांग न खींचे तो बीजेपी के लिए नयी मुश्किल हो सकती है.

केसीआर के लिए दिल्ली में दस्तक का मौका है

कर्नाटक चुनाव में हिस्सा लेकर केसीआर भी अपने समर्थकों को वही संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं जो अरविंद केजरीवाल ने गुजरात चुनाव के जरिये दिया है - और वो संदेश है कि बीआरएस अगले आम चुनाव में बीजेपी को सीधी टक्कर देने जा रही है.

अभी ये तो नहीं कहा जा सकता कि केसीआर कर्नाटक में क्या हासिल कर पाएंगे, लेकिन अगर कुछ भी पा लिया तो उसका सबसे ज्यादा फायदा उनको तेलंगाना में ही मिलेगा. 2023 के आखिर में ही तेलंगाना में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं - और हर हाल में केसीआर को सत्ता में वापसी करनी है.

देखा जाये तो दिल्ली की राजनीति में केसीआर का पूरा पैंतरा तेलंगाना की जमीन बचाने की ही है. इस लिहाज से समझें तो तेलंगाना विधानसभा से पहले कर्नाटक चुनाव केसीआर की राजनीति के लिए सबसे महत्वपूर्ण हो गया है.

केसीआर असल में कुमारस्वामी के कंधे पर बंदूक रख कर बीजेपी से मुकाबला करने जा रहे हैं. ऐसा करके वो तेलंगाना के लोगों को ये मैसेज देने की कोशिश करेंगे कि वो 2024 की तैयारी कर रहे हैं. वैसे भी केसीआर बेटे-बेटी के झगड़े से कुछ ज्यादा ही परेशान हैं - और बेटी कविता भी जांच एजेंसियों के घेरे में आ चुकी हैं. ये स्थिति राजनीतिक शरणागत होने और चैन से सोने के लिए पहले ही जाग जाने जैसी ही होती है.

तेलंगाना और आंध्रप्रदेश की सीमा से लगे कर्नाटक के 10 जिलों में एक ऐसी आबादी का दबदबा है जो तेलुगु भाषी है - और ये आबादी इलाके के वोट बैंक में दस फीसदी की हिस्सेदारी रखती है.

केसीआर को मालूम है कि कुमारस्वामी का उस इलाके में ठीक ठाक प्रभाव है. केसीआर, दरअसल, उसी बाद का फायदा उठाने की कोशिश में हैं. और ऐसे फायदे एकतरफा तो होते नहीं. अगर केसीआर, कुमारस्वामी की मदद लेते हैं तो बदले में एक्सचेंज ऑफर भी देना ही होगा. फिर भी ज्यादा फायदे में तो केसीआर ही रहेंगे - अगर कर्नाटक के प्रदर्शन की बदौलत केसीआर तेलंगाना में फिर से सरकार बनाने में कामयाब रहते हैं तो डील चाहे जैसे भी फाइनल हो, सौदा महंगा तो कतई नहीं माना जाएगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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