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जेएनयू जैसा मैंने देखा

    • देवांशु झा
    • Updated: 14 अगस्त, 2018 02:43 PM
  • 27 फरवरी, 2017 06:47 PM
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तीन चार साल पहले तक वहां हालात आज से बेहतर थे. कुएं के मेढ़क कम टरटराते थे. सबकुछ अनुकूल था. अब सांस लेने में दिक्कत हो रही है क्योंकि बोल्शेविक क्रांति का भारतीय संस्करण बिक नहीं रहा.

1994 में पटना से दिल्ली आया. तब बड़े भैया जेएनयू के स्कूल ऑफ कंप्यूटर साइंस में पढ़ते थे. भैया झेलम छात्रावास में रहते थे और इसलिए मेरा भी वहां अकसर आना-जाना होता रहता था. धीरे-धीरे मैं भी जेएनयू के छात्रों जैसा हो गया. विश्वविद्यालय से न जुड़कर भी जुड़ सा गया था. दिन भर चकल्लस.. कभी इस ढाबे पर, कभी उस मार्केट में, कभी अरावली की उपत्यकाओं के पास.. तो कभी किसी छात्रावास में. 

भैया के जितने साथी थे, वे सभी समाज शास्त्र या आर्ट्स फैकल्टी से जुड़े थे या फिर कल्पांत तक संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा देने के इरादे से आए थे. भैया आकस्मिक रूप से आए थे. आईआईटी छोड़ कर आ जाने के बाद वे परिस्थितिवश जेएनयू से जुड़ गए थे. खैर, कुछ दिनों तक वहां रहने और लगातार आने जाने के बाद मैंने ये साफ महसूस कर लिया कि सोशल साइंस, आर्ट्स और हिन्दी पढ़ने वालों के बीच वहां पठन-पाठन का कोई माहौल नहीं था.

JN की 'रुसी क्रांति'

दिन भर चाय पानी, सोवियत यूनियन की कथा. नारेबाजी... लाल सलाम और संघ राष्ट्रवाद को गाली देना, यही करिकुलम था. वहां रहते हुए मेरी कई वरिष्ठों से मित्रता हो गई थी. उनमें से कुछ लोग यह मानते थे कि अपने कोर्स के अलावा तमाम क्रांति की दोयम दर्जे वाली किताबें पढ़ना, बीड़ी-सिगरेट पीना, चाय सुड़कना... डाउन.. डाउन के नारे लगाना और लड़कियां घुमाना ही असल बोल्शेविक जीवन है. बस मौसम जरा पिछड़ जाता था. अगर यहां भी रूस जैसी सर्दी पड़ती तो साल भर वोदका भी पी जाती.

तो वहां कई वरिष्ठ मुझसे अकसर कहा करते थे कि अरे देवांशु तुमने सिगरेट वगैरह पीनी शुरू की या नहीं? मैं मना कर देता तो बोलते अरे ये सही उम्र है सिगरेट वगैरह शुरू करने की. अब नहीं पियोगो तो कब पियोगे. मानो सिगरेट नहीं कोई स्वास्थ्यवर्धक चूरन हो. मैंने करीब दो साल वहां काटे. बहुत करीब...

1994 में पटना से दिल्ली आया. तब बड़े भैया जेएनयू के स्कूल ऑफ कंप्यूटर साइंस में पढ़ते थे. भैया झेलम छात्रावास में रहते थे और इसलिए मेरा भी वहां अकसर आना-जाना होता रहता था. धीरे-धीरे मैं भी जेएनयू के छात्रों जैसा हो गया. विश्वविद्यालय से न जुड़कर भी जुड़ सा गया था. दिन भर चकल्लस.. कभी इस ढाबे पर, कभी उस मार्केट में, कभी अरावली की उपत्यकाओं के पास.. तो कभी किसी छात्रावास में. 

भैया के जितने साथी थे, वे सभी समाज शास्त्र या आर्ट्स फैकल्टी से जुड़े थे या फिर कल्पांत तक संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा देने के इरादे से आए थे. भैया आकस्मिक रूप से आए थे. आईआईटी छोड़ कर आ जाने के बाद वे परिस्थितिवश जेएनयू से जुड़ गए थे. खैर, कुछ दिनों तक वहां रहने और लगातार आने जाने के बाद मैंने ये साफ महसूस कर लिया कि सोशल साइंस, आर्ट्स और हिन्दी पढ़ने वालों के बीच वहां पठन-पाठन का कोई माहौल नहीं था.

JN की 'रुसी क्रांति'

दिन भर चाय पानी, सोवियत यूनियन की कथा. नारेबाजी... लाल सलाम और संघ राष्ट्रवाद को गाली देना, यही करिकुलम था. वहां रहते हुए मेरी कई वरिष्ठों से मित्रता हो गई थी. उनमें से कुछ लोग यह मानते थे कि अपने कोर्स के अलावा तमाम क्रांति की दोयम दर्जे वाली किताबें पढ़ना, बीड़ी-सिगरेट पीना, चाय सुड़कना... डाउन.. डाउन के नारे लगाना और लड़कियां घुमाना ही असल बोल्शेविक जीवन है. बस मौसम जरा पिछड़ जाता था. अगर यहां भी रूस जैसी सर्दी पड़ती तो साल भर वोदका भी पी जाती.

तो वहां कई वरिष्ठ मुझसे अकसर कहा करते थे कि अरे देवांशु तुमने सिगरेट वगैरह पीनी शुरू की या नहीं? मैं मना कर देता तो बोलते अरे ये सही उम्र है सिगरेट वगैरह शुरू करने की. अब नहीं पियोगो तो कब पियोगे. मानो सिगरेट नहीं कोई स्वास्थ्यवर्धक चूरन हो. मैंने करीब दो साल वहां काटे. बहुत करीब से देखा. वहां के चुनाव देखे, वहां की रोजमर्रा की जिन्दगी देखी. कुल मिलाकर यही पाया कि जेएनयू में सोशल साइंस और आर्ट्स फैकल्टी मे पढ़ने-लिखने का कोई माहौल नहीं है. जो तथाकथित बौद्धिक होने का प्रचार करते हैं और भौकाल बना के रखते हैं, वो दरअसल हवाबाजी के सिवा कुछ होता नहीं. एक दो अपवादों को छोड़कर.

जेएनयू एक सतह से उखड़ा हुआ विश्वविद्यालय है, जहां गांव-देहात से आने वालों के बहक जाने का खतरा सबसे ज्यादा रहता है. वहां आते ही आप लेनिन, चे गुएरा, और पाब्लो नेरूदा के पोस्टर देखते हैं. नारे पढते हैं. हम लड़ेंगे साथी उदास मौसम के लिए... दुनिया के मजदूरो एक हो.... भाजपाई होश में आओ... ऊपर से दिन भर दिमाग धुलाई का एकल कार्यक्रम! तो धीरे-धीरे लगने लगता है कि बड़ा ही कमीना देश है भारत. और हमारे बाप-दादा तो एक नंबर के शोषक रहे होंगे. असली देवता तो यही लोग हैं.

JN की खबर और मेरी नजरऊपर से गंवई पृष्ठभूमि से आने वाले जब गंगा ढाबा पर मिनी स्कर्ट में सुपुष्ट जंघाएं देखते हैं तो अलबला जाते हैं. उसके बाद मन में सिर्फ क्रांति का भाव ही रह जाता है. सस्ता खाना, सस्ता रहना, सरलता से गर्लफ्रेंड मिलना. वो गलबहियां, वो चल चितवन, कृपाण और जब चाहो तब विद्रोह के धनुष बाण! मां बाप, गांव घर की भ्रांतियां जाती रह जाती है. देश समाज और धर्म सब बेमानी लगने लगता है. सुट्टा मारो, बिना नहाए-धोए पांच दिन घूमो. रात को दबा के दारू खींचो. कमरे में जगह न मिले तो झाड़ी में ही पिल पड़ो और सुबह बौद्धिकों वाली पुरानी परिचित दाढ़ी लेकर टेफ्लाज़ में पूड़ी आलू भकोसने चले आओ. बस यही तो जीवन है. परीक्षा पास करने के लिए दस दिन की पढ़ाई काफी होती है.

इस माहौल में एक-दो तीन चार साल काटने के बाद आदमी खब्ती हो जाता है. उसे जेएनयू के अलावा कुछ सूझता ही नहीं. जिन्दगी हर तरह के बंधन और जिम्मेदारी से मुक्त रहती है. इसलिए जियो और रूसी ज्ञान देते रहो. तीन चार साल पहले तक वहां हालात आज से बेहतर थे. कुएं के मेढ़क कम टरटराते थे. सबकुछ अनुकूल था. अब सांस लेने में दिक्कत हो रही है क्योंकि बोल्शेविक क्रांति का भारतीय संस्करण बिक नहीं रहा. ऊपर से केन्द्र में मोदी आ गए हैं. इसीलिए आए दिन उत्पात, हंगामा और ये ड्रामा चल रहा है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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