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किसने जीती जेएनयू की जंग?

    • डॉ. कपिल शर्मा
    • Updated: 05 मार्च, 2016 12:44 PM
  • 05 मार्च, 2016 12:44 PM
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जेएनयू के हंगामे को 'दूर-दृष्टि' के मद्देनजर ही हवा दी गई है. जेएनयू में जो कुछ हुआ, उसके होने के संकेत केंद्र में मोदी सरकार के काबिज होने के साथ ही मिलने शुरु हो गए थे. मतलब जो हुआ, वो होना ही था, पहले से ही तय था.

कन्हैया का भाषण सुनकर लोग उसके मुरीद हो गए, मुझे भी प्रभावित किया. आम राय बन रही है कि मोदी सरकार ने कन्हैया को नेता बना दिया. सच भी लगता है क्योंकि कन्हैया का भाषण छात्र नेता का नहीं एक मंझे हुए नेता का ही तो था. जिसे समाचार चैनलों ने प्राइम टाइम में एक घंटे तक लाइव दिखाया. फिर बार बार दिखाया. तो इसके मायने क्या है? देशद्रोह का आरोपी कन्हैया हीरो बन गया? वामपंथ जीत गया? विपक्ष को आवाज मिल गई? एक नया नेता पैदा हो गया? सरकार हार गई? संघ की विचारधारा नकार दी गई? आप टीवी न्यूज चैनल देखेंगे, अखबार पढ़ेंगे या सोशल मीडिया पर कन्हैया को भाषण के लिए वाहवाही के संदेश पढ़ेंगे, तो यकीनन ये सारे सवाल सच लगेंगे, जवाब भी हां में ही मिलेगा. लेकिन इन तमाम सवालों के बीच एक सवाल और है कि क्या वाकई ऐसा है?

अगर विनर और रनर अप की ट्रॉफी मिलनी होती, तो फैसला अभी करना पड़ता. लेकिन ऐसा नहीं है, तो नफा नुकसान को भी भविष्य पर छोड़ दीजिए. क्योंकि जेएनयू के हंगामे को 'दूर-दृष्टि' के मद्देनजर ही हवा दी गई है. जेएनयू में जो कुछ हुआ, उसके होने के संकेत केंद्र में मोदी सरकार के काबिज होने के साथ ही मिलने शुरु हो गए थे. मतलब जो हुआ, वो होना ही था, पहले से ही तय था.

थोड़ा पीछे जाइए, तो बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी के कुछ महीने पहले दिए बयानों पर ध्यान दीजिए, जिसमें स्वामी ने जेएनयू को नक्सलियों का गढ़ बताया था. इसके अलावा इस लाल गढ़ में सेंध लगाने के लिए भगवा झंडा थामे एबीवीपी ने कोशिश की, आंशिक तौर पर कामयाबी मिली और छात्रसंघ के एक पद पर भगवा परिवार के छात्र संगठन को जीत मिली. लेकिन संघ की विचारधारा को एंट्री नहीं मिली, बाबा रामदेव का जेएनयू में होने वाला अपना एक कार्यक्रम सिर्फ इसलिए रद्द करना पड़ा, क्योंकि यहां मौजूद वामपंथी छात्र संगठनों ने विरोध की चेतावनी दे दी थी.

संघ समर्थित या कहें कि दक्षिणपंथी विचाराधारा की एंट्री शिक्षा परिसरों में कैसे हो, इसकी रणनीति दो स्तरों पर चल रही है. एक संघ के विचारकों के जरिए, जिनमें शिक्षक, लेखक और छात्र...

कन्हैया का भाषण सुनकर लोग उसके मुरीद हो गए, मुझे भी प्रभावित किया. आम राय बन रही है कि मोदी सरकार ने कन्हैया को नेता बना दिया. सच भी लगता है क्योंकि कन्हैया का भाषण छात्र नेता का नहीं एक मंझे हुए नेता का ही तो था. जिसे समाचार चैनलों ने प्राइम टाइम में एक घंटे तक लाइव दिखाया. फिर बार बार दिखाया. तो इसके मायने क्या है? देशद्रोह का आरोपी कन्हैया हीरो बन गया? वामपंथ जीत गया? विपक्ष को आवाज मिल गई? एक नया नेता पैदा हो गया? सरकार हार गई? संघ की विचारधारा नकार दी गई? आप टीवी न्यूज चैनल देखेंगे, अखबार पढ़ेंगे या सोशल मीडिया पर कन्हैया को भाषण के लिए वाहवाही के संदेश पढ़ेंगे, तो यकीनन ये सारे सवाल सच लगेंगे, जवाब भी हां में ही मिलेगा. लेकिन इन तमाम सवालों के बीच एक सवाल और है कि क्या वाकई ऐसा है?

अगर विनर और रनर अप की ट्रॉफी मिलनी होती, तो फैसला अभी करना पड़ता. लेकिन ऐसा नहीं है, तो नफा नुकसान को भी भविष्य पर छोड़ दीजिए. क्योंकि जेएनयू के हंगामे को 'दूर-दृष्टि' के मद्देनजर ही हवा दी गई है. जेएनयू में जो कुछ हुआ, उसके होने के संकेत केंद्र में मोदी सरकार के काबिज होने के साथ ही मिलने शुरु हो गए थे. मतलब जो हुआ, वो होना ही था, पहले से ही तय था.

थोड़ा पीछे जाइए, तो बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी के कुछ महीने पहले दिए बयानों पर ध्यान दीजिए, जिसमें स्वामी ने जेएनयू को नक्सलियों का गढ़ बताया था. इसके अलावा इस लाल गढ़ में सेंध लगाने के लिए भगवा झंडा थामे एबीवीपी ने कोशिश की, आंशिक तौर पर कामयाबी मिली और छात्रसंघ के एक पद पर भगवा परिवार के छात्र संगठन को जीत मिली. लेकिन संघ की विचारधारा को एंट्री नहीं मिली, बाबा रामदेव का जेएनयू में होने वाला अपना एक कार्यक्रम सिर्फ इसलिए रद्द करना पड़ा, क्योंकि यहां मौजूद वामपंथी छात्र संगठनों ने विरोध की चेतावनी दे दी थी.

संघ समर्थित या कहें कि दक्षिणपंथी विचाराधारा की एंट्री शिक्षा परिसरों में कैसे हो, इसकी रणनीति दो स्तरों पर चल रही है. एक संघ के विचारकों के जरिए, जिनमें शिक्षक, लेखक और छात्र इकाइयां शामिल हैं. दूसरी सरकार के जरिए, जिसमें मानव संसाधन विकास मंत्रालय शामिल है. गौर कीजिए, स्मृति ईरानी के मंत्रालय ने केंद्रीय विश्वविद्यालयो में गैर जेआरएफ वाली फैलोशिप खत्म करने का फरमान जारी किया था, जिसका सबसे ज्यादा असर जेएनयू, जामिया और एएमयू जैसी यूनिवर्सिटी पर पड़ना था. शायद वर्षों से जमे शिक्षक संघों और छात्र संगठनों, (जिनमें से लगभग सभी गैर भाजपायी हैं) की जड़ों को हिलाने के लिए ऐसे फैसले लिए जा रहे हैं, जो नई विचारधारा के प्रवेश को सुनिश्चित कर सकें.

विरोध होगा और सरकार को इस विरोध को झेलना होगा. इसका अंदाजा भी बदलाव की मुहिम में लगे भगवा ब्रिगेड के लोगों को है. इसीलिए हर घटना में इसकी झलक भी दिख रही है. पुणे के एफटीआईआई में गजेंद्र चौहान की नियुक्ति को लीजिए, सरकार चाहती तो जबरदस्त विरोध के बाद टकराव को खत्म करने के लिए गजेंद्र की जगह अपनी ही विचारधारा वाले किसी भी नरेंद्र, सुरेंद्र को इस पद पर बैठा सकती थी, लेकिन मकसद तो संदेश देने का था. इसलिए सरकार अपने फैसले पर अडिग रही. दादरी की घटना के बाद अवॉर्ड वापसी अभियान चला, तो सरकार के लोगों ने इसे संभालने के बजाए उकसाया ही.

एक के बाद एक बड़े साहित्यकारों ने अपने सम्मान लौटा दिेए और सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी. क्यों? क्योंकि अवॉर्ड वापस करने वालों में कोई भी ऐसा नहीं था, जिसने बीजेपी या संघ के विचारों को आगे बढ़ाया हो, बल्कि ज्यादातर साहित्यकारों ने मौके-बे मौका संघ को पीछे ही धकेला है. इसीलिए तो सरकार को असहिष्णुता का आरोप मंजूर था, साहित्यकारों की मनुहार करना नहीं. क्योंकि बुद्दीजीवियों की संस्थाओं में संघ की धर्म ध्वजा उठाने वालों की एंट्री के लिए रास्ता जो बनाना था.

जो हुआ, जो हो रहा है उससे कुछ और संकेत भी मिल रहे हैं. जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दीक्षांत समारोह में जाने की बात हुई, लेकिन कैंपस के भीतर से ही चेतावनी आ गयी कि पीएम मोदी का जामिया में आना मंजूर नहीं है. पीएम नहीं गए, लेकिन बात यहीं खत्म हो गई हो ऐसा लगता नहीं है. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के साथ मानव संसाधन विकास मंत्रालय का शीतयु्द्ध कभी भी खुली जंग में बदल सकता है. हैदराबाद यूनिवर्सिटी में रोहित वेमुला की आत्महत्या मुद्दा बनी, तो इसके पीछे भी कहानी विचारधारा की लड़ाई की ही निकली.

प्रयोग जेएनयू में हुआ क्योकि जामिया और एएमयू जैसे संस्थानों पर दबाव बनाने से मामला सांप्रदायिक रंग ले लेता. लेकिन जेएनयू में प्रयोग की पूरी संभावनाएं मौजूद थीं और हंगामें की वजह भी. क्योंकि अफज़ल के नारे हों या महिषासुर पूजा, ऐसे तमाम विवाद और घटनाएं जेएनयू के लिए नई नहीं हैं. क्योंकि यहां विश्व-विमर्थ होता है. वैश्विक विचार मौजूद है. प्रगतिशील या ऐसी विचारधाराओं को मानने वाला छात्र वर्ग है, जो आम नहीं है बल्कि लीक से हटकर है. कभी जेएनयू के भीतर से छात्र गुटों में खूनी संघर्ष की घटनाएं नहीं आयीं क्योंकि यहां छोटे-छोटे समूहों में अलग अलग विचारों को मानने वालों की मौजूदगी हमेशा है. कभी टकराव होता भी है तो डफली बजाकर और अपने-अपने नारे लगाकर. इन समूहों के बीच कुछ अतिवादी भी हैं और अलगाववादी भी. सबके अपने नारे हैं, सबकी अपनी डफली और अपने राग हैं. जिन घटनाओं को लेकर बवाल मचा है, वो नई नहीं है, जेएनयू में हर साल होती रही है. लेकिन इस बार मौका भी था और दस्तूर भी, तो हो गया हंगामा. तयशुदा हंगामा.

अब सवाल ये कि इस पूरे हंगामे से हासिल क्या हुआ. तात्कालिक तौर पर जैसा कि दिख रहा है, समूचे विपक्ष को कन्हैया की शक्ल में एक आवाज मिल गई. जिसने संसद में दिए पीएम मोदी के संबोधन का जवाब समाचार चैनलों के प्राइम टाइम के सीधे प्रसारण में दिया. लेकिन साथ ही जेएनयू समेत देशभर के शिक्षा परिसरों में बहस छिड़ गई जिसमें अब तक अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही संघ विचारधारा वाले संगठनों को अपना अस्तित्व कायम करने का मौका मिलेगा.

सबसे बड़ी बात जेएनयू के 'देशद्रोही' एपिसोड से बीजेपी राष्ट्रवाद की लहर पैदा करने में कामयाब रही. सही गलत के बजाए अब गली मोहल्लों में चर्चा राष्ट्रवादी और गैरराष्ट्रवादी होने की है जो अब तक सांप्रदायिक और धर्मनिरपेक्ष होने की होती थी. क्योंकि जो धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर बीजेपी से छिटककर खड़े होते थे, बीजेपी उम्मीद कर सकती है, उनमें से कुछ राष्ट्रवाद के नाम पर उसके पाले में भी खड़े होंगे. तात्कालिक असर की बात करें, तो महिषासुर पूजा को मुद्दा बनाकर स्मृति ईरानी ने लोकसभा में दिए अपने भाषण से संकेत दे दिया कि पश्चिम बंगाल के चुनाव पार्टी के दिमाग में है. इसलिेए जिन लोगों को कन्हैया में नया-नया नेता नजर आ रहा है, उन्हे दूरबीन लगाकर थोड़ा आगे भी देखना चाहिेए.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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