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JNU-जामिया: सबसे अच्छी यूनिवर्सिटी बन गई विरोध-प्रदर्शनों का बड़ा ठिकाना!

    • अनुज मौर्या
    • Updated: 13 जनवरी, 2020 05:14 PM
  • 13 जनवरी, 2020 05:14 PM
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जामिया (Jamia) और जेएनयू (JNU) उन यूनिवर्सिटी में से हैं, जहां हर स्टूडेंट जाना चाहता है, लेकिन पिछले दिनों इन यूनिवर्सिटी में जो कुछ हुआ है, उसके बाद बहुत से स्टूडेंट यहां नहीं जाना चाहेंगे. मां-बाप तो कतई अपने बच्चों को नहीं भेजेंगे.

कुछ दिन पहले तक जेएनयू (JN) और जामिया (Jamia) हर स्टूडेंट का ख्वाब हुआ करते थे. आज भी काफी स्टूडेंट वहां जाने की ख्वाहिश दिल में लिए बैठे होंगे, लेकिन उनके माता-पिता अपने बच्चों को ऐसी यूनिवर्सिटीज में बिल्कुल भेजना नहीं चाहेंगे. ऐसी यूनिवर्सिटी, जहां माहौल पढ़ाई वाला होना चाहिए, लेकिन अब बात वातावरण में सरकार विरोधी तो सरकार के पक्ष में नारे लग रहे हैं. JN में फीस वृद्ध‍ि के मुद्दे से शुरू हुई बात दंगे-फसाद तक पहुुंच गई. दिल्‍ली पुलिस मुर्दाबाद के नारे लगे. अब दोनों ही युनिवर्सिटी में छात्र पढ़ाई और परीक्षा को किनारे रखकर सियासी दंगल में ही लगे रहना चाहते हैं. चंद दिनों में दिल्‍ली की दो सबसे अच्छी यूनिवर्सिटी विरोध-प्रदर्शनों (Protest) का ठिकाना बन गई है. क्‍या सभी छात्र इसके लिए दोषी हैं? तो जवाब है- नहीं. लेकिन, क्‍या कुछ छात्रों की गलती को पूरी तरह नजरअंदाज किया जा सकता है? तो इसका भी जवाब नहीं ही है.

जेएनयू और जामिया दोनों ही यूनिवर्सिटी आज सिर्फ राजनीति करने का जरिया बन चुकी हैं, वो भी हिंसा करते हुए.

कुछ की राजनीति, सब पर भारी

JN में करीब 10,000 छात्र हैं और जामिया यूनिवर्सिटी में लगभग 25,000 छात्र हैं. जब आप प्रदर्शन करने वालों को देखेंगे, तो कुछ सौ या चंद हजार स्टूडेंट प्रदर्शन करते नजर आएंगे. ध्यान रहे कि भले ही प्रदर्शन करने वाले या यूं कहें कि सक्रिय राजनीति का हिस्सा बन रहे छात्रा मुट्ठी भर हैं, लेकिन इन यूनिवर्सिटी में छात्रों की संख्या काफी अधिक है. यकीनन हर कोई इन प्रदर्शनों का हिस्सा नहीं है. जो सिर्फ पढ़ने गया है, वह सिर्फ पढ़ ही रहा है, राजनीति उसका मकसद नहीं. जिनका मकसद राजनीति है, वह भी अपना काम बखूबी कर रहे हैं, लेकिन इसका बुरा असर पड़ रहा है उन छात्रों पर, जो देश की टॉप यूनिवर्सिटी में पढ़ने आए हैं, लेकिन पढ़ नहीं पा रहे. इन सब ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं.

कुछ दिन पहले तक जेएनयू (JN) और जामिया (Jamia) हर स्टूडेंट का ख्वाब हुआ करते थे. आज भी काफी स्टूडेंट वहां जाने की ख्वाहिश दिल में लिए बैठे होंगे, लेकिन उनके माता-पिता अपने बच्चों को ऐसी यूनिवर्सिटीज में बिल्कुल भेजना नहीं चाहेंगे. ऐसी यूनिवर्सिटी, जहां माहौल पढ़ाई वाला होना चाहिए, लेकिन अब बात वातावरण में सरकार विरोधी तो सरकार के पक्ष में नारे लग रहे हैं. JN में फीस वृद्ध‍ि के मुद्दे से शुरू हुई बात दंगे-फसाद तक पहुुंच गई. दिल्‍ली पुलिस मुर्दाबाद के नारे लगे. अब दोनों ही युनिवर्सिटी में छात्र पढ़ाई और परीक्षा को किनारे रखकर सियासी दंगल में ही लगे रहना चाहते हैं. चंद दिनों में दिल्‍ली की दो सबसे अच्छी यूनिवर्सिटी विरोध-प्रदर्शनों (Protest) का ठिकाना बन गई है. क्‍या सभी छात्र इसके लिए दोषी हैं? तो जवाब है- नहीं. लेकिन, क्‍या कुछ छात्रों की गलती को पूरी तरह नजरअंदाज किया जा सकता है? तो इसका भी जवाब नहीं ही है.

जेएनयू और जामिया दोनों ही यूनिवर्सिटी आज सिर्फ राजनीति करने का जरिया बन चुकी हैं, वो भी हिंसा करते हुए.

कुछ की राजनीति, सब पर भारी

JN में करीब 10,000 छात्र हैं और जामिया यूनिवर्सिटी में लगभग 25,000 छात्र हैं. जब आप प्रदर्शन करने वालों को देखेंगे, तो कुछ सौ या चंद हजार स्टूडेंट प्रदर्शन करते नजर आएंगे. ध्यान रहे कि भले ही प्रदर्शन करने वाले या यूं कहें कि सक्रिय राजनीति का हिस्सा बन रहे छात्रा मुट्ठी भर हैं, लेकिन इन यूनिवर्सिटी में छात्रों की संख्या काफी अधिक है. यकीनन हर कोई इन प्रदर्शनों का हिस्सा नहीं है. जो सिर्फ पढ़ने गया है, वह सिर्फ पढ़ ही रहा है, राजनीति उसका मकसद नहीं. जिनका मकसद राजनीति है, वह भी अपना काम बखूबी कर रहे हैं, लेकिन इसका बुरा असर पड़ रहा है उन छात्रों पर, जो देश की टॉप यूनिवर्सिटी में पढ़ने आए हैं, लेकिन पढ़ नहीं पा रहे. इन सब ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं.

पहले बात जामिया यूनिवर्सिटी की

नागरिकता कानून को मंजूरी मिलने के बाद जामिया मिलिया इस्‍लामिया के छात्रों का प्रदर्शन इतना उग्र हो गया कि कई बसें फूंक दी गईं, प्रॉपर्टी को नुकसान पहुंचाया गया. शाम होते-होते पुलिस को लाठीचार्ज करनी पड़ी और आंसू गैस के गोले दागने पड़े. पुलिस बल के सामने जब उपद्रवी कमजोर पड़े तो वह जामिया यूनिवर्सिटी कैंपस की दीवार फांदकर यूनिवर्सिटी में जा घुसे. अब बारी थी गेहूं के साथ घुन पिसने की. पुलिस ने यूनिवर्सिटी में घुसकर आंसू गैस के गोले दागे और लाठी चार्ज तक किया. यकीनन इस कार्रवाई से पुलिस को उपद्रवियों को खदेड़ने में मदद मिली, लेकिन नुकसान उन छात्रों का हुआ, जो सिर्फ पढ़ने के लिए जामिया आए थे और शायद तब भी पढ़ाई ही कर रहे थे. जामिया में जो कुछ हुआ, उसने कई सवाल खड़े कर दिए हैं.

- सवाल ये कि जामिया को CAA protest का ठिकाना बनाने से पहले क्या सभी यूनिवर्सिटी के छात्रों की सहमति ली गई थी? क्या सभी छात्र इसके लिए तैयार थे? अगर नहीं तो पुलिस की लाठी क्यों खानी पड़ी?

- जामिया में किसी ने ये सोचा था कि CAA के खिलाफ आंदोलन उनके हाथ से निकलेगा तो क्या होगा? जिन्होंने ये प्रदर्शन आयोजित किए थे, उन्होंने उन छात्रों के बारे में सोचा, जो सिर्फ पढ़ाई करना चाहते थे या सिर्फ अपनी राजनीति चमकाने के लिए सभी को हिंसा की आग में झोंक दिया?

- जामिया में पुलिस की कार्रवाई पर उंगली उठाने वालों को सोचना पड़ेगा कि एक शिक्षण संस्थान को इस तरह के विवाद की धुरी बनने से क्या मिलेगा?

अब बात JN की

ऐसा नहीं है कि जेएनयू पहली बार विवादों में आया है. पहले भी यहीं पर भारत विरोधी नारे लगे थे. पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर तो इसका आरोप भी लगा. सरकार ने फीस बढ़ाने का फैसला किया, तो एक बार फिर छात्रों ने विरोध जताया, नारेबाजी की. यहां तक तो ठीक था. जेएनयू स्टूडेंट राजनीति का गढ़ है, ये बात किसी से दबी छुपी नहीं है और जेएनयू ने देश को कई नेता भी दिए हैं. लेकिन जब स्टूडेंट राजनीति में हिंसात्मक तत्व घुस जाते हैं, तो क्या होता है, ये जानना है तो आज के दिन बस जेएनयू का नजारा देख लीजिए. कुछ दिन पहले ही नकाब पहन कर कुछ लोग घुसे और यूनिवर्सिटी में तोड़फोड़ की. यहां तक कि स्टूडेंट्स के बीच में भी मारपीट हुई, जिसमें बहुत से छात्र घायल हुए हैं. धीरे-धीरे पता चल रहा है कि उन नकाबपोशों में बहुत से लोग तो यूनिवर्सिटी के बाहर से अंदर घुसे थे. यानी उनका मकसद ही हिंसा करना था. इस घटना में लेफ्ट और एबीवीपी के छात्र भी शामिल हैं. हां ये भी ध्यान रहे कि लेफ्ट के अधिक हैं और एबीवीपी के कम, लेकिन हैं दोनों ही. इन सब के बाद अब कुछ सवाल उठते हैं.

- सवाल ये कि JN में फीस बढ़ाने का मुद्दा तो छात्रों से जुड़ा था, लेकिन इस विरोध प्रदर्शन के नाम पर दिल्ली की सड़कों पर उपद्रव, पुलिस से भिड़ंत, और यूनिवर्सिटी कैंपस के भीतर का बवाल क्या किसी बाहरी ताक़त ने किया? पुलिस को ऐसे सुराग मिल भी रहे हैं. यानी ये कहना गलत नहीं होगा कि कुछ भी अचानक नहीं हुआ, सब कुछ पहले से ही प्लान किया गया था.

- JN में लेफ्ट छात्र संगठनों के बहुमत वाली स्टूडेंट यूनियन का सेमेस्टर रेजिस्ट्रेशन रोकने के लिए सर्वर रूम तोड़ना क्या उनकी पढ़ाई-लिखाई का हिस्सा था? यानी लेफ्ट के जिन छात्रों ने ये तोड़-फोड़ की, वह कम से कम पढ़ाई करने के लिए तो वहां नहीं गए लगते हैं. हां ये जरूर है कि वह पढ़ने वालों की पढ़ाई रोकने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे.

- लेफ्ट ने तोड़फोड़ और मारपीट की तो उसका बदला लेने के लिए ABVP छात्रों का बलवे पर उतारू होना क्या यूनिवर्सिटी में माहौल सकारात्मक बनाने के लिए था? ऐसे कौन सा माहौल सकारात्मक बनता है. हिंसा का जवाब हिंसा कैसे हो सकता है?

राजनीतिक दल उठा रहे हैं फायदा

दिल्ली चुनाव आने वाले हैं और इसके मद्देनजर राजनीतिक दल जेएनयू हिंसा को खूब भुना रहे हैं. कांग्रेस कह रही है कि भाजपा की एबीवीपी ने ये सब किया है, जबकि भाजपा इस पूरी हिंसा का आरोप लेफ्ट के मत्थे मढ़ रही है. छात्र भी बंट से गए हैं. कुछ लेफ्ट के साथ हो लिए हैं तो कुछ भाजपा का समर्थन करते नजर आ रहे हैं. इस गरमा-गर्म सियासी माहौल में, जब राजनीतिक दलों के पास व्यापक चेतना का अभाव है, ऐसे में राजनेताओं को बन्दूक चलाने के लिए अपने कंधे का इस्तेमाल करने देना छात्रों की कौन सी बुद्धिमत्ता है? छात्र ये क्यों नहीं समझ रहे हैं कि इससे उनकी ही पढ़ाई का नुकसान होगा? हां ये बात अलग है कि इन सब में लगे हुए छात्रों का जेएनयू में एडमिशन लेने का मकसद पढ़ाई है ही नहीं, बल्कि राजनीति है.

छात्रों को खुद को बचाने के लिए खुद ही आगे आना होगा

दिल्ली की दो सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी के छात्रों को मिलकर सोचना होगा कि उनका मूल दायित्व क्या है? वे अपने मुद्दों का अतिक्रमण तो नहीं होने दे रहे? राजनीति के लिए उनका इस्तेमाल तो नहीं हो रहा? कहीं ये राजनीतिक पार्टियां अपना हित साधने के लिए छात्रों के मुद्दों को दबा तो नहीं रहीं, क्योंकि छात्रों के मुद्दों से राजनीतिक पार्टियों का कोई फायदा नहीं होने वाला. अगर छात्रों ने खुद आगे बढ़कर ये सब नहीं रोका, तो वो दिन दूर नहीं जब बेस्ट कही जानी इन यूनिवर्सिटीज में आने से छात्र तो डरेंगे ही, बल्कि मां-बाप की अपने बच्चों को यहां कतई नहीं भेजेंगे.

माता-पिता की चिंता भी जायज है

कोई भी मां-बाप अपने बच्चों को सक्सेसफुल होता देखने से पहले उसे सही-सलामत देखना चाहते हैं. कोई भी अपने बच्चों को खतरे की खान में भेजकर उसके सुनहरे भविष्य का सपना नहीं देखेगा. ऐसी यूनिवर्सिटी में कोई अपने बच्चों को क्यों भेजेगा, जहां बाहर से कोई भी घुसकर मारपीट कर दे. मारपीट भी ऐसी-वैसी नहीं, बल्कि हाथ-पैर तोड़ने और सिर तक फोड़ने जैसी. नारेबाजी और प्रदर्शनों तक तो ठीक था, लेकिन हिंसा के बाद तो मा-बाप को चिंता होने जायज है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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