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येरुशलम विवाद : क्यों मोदी सरकार ने हिन्दू दक्षिणपंथियों की भावना के विरुद्ध वोट दिया !

    • राहुल लाल
    • Updated: 23 दिसम्बर, 2017 01:28 PM
  • 23 दिसम्बर, 2017 01:28 PM
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वर्तमान में भारत-इजराइल और अमेरिका तीनों देश घनिष्ठ मित्र हैं. इजराइल में प्रधानमंत्री मोदी का जिस तरह अति भव्य स्वागत हुआ तथा आधुनिक हथियारों के साथ इजराइल के साथ घनिष्ठ रणनीतिक संबंध बने, उससे भी लोगों में सरकार की छवि फिलस्तीन विरोध की बनी.

हाल के दिनों में भारत-इजराइल संबंध अपने घनिष्ठ दौर में है. इससे हिंदू दक्षिणपंथी समूहों ने भारतीय विदेश नीति में एक बड़े बदलाव को मुस्लिम तुष्टिकरण की पुराने नीति से परिवर्तन के रूप में देखा. वर्तमान में भारत-इजराइल और अमेरिका तीनों देश घनिष्ठ मित्र हैं. इजराइल में प्रधानमंत्री मोदी का जिस तरह अति भव्य स्वागत हुआ तथा आधुनिक हथियारों के साथ इजराइल के साथ घनिष्ठ रणनीतिक संबंध बने, उससे भी लोगों में सरकार की छवि फिलस्तीन विरोध की बनी. ऐसे में गुरुवार को संयुक्त राष्ट्र के गैर बाध्यकारी प्रस्ताव में भारत द्वारा इजराइल के पक्ष में मतदान नहीं करने के भारतीय निर्णय का भारतीय जनता पार्टी के ही कई वरिष्ठ नेताओं ने आलोचना की है. इस मतदान से पूर्व ही भाजपा नेता स्वप्न दास गुप्ता ने ट्वीट कर कहा था कि, "भारत को या तो वोटिंग से गैर हाजिर रहना चाहिए या फिर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का विरोध करन चाहिए. "इस मतदान के बाद भाजपा के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा, "भारत ने अमेरिका और इजराइल के साथ वोट नहीं करके बहुत बड़ी गलती की."

ऐसे में प्रश्न उठता है कि येरुशलम पर भारत ने इजराइल का साथ क्यों नहीं दिया??

1- संयुक्त राष्ट्र के जनरल एसेंबली (NGA) ने अमेरिका द्वारा येरुशलम को इजराइल की राजधानी का दर्जा देने को रद्द करने की माँग करने वाले प्रस्ताव को पारित किया. संयुक्त राष्ट्र के इस गैर बाध्यकारी प्रस्ताव के समर्थन में 128 देशों ने मतदान किया जबकि 35 देश अनुपस्थित रहे.

2- इस प्रस्ताव में केवल 9 देशों ने अमेरिका के समर्थन में प्रस्ताव के खिलाफ मतदान किया. इन देशों में अमेरिका एवं इजराइल के अतिरिक्त ग्वाटेमाला, होंडुरास, द मार्शल आइलैंड्स, माइक्रोनेशिया, नॉरू,पलाऊ और टोगों ने वोट किया. इस तरह किसी भी बड़े देश ने अमेरिका एवं इजराइल को समर्थन नहीं दिया. एक तरह से इसमें...

हाल के दिनों में भारत-इजराइल संबंध अपने घनिष्ठ दौर में है. इससे हिंदू दक्षिणपंथी समूहों ने भारतीय विदेश नीति में एक बड़े बदलाव को मुस्लिम तुष्टिकरण की पुराने नीति से परिवर्तन के रूप में देखा. वर्तमान में भारत-इजराइल और अमेरिका तीनों देश घनिष्ठ मित्र हैं. इजराइल में प्रधानमंत्री मोदी का जिस तरह अति भव्य स्वागत हुआ तथा आधुनिक हथियारों के साथ इजराइल के साथ घनिष्ठ रणनीतिक संबंध बने, उससे भी लोगों में सरकार की छवि फिलस्तीन विरोध की बनी. ऐसे में गुरुवार को संयुक्त राष्ट्र के गैर बाध्यकारी प्रस्ताव में भारत द्वारा इजराइल के पक्ष में मतदान नहीं करने के भारतीय निर्णय का भारतीय जनता पार्टी के ही कई वरिष्ठ नेताओं ने आलोचना की है. इस मतदान से पूर्व ही भाजपा नेता स्वप्न दास गुप्ता ने ट्वीट कर कहा था कि, "भारत को या तो वोटिंग से गैर हाजिर रहना चाहिए या फिर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का विरोध करन चाहिए. "इस मतदान के बाद भाजपा के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा, "भारत ने अमेरिका और इजराइल के साथ वोट नहीं करके बहुत बड़ी गलती की."

ऐसे में प्रश्न उठता है कि येरुशलम पर भारत ने इजराइल का साथ क्यों नहीं दिया??

1- संयुक्त राष्ट्र के जनरल एसेंबली (NGA) ने अमेरिका द्वारा येरुशलम को इजराइल की राजधानी का दर्जा देने को रद्द करने की माँग करने वाले प्रस्ताव को पारित किया. संयुक्त राष्ट्र के इस गैर बाध्यकारी प्रस्ताव के समर्थन में 128 देशों ने मतदान किया जबकि 35 देश अनुपस्थित रहे.

2- इस प्रस्ताव में केवल 9 देशों ने अमेरिका के समर्थन में प्रस्ताव के खिलाफ मतदान किया. इन देशों में अमेरिका एवं इजराइल के अतिरिक्त ग्वाटेमाला, होंडुरास, द मार्शल आइलैंड्स, माइक्रोनेशिया, नॉरू,पलाऊ और टोगों ने वोट किया. इस तरह किसी भी बड़े देश ने अमेरिका एवं इजराइल को समर्थन नहीं दिया. एक तरह से इसमें अधिकांश ऐसे देश हैं, जिसे प्राय: लोग जानते भी नहीं.

3- इस मतदान के पूर्व अमेरिका ने विश्व के सभी देशों को धमकी दी थी कि अगर अमेरिका के समर्थन में देश मतदान नहीं करेंगे, तो उन देशों के आर्थिक मदद को रोक दिया जाएगा. ट्रंप ने तो यहाँ तक कहा था कि हमारा पैसा लेंगे और समर्थन में मतदान नहीं करेंगे. इसे वह बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेगा.

4- अमेरिका के इस प्रकार के धमकी तथा वैश्विक जनसमर्थन को देखते हुए भारत ने फिलस्तीन के पक्ष में तथा अमेरिका एवं इजराइल के विपक्ष में मतदान किया.

5- ट्रंप को येरुशलम मामले में न केवल मुस्लिम देशों अपितु दुनिया के सभी शक्तिशाली देशों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है. इससे पूर्व संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के 15 सदस्यों में से सभी 14 देशों ने अमेरिका के विरोध में वोट दिया था. तब अमेरिका को वीटो का प्रयोग कर इस प्रस्ताव को रोकना पड़ा था. यही कारण है कि सुरक्षा परिषद में संयुक्त राष्ट्र की स्थायी प्रतिनिधि निक्की हेली ने ही इसे अमेरिका के लिए अंतर्राष्ट्रीय बेइज्जती करार दिया.

6- येरुशलम मामले को लेकर अमेरिका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कितना अकेला है, यह इससे पता चलता है कि उसके घनिष्ठ मित्र कनाडा तथा पड़ोसी मैक्सिको ने भी पक्ष में मतदान करने के स्थान पर अनुपस्थित रहने का विकल्प चुना. ज्ञात हो इस मतदान से मैक्सिको एवं कनाडा सहित 35 देश अनुपस्थित रहे.

7- संयुक्त राष्ट्र के उपरोक्त मतदान के पूर्व इस्तांबुल में ओआईसी की बैठक हुई थी, वहाँ भी शत-प्रतिशत देशों ने फिलस्तीन का ही समर्थन किया था.

8- भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा (NGA) में अमेरिका विरोधी मतदान कर स्वतंत्र विदेश नीति को ही प्रतिबिंबित किया है. भारत ने स्पष्ट कर दिया कि उसके अमेरिका और इजराइल से अच्छे संबंध हैं, पर इस तरह के अंतर्राष्ट्रीय मामले में अलग रुख हो सकता है.

9- भारत प्रारंभ से ही इजराइल और फिलस्तीन के बीच संतुलन बनाकर चलता रहा है. यही कारण था कि प्रधानमंत्री के इजराइल यात्रा के पूर्व फिलस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास के भारत यात्रा का कार्यक्रम रखा गया था.

10- मध्यपूर्व से भारत के विशिष्ट सामरिक हित जुड़े रहे हैं. वहाँ लगभग 80 लाख भारतीय रह रहे हैं, जो भारत को प्रतिवर्ष 40 अरब डॉलर की विदेशी मुद्रा भेजते हैं. ऐसे में भारत के पास खाड़ी देशों को नाराज करने का विकल्प नहीं था.

11- शिया नेतृत्व करने वाले ईरान तथा सुन्नी मुस्लिमों का नेतृत्व करने वाले सऊदी अरब के बीच तनाव चरम पर है. यह तनाव इतना गहरा है कि सऊदी अरब के कभी धुर विरोधी रहे इजराइल से भी उसकी घनिष्ठ मित्रता हो चुकी है. भारत का मध्यपूर्व एवं यूरोप की ओर जाने का परंपरागत रास्ता पाकिस्तान के कारण बंद है. यही कारण है कि भारत ने हाल ही में चीनी-पाकिस्तानी ग्वादर पोर्ट के प्रत्युत्तर में ईरान में चाबहार बंदरगाह के प्रथम फेज का उदघाटन कराया. यह केवल अफगानिस्तान ही नहीं अपितु मध्यपूर्व सहित यूरोप तक का रास्ता भारत के लिए उपलब्ध कराता है. ऐसे में भारत फिलस्तीन का विरोध कर ईरान विरोधी रुख भी नहीं अपना सकता था.

13- भारतीय विदेश मंत्रालय प्रारंभ से ही येरुशलम मामले में स्पष्ट था. यही कारण है कि जब अमेरिका ने येरुशलम को इजराइल की राजधानी बनाने की घोषणा की, तो भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने त्वरित रूप से बयान दिया कि इस मामले में भारत का रुख पूर्ववत ही रहेगा.

14- 1980 में इजराइल ने पूर्वी येरुशलम को राजधानी घोषित किया. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने बाध्यकारी प्रस्ताव पारित कर येरुशलम पर इजराइल के कब्जे का विरोध किया. तभी से इजराइल में सभी देशों के दूतावास तेलअवीव में है. भारत सदैव अंतर्राष्ट्रीय नियमों का सम्मान करता रहा है. ऐसे में भारत 1980 के सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के विरुद्ध मतदान करता, तो उसकी अंतर्राष्ट्रीय छवि प्रभावित होती. अपने अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता के कारण ही भारत ने सुरक्षा परिषद के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र महासभा में बार-बार अभूतपूर्व बहुमत प्राप्त कर जस्टिस दलवीर भंडारी को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय का न्यायाधीश बनाया.

भले ही बीजेपी के कुछ नेताओं को मोदी सरकार का यह फैसला अटपटा सा लग रहा हो, परंतु प्रधानमंत्री मोदी ने इस फैसले से जहाँ घरेलू राजनीति में अपने आलोचकों को स्पष्ट जवाब दिया कि उन्हें हमेशा मुस्लिम विरोधी के रूप में नहीं देखा जाए. वहीं दूसरी ओर अंतर्राष्ट्रीय मामलों में भी इस निर्णय से स्पष्ट हो गया कि भारत सदैव अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों व व्यवस्थाओं का पोषक तथा संवर्द्धक है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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