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ICJ दलबीर भंडारी : यूएन में सबसे बड़ी भारतीय जीत की इनसाइड स्टोरी

    • राहुल लाल
    • Updated: 21 नवम्बर, 2017 09:02 PM
  • 21 नवम्बर, 2017 09:02 PM
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अब समय आ गया है कि संयुक्त राष्ट्र में नियमों में परिवर्तन कर सुरक्षा परिषद को दी गई अलोकतांत्रिक शक्तियों में कटौती की जाए. साथ ही सुरक्षा परिषद में भी विस्तार किया जाए. संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद में सुधार 1993 से ही संयुक्त राष्ट्र के एजेंडे में है.

भारत ने संयुक्त राष्ट्र में एक बड़ी कूटनीतिक जीत दर्ज की है. भारत के जस्टिस दलवीर भंडारी को हेग स्थित अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) के लिए दोबारा चुन लिया गया है. दलबीर भंडारी का मुकाबला ब्रिटेन के जस्टिस क्रिस्टोफर ग्रीनवुड से था. लेकिन ब्रिटेन को संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपेक्षित समर्थन नहीं मिला. लिहाजा ब्रिटेन ने अंतिम समय में उनकी उम्मीदवारी वापस ले ली. 1945 में संयुक्त राष्ट्र के गठन के बाद से इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब संयुक्त राष्ट्र के सभी पांच सदस्यों का आईसीजे में प्रतिनिधित्व नहीं है.

अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायधीश के निर्वाचन में सुरक्षा परिषद और महासभा दोनों में प्रत्याशी को अलग-अलग बहुमत पाना होता है. अगर एक बार मतदान से आवश्यक बहुमत प्राप्त न हो तो फिर से मतदान होगा. इस तरह कुल मिलाकर तीन बार मतदान होगा. जस्टिस दलवीर भंडारी के मामले में दो बार चुनाव हो चुका था. पहला चुनाव 9 नवंबर को और दूसरा सोमवार 13 नवंबर को. अगर तीसरी बार भी महासभा और सुरक्षा परिषद अलग-अलग निर्णय देती तो क्या होता? ऐसी स्थिति में एक संयुक्त सम्मेलन द्वारा विचार होता, जिसमें महासभा और सुरक्षा परिषद के 3-3 प्रतिनिधि रहते. जिनके पक्ष में सम्मेलन के आधे से अधिक सदस्य होते, वह निर्वाचित मान लिया जाता. लेकिन अगर सम्मेलन भी कोई निर्णय नहीं कर पाता तो न्यायालय के निर्वाचित न्यायाधीश खाली स्थानों को भरने के लिए सुरक्षा परिषद और महासभा में मत प्राप्त व्यक्तियों में से चुनाव करते.

भारत ने स्थायी सदस्यों के दंभ को तोड़ दिया

इसी के तहत तीसरे मतदान के पहले ब्रिटेन ने जस्टिस भंडारी को रोकने के लिए कूटनीतिक दांव पेंच खेलने शुरु कर दिए थे. बहुमत के अभाव में मतदान प्रक्रिया को खत्म करने के लिए ज्वाइंट कॉन्फ्रेस (संयुक्त सम्मेलन) पर जोर...

भारत ने संयुक्त राष्ट्र में एक बड़ी कूटनीतिक जीत दर्ज की है. भारत के जस्टिस दलवीर भंडारी को हेग स्थित अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) के लिए दोबारा चुन लिया गया है. दलबीर भंडारी का मुकाबला ब्रिटेन के जस्टिस क्रिस्टोफर ग्रीनवुड से था. लेकिन ब्रिटेन को संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपेक्षित समर्थन नहीं मिला. लिहाजा ब्रिटेन ने अंतिम समय में उनकी उम्मीदवारी वापस ले ली. 1945 में संयुक्त राष्ट्र के गठन के बाद से इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब संयुक्त राष्ट्र के सभी पांच सदस्यों का आईसीजे में प्रतिनिधित्व नहीं है.

अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायधीश के निर्वाचन में सुरक्षा परिषद और महासभा दोनों में प्रत्याशी को अलग-अलग बहुमत पाना होता है. अगर एक बार मतदान से आवश्यक बहुमत प्राप्त न हो तो फिर से मतदान होगा. इस तरह कुल मिलाकर तीन बार मतदान होगा. जस्टिस दलवीर भंडारी के मामले में दो बार चुनाव हो चुका था. पहला चुनाव 9 नवंबर को और दूसरा सोमवार 13 नवंबर को. अगर तीसरी बार भी महासभा और सुरक्षा परिषद अलग-अलग निर्णय देती तो क्या होता? ऐसी स्थिति में एक संयुक्त सम्मेलन द्वारा विचार होता, जिसमें महासभा और सुरक्षा परिषद के 3-3 प्रतिनिधि रहते. जिनके पक्ष में सम्मेलन के आधे से अधिक सदस्य होते, वह निर्वाचित मान लिया जाता. लेकिन अगर सम्मेलन भी कोई निर्णय नहीं कर पाता तो न्यायालय के निर्वाचित न्यायाधीश खाली स्थानों को भरने के लिए सुरक्षा परिषद और महासभा में मत प्राप्त व्यक्तियों में से चुनाव करते.

भारत ने स्थायी सदस्यों के दंभ को तोड़ दिया

इसी के तहत तीसरे मतदान के पहले ब्रिटेन ने जस्टिस भंडारी को रोकने के लिए कूटनीतिक दांव पेंच खेलने शुरु कर दिए थे. बहुमत के अभाव में मतदान प्रक्रिया को खत्म करने के लिए ज्वाइंट कॉन्फ्रेस (संयुक्त सम्मेलन) पर जोर देकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपनी स्थायी सदस्यता का गलत इस्तेमाल करने पर उतारू हो गया था. ब्रिटेन सुरक्षा परिषद में ज्वाइंट कॉन्फ्रेंस मैकनिज्म पर जोर दे रहा था. हालांकि इस तरह का आखिरी विकल्प 1921 में अमल में आया था और इसके खिलाफ स्पष्ट कानूनी राय है. यह स्थिति भारत के लिए मुफीद भी थी और खतरनाक भी. इसमें वोटिंग की जगह खुला समर्थन होता है. इससे भारत को पता चल जाता कि कौन उसका दोस्त है और कौन उसके साथ होने का नाटक करता है.

इस मामले की संवेदनशीलता को इससे समझा जा सकता है कि न्यायधीश चयन के संदर्भ में सुरक्षा परिषद में स्थायी और अस्थायी सदस्यों में भेद नहीं रखा गया था. अर्थात् अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायधीश के चयन में सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों को कोई 'वीटो' नहीं प्राप्त होता है. इस तरह जहां पी-5 समूह सामान्य नियम के द्वारा तो भारतीय प्रत्याशी के विरुद्ध वीटो का प्रयोग नहीं कर सकता, वहां उसने लॉबिंग का प्रयोग किया.

आखिर ब्रिटेन ने अपनी उम्मीदवारी वापस क्यों ली?

ब्रिटेन ने 20 नवंबर को सुरक्षा परिषद में पहले चरण के चुनाव के बाद मतदान रोकने का प्रस्ताव रखा था. और उसके बाद ज्वाइंट मैकनिज्म (संयुक्त सम्मेलन) कराने की मांग की थी. लेकिन सुरक्षा परिषद के कई सदस्यों ने इसका विरोध किया. मतदान रूकवाने के लिए ब्रिटेन को 9 सदस्यों के वोट की जरुरत थी. लेकिन ब्रिटेन को अपेक्षित समर्थन नहीं मिलने के कारण ही अपने उम्मीदवार को वापस लेना पड़ा.

संयुक्त राष्ट्र में सुधार अपरिहार्य-

अब समय आ गया है कि संयुक्त राष्ट्र में नियमों में परिवर्तन कर सुरक्षा परिषद को दी गई अलोकतांत्रिक शक्तियों में कटौती की जाए. साथ ही सुरक्षा परिषद में भी विस्तार किया जाए. संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद में सुधार 1993 से ही संयुक्त राष्ट्र के एजेंडे में है. संयुक्त राष्ट्र का अस्तित्व ही सुरक्षा परिषद पर आधारित है. उसके सारे कार्यक्रम, बजट इत्यादि सुरक्षा परिषद के अधीन है. उसकी स्वीकृति के बिना बजट के लिए न तो धन मिल सकता है और न ही कोई काम ही पूरा किया जा सकता है.

स्थायी सदस्यों ने साम-दाम-दंड-भेद सब लगाया पर हार ही पाई

संयुक्त राष्ट्र को अगर न्यायसंगत, पारदर्शी, कुशल और जवाबदेह बनाना है तो इसके लिए सुरक्षा परिषद के अधिकारों में कटौती और महासभा के अधिकारों में वृद्धि करना ही होगा. संयुक्त राष्ट्र का गठन जब हुआ, तब इसके 51 सदस्य थे. लेकिन अब संख्या 193 हो चुकी है. ऐसे में सुरक्षा परिषद का विस्तार अपरिहार्य है. इस बीच 1965 में सुरक्षा परिषद का विस्तार किया गया था. मूल रुप से इसमें 11 सीटें थीं- 5 स्थायी और 6 अस्थायी.

1965 के विस्तार के बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कुल 15 सीटें हो गई. इसमें 4 अस्थायी सीटों को जोड़ा गया. 1965 के बाद सुरक्षा परिषद का विस्तार नहीं हुआ, जबकि सदस्य देशों की संख्या 118 से बढ़कर 193 हो गई. इस तथ्य के बावजूद की संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का 75% कार्य अफ्रीका पर केन्द्रित है. फिर भी इसमें अफ्रीका का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. इसलिए अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष की स्थितियों में सुरक्षा परिषद अपनी भूमिका का समुचित निर्वहन नहीं कर पाता. क्योंकि सुरक्षा परिषद में प्रतिनिधित्व के मामले में स्थायी सदस्यों (चीन, फ्रांस, ब्रिटेन, यूएसए, रूस) अनुपातिक नहीं हैं. न तो भौगोलिक और न ही क्षेत्रफल की दृष्टि से. और न ही संयुक्त राष्ट्र के सदस्य संख्या या आबादी की दृष्टि से. महत्वपूर्ण मामलों पर महाशक्तियों में मतभेद की स्थिति में वीटो पावर भी अपनी प्रासंगिकता खोता जा रहा है. उदाहरण के लिए आतंकवादी  मौलाना मसूद अजहर मामले में चीन ने बार-बार वीटो का दुरुपयोग किया है.

कुलभूषण जाधव मामले में दिसंबर में फैसला-

जस्टिस भंडारी का चुना जाना इसलिए भी अहम है क्योंकि दिसंबर में कुलभूषण जाधव पर आईसीजे का अंतिम फैसला आएगा. जाधव को भारतीय जासूस बताकर पाकिस्तान ने बंदी बना रखा है. पाकिस्तान ने जाधव केस की सुनवाई के लिए एडहॉक जज नियुक्त किया हुआ है. अगर जस्टिस भंडारी यह चुनाव हार जाते तो फिर भारत का कोई जज कोर्ट में मौजूद नहीं होता और भारत को बिना अपने जज के ही जाधव की पैरवी करनी पड़ती. जाधव को पाकिस्तान की सैन्य अदालत ने मौत की सजा सुनाई है.

निष्कर्ष-

जस्टिस दलवीर भंडारी मामले में संयुक्त राष्ट्र के स्थायी सदस्य का उम्मीदवार महासभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त करने में नाकाम रहा और अंततः उम्मीदवारी वापस लेनी पड़ी. ब्रिटेन ने आखिरी समय तक जिस तरह अलोकतांत्रिक तरीके से जद्दोजहद जारी रखी वह सर्वथा अनुचित था. महासभा का वोट बीते 70 से अधिक वर्षों से विशेषाधिकारों को अनुचित बढ़ावा दिए जाने का विरोध है. यही कारण है कि 9 नवंबर के चुनाव की तुलना में सोमवार 13 नवंबर को ब्रिटिश उम्मीदवार को महासभा में और ज्यादा शिकस्त मिली.

जस्टिस भंडारी मामले में भारत की अप्रत्याशित जीत मूलत: पी-5 के विरुद्ध लोकतंत्र की जीत है. इसीलिए 21वीं शताब्दी में विनाशकारी एवं विघटनकारी परिवर्तनों पर काबू पाने के लिए संयुक्त राष्ट्र के क्षमता निर्माण में वृद्धि हेतु महासभा के शक्तियों में वृद्धि तथा सुरक्षा परिषद का विस्तार अपरिहार्य हो गया है. संयुक्त राष्ट्र के लोकतंत्रीकरण के फलस्वरूप ही वैश्विक स्तर पर अमन, चैन, शांति, समृद्धि और मानवीय सरोकारों के प्रति संयुक्त राष्ट्र कहीं अधिक प्रभावी एवं अधिकारपूर्ण ढंग से काम कर सकेगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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